पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-21
वर्ष 1937 में हुए प्रांतीय और केंद्रीय सरकार के चुनावों में मुसलमानों के साथ-साथ अन्य अल्पसंख्यकों मसलन बौद्ध, सिख, इसाई एवं यूरोपिय मूल के भारतीयों को भी पृथक निर्वाचन का लाभ दिया गया था। पृथक निर्वाचन की व्यवस्था भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 (Indian Councils Act 1909) में ही कर दी गई थी। 1930 में शुरू हुए गोलमेज सम्मेलनों के विफल होने पश्चात् तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रामसे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 में साम्प्रदायिक अवार्ड (Communal Award) की घोषणा करी जिसमें पहली बाद हिंदू जाति के भीतर मौजूद दलित जातियों के लिए अलग से प्रांतीय एवं केंद्रीय सभा में सीटें आरक्षित की गई थीं। इस प्रकार के आरक्षण की बात लंबे अर्से से दलित वर्ग द्वारा ब्रिटिश सरकार के समक्ष उठाई जा रही थी। 1909 में बने इंडियन काउंसिल एक्ट के दायरे में मुसलमानों को तो शामिल किया गया था लेकिन दलित वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन मंडल बनाने अथवा उनके लिए प्रांतीय एवं केंद्रीय परिषद् में सीटें आरक्षित करने की बात नहीं स्वीकारी गई थी। 1909 के भारत सरकार का अधिनियम (Government of India Act, 1919) में इस प्रकार के आरक्षण में सिख, इसाई, एंग्लो इंडियन तथा यूरोपीय भारतीयों को भी शामिल कर लिया गया था। इस कालखंड में भारतीय राजनीति में एक और शख्स अपनी पकड़ तेज करने में जुट गया था। यह शख्स थे डॉ ़ भीमराव अंबेडकर जिनके प्रयासों का नतीजा था 1932 में घोषित कम्यूनल अवार्ड में हिंदू दलितों के लिए प्रांतीय एवं केंद्रीय सभा में अलग से सीटों का आरक्षण किया जाना। भारतीय राजनीति में, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में और 75 बरस के राष्ट्र की यात्रा में महात्मा गांधी के अलावा जिस एक व्यक्ति का प्रभाव आज तक महसूसा जा रहा है, वह व्यक्ति यही डॉ ़अंबेडकर हैं। इसलिए भारत विभाजन के कारणों की पड़ताल करते समय अंबेडकर की, उनकी राजनीति की पड़ताल भी जरूरी हो जाती है।
14 अप्रैल, 1891 को मंहू (अब डॉ ़ अंबेडकर नगर, मध्य प्रदेश) में ब्रिटिश सेना के अफसर रामजी मालोजी सकपाल के घर 14वीं संतान पैदा हुई जिसका नाम रखा गया भीमराव सकपाल। सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल मूल रूप से मराठी थे और रत्नागीरि जिले के शहर अबांडवे से ताल्लुक रखते थे। वे महार जाति से थे जिसकी गिनती हिंदू वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण में होती है। हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था की क्रूरता को बचपन में ही भोगने को अभिशप्त भीमराव ने अपनी पुस्तक ‘No Peon, No Water’ में इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि कैसे स्कूल में उन्हें एवं अन्य शूद्र जाति के बच्चों को अलग बैठाया जाता था और यदि इन बच्चों को पानी पीने की जरूरत महसूस हो तो वे पानी के बर्तन से खुद पानी निकाल नहीं सकते थे बल्कि उच्च जाति से ताल्लुक रखने वाला चपरासी दूर से ही उनके हाथों में पानी गिराता जिसे पीकर वे अपनी प्यास बुझाते थे। यदि किसी दिन चपरासी स्कूल नहीं आता तो उन्हें प्यासा ही रहना पड़ता था। 1894 में फौज से सेवानिवृत्त होने के बाद रामजी मंहू से सतारा आ गए। यहां उन्होंने भीमराव का दाखिला कराते समय सकपाल के स्थान पर उनका उपनाम अबंडावेकर लिखवा दिया। अबंडावेकर से उनका तात्पर्य मूल गांव अबांडवे से था। भीमराव के ब्राह्मण शिक्षक कृष्णजी केशव अंबेडकर ने इसे बदल अंबेडकर कर दिया। इस तरह भीमराव सकलानी का नाम भीमराव अंबेडकर हो गया। 1897 में उनका परिवार बॉम्बे (अब मुंबई) चला आया जहां भीमराव ख्याति प्राप्त एलफिंस्टन हाई स्कूल में दाखिला पाने वाले पहले शूद्र छात्र बने। 1913 में बाइस बरस के अंबेडकर को बड़ोदा रियासत द्वारा मिली छात्रवृत्ति के चलते उच्च शिक्षा कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क में करने का अवसर मिल गया। 1915 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में मास्टर्स की डिग्री और 1916 में इतिहास में एम ़ए ़ की दूसरी डिग्री ले अंबेडकर लंदन चले आए, जहां उन्होंने प्रतिष्ठित लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में दाखिला ले लिया। साथ ही उन्होंने अपनी वकालत की पढ़ाई भी लंदन में शुरू कर दी। इन दोनों ही विषयों में अपनी शिक्षा पूरी कर अंबेडकर 1917 स्वदेश वापस लौट आए। उन्होंने 1918 में मुंबई के एक महाविद्यालय में बतौर प्रोफेसर नौकरी शुरू करी। इस दौरान वे राजनीतिक, विशेषकर दलित समाज पर होते आ रहे शोषण के खिलाफ सक्रिय हो चले थे। भारत सरकार अधिनियम, 1919 को तैयार करने वाली ‘साउथबोरोह समिति’ (South borough Committe) के समक्ष अंबेडकर ने दलित वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन मंडल तय किए जाने की पुरजोर वकालत की थी। उन्होंने इस वर्ग के सही प्रतिनिधित्व का मुद्दा इस समिति के समक्ष उठाते हुए प्रांतीय एवं केंद्रीय सभा के लिए इस वर्ग हेतु सीटों के आरक्षण पर जोर दिया था। हालांकि उनका अनुरोध तब स्वीकारा नहीं गया लेकिन इससे अंबेडकर की पहचान शोषित वर्ग के प्रतिनिधि बतौर स्थापित हो गई। 1920 में उन्होंने मुंबई से एक साप्ताहिक पत्रिका ‘मूकनायक’ की शुरुआत की। इस पत्रिका का उद्देश्य शूद्रों एवं अन्य दबाई गई पिछड़ी जातियों को स्वर देना था। आगे चलकर भीमराव ने अपना ध्यान और समय बॉम्बे हाईकोर्ट में बतौर वकील और दलित वर्ग की चेतना के संवाहक बनने में लगा दिया। इस दौरान उन्होंने बॉम्बे (अब मुंबई) में दलितों के लिए एक संस्था ‘बहिष्कृत हितकारणी सभा’ का गठन किया। साथ ही दो अन्य पत्रिकाओं ‘बहिष्कृत भारत’ और ‘इक्वेलिटी जनता’ (Equality Janta) की शुरुआत भी करी। 1925 में उन्हें बॉम्बे प्रेसिडेंसी द्वारा साइमन कमिशन के साथ काम करने, उसे सहयोग देने के लिए बनाई गई कमेटी का सदस्य नियुक्ति किया गया। अंबेडकर कांग्रेस और उसकी नीतियों से सख्त परहेज करते थे। उनकी दृष्टि में कांग्रेस स्वर्ण कहलाई जाने वाली उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व करती थी। बचपन में भारतीय वर्ण व्यवस्था की कुरीतियां का दंश झेल चुके अंबेडकर शायद इसी कारण चलते साइमन कमीशन के देश व्यापी बहिष्कार का हिस्सा नहीं बने। जहां पूरी तरह यूरोपीय सदस्यों वाले कमीशन का बहिष्कार सभी मुख्य राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत के साथ किया। देश भर में ‘साइमन कमीशन गो बैक’ के नारे लगे, जगह-जगह इस आयोग के खिलाफ प्रदर्शन हुए। कराची में इसी प्रकार के एक प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय ब्रिटिश पुलिस के हाथों गंभीर रूप से चोटिल हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। जहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस से इतर विचारधारा रखने वाले उग्र वामपंथी संगठन ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी’ के भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चन्द्रशेखर आजाद ने दलगतों हितों और वैचारिक मतभेदों से ऊपर उठकर लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला ब्रिटिश पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स की हत्या करके लिया, वहीं भीमराव अंबेडकर ने इस आयोग का विरोध न करना उचित समझा। वे बकायदा इस आयोग की कार्यवाही का हिस्सा बने जिसमें उन्होंने शूद्रों (दलितों) के लिए प्रांतीय एवं केंद्रीय सभा में सीटें आरक्षित किए जाने की पुरजोर वकालत की। साइमन कमीशन के सामने पेश हुए अंबेडकर ने सवाल-जवाब की प्रक्रिया के दौरान एक महत्वपूर्ण बात कह डाली। कमीशन ने 23 अक्टूबर, 1928 के दिन अंबेडकर से लगभग 295 प्रश्न पूछे, अंबेडकर ने शोषित समाज के लिए पृथक निर्वाचक मंडल बनाए जाने पर जोर देते हुए कमीशन के समक्ष जबरदस्त जिरह की। एक सवाल के जवाब में उन्होंने शोषित समाज को गैर हिंदू तक कह डाला। उन्होंने कहा ‘ The first thing I would like to submit is that we claim that we must be treated as distinct minority, seperate from Hindu Community. Our minority character has been hitherto concealed by our inclusion in the Hindu Community, but as a matter of fact there is no link between the depressed Classes and the Hindu Community. The first point, therefore, I would stress before the conference is that we must be regarded as a distint and independent minority'(पहली बात जो मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि हमें एक अलग अल्पसंख्यक समाज का दर्जा दिया जाए जो हिंदुओं से पृथक हो। हमारे अल्पसंख्यक चरित्र को हिंदू कह छिपाया जाता रहा है। सच यह है कि शोषित समाज और हिंदू समाज के मध्य कोई रिश्ता नहीं है। इसलिए मेरी पहली मांग यही है कि हमें एक स्वतंत्र अल्पसंख्यक का दर्जा मिले)।
कमीशन ने जब यह पूछा कि क्या वे कहना चाह रहे हैं कि हिंदू होने के बावजूद शोषित समाज को अल्पसंख्यक और गैर हिंदू का दर्जा मिलना चाहिए तो अंबेडकर का उत्तर था ‘हां’। कमीशन ने गांधी की तरह इशारा करते हुए जब अंबेडकर से कहा कि कुछ बेहद सम्मानित हिंदू नेता शोषित समाज के उत्थान की बात करते रहते हैं तो अंबेडकर ने उत्तर दिया ‘हां सार्वजनिक मंचों से ऐसी बाते कही जाती है।’
स्पष्ट है कि महात्मा गांधी द्वारा ‘अस्पृश्यता को अभिशाप’ कहे जाने और शोषितों-दलितों के उत्थान के लिए उनके द्वारा सामाजिक आंदोलन किए जाने को अंबेडकर संदेह की नजरों से देखते थे। बहुत संभव है कि अपने बचपन की कटु स्मृतियों ने अंबेडकर को स्वर्ण जातियों के प्रति गहरे विद्वेष के भाव से भर दिया हो जिस कारण गांधी के प्रयासों को वे हिकारत भरी नजरों से देखते थे। 1927 में इसी भावना से ओत-प्रोत अंबेडकर ने हिंदुओं के धर्मग्रंथ ‘मनुस्मृति’ का बहिष्कार किए जाने की बात कही थी और 25 दिसंबर, 1927 को उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ मनाया था।
16 अगस्त, 1932 को जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रामसे मैकडोनाल्ड ने ‘कम्यूनल अवार्ड’ घोषित करते हुए शोषित समाज के लिए पृथक निर्वाचन मंडल बनाए जाने की घोषणा की तो महात्मा गांधी ने इसका कड़ा विरोध करते हुए इसे हिंदू समाज को बांटने की बदनियत करार दिया था। गांधी आशंकित थे कि अपनी ‘फूट डालो शासन करो’ नीति का इस्तेमाल कर ब्रिटिश हुकूमत आजादी के आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास कर रही है। यही कारण था कि दांडी यात्रा के बाद गिरफ्तार गांधी ने इस ‘कम्यूनल अवार्ड’ के विरोध में यरवादा जेल, पुणे में आमरण अनशन शुरू कर दिया। 25 सितंबर, 1932 के दिन कई दौर की बातचीत बात गांधी और अंबेडकर के मध्य एक समझौता हुआ जिसे ‘पूना पैक्ट’ कह पुकारा जाता है। शोषित वर्ग के प्रतिनिधि बतौर डॉ अंबेडकर ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए तो अन्य हिंदुओं की तरफ से कांग्रेस नेता मदन मोहन मालवीय ने इस पर मोहर लगाई। इस समझौते में शोषित वर्ग को हिंदू समाज का ही हिस्सा मानते हुए उनके लिए प्रांतीय एवं केंद्रीय सभा में सीटें आरक्षित की गई लेकिन निर्वाचक मंडल को एक ही रखा गया। गांधी की आमजन में लोकप्रियता और स्वीकार्यता चलते भले ही अंबेडकर को उनके समक्ष झुकना पड़ा लेकिन गांधी के प्रति उनकी आक्रमकता लगातार बनी रही।