आम चुनाव का मौसम है इसलिए माहौल पूरे देश में सियासती होना स्वभाविक है। देश के आला वजीर और उनका पूरा परिवार भगवान श्री राम के नाम का जाप करता आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रहा है कि जैसा उनके परिवार के मुखिया ने कहा है, इस बार के नतीजे वैसे ही आने वाले हैं यानी भाजपा गठबंधन 400 से अधिक सीटे जीतने जा रहा है। दूसरी तरफ हताश-निराश इंडिया गठबंधन है जिसके पास स्पष्ट नेतृत्व का अभाव, संसाधनों की कमी और गठबंधन में शामिल दलों के मध्य तालमेल का भारी संकट है। निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भाजपा का पलड़ा हर दृष्टि से भारी है और यदि यही हालात बने रहे तो नरेंद्र मोदी पहले ऐसे गैर कांग्रेसी नेता बनने का रिकॉर्ड बना लेंगे जो लगातार तीन चुनाव जीता और प्रधानमंत्री बना। अभी तक जवाहरलाल नेहरू के नाम यह रिकॉर्ड दर्ज है। बहरहाल भाजपा के लिए ‘ऑल इज वेल’ का माहौल है। इस सुहावने और गुलाबी माहौल में रंग में भंग लेकिन समय-समय पर उन समाचारों चलते पैदा हो जाता है जो रामराज्य की संकल्पना को मूर्त रूप देने के दावों को आयना दिखाने और ‘सबका साथ-सबका विकास’ सरीखे नारों को चुनौती देने का प्रयास करते हैं। गत् पखवाड़े ऐसे दो समाचारों ने निश्चित ही आसन्न लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस चुके भाजपा और संघ परिवार को विचलित किया होगा। पहला समाचार संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टुर्क का भारत के संदर्भ में वह बयान है जिसने समावेशी विकास के दावों पर प्रश्नचिन्ह् लगाते हुए भारत में मानवाधिकार हनन् से लेकर धर्म आधारित भेदभाव के बढ़ने पर चिंता जताई है। टुर्क ने गत् सप्ताह जिनेवा में आयोजित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् की बैठक में रूस, ईरान, घाना, पाकिस्तान और भारत समेत कई देशों में इस वर्ष हो चुके अथवा होने जा रहे चुनावों पर टिप्पणी करते हुए नागरिकों को अधिक अधिकार दिए जाने की वकालत की। अपने वक्तव्य में भारत की बाबत उनकी टिप्पणी हालांकि संतुलित थी लेकिन इस संतुलित टिप्पणी ने भारत को नाराज कर दिया है। टुर्क ने कहा कि ‘‘96 करोड़ मतदाताओं के साथ भारत का आगामी चुनाव अनोखा है। मैं इस देश की धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक परंपराओं और विविधाता की सराहना करता हूं लेकिन हमारी कुछ चिंताएं भी हैं’’। संयुक्त राष्ट्र मानवाट्टिकार प्रमुख ने इन चिंताओं में पत्रकारों, सरकार के आलोचकों, अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के खिलाफ बढ़ते भेदभाव और हिंसा के साथ-साथ मानवाधिकार हनन् और नागरिकों के अधिकारों पर कटौती को शामिल कर भारत सरकार की नाराजगी मोल ली। कटे पर नमक लगाते हुए उन्होंने भारतीय उच्चतम् न्यायालय द्वारा इंलेक्ट्रोल बॉन्ड की बाबत दिए फैसले को सराह भी दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक उच्च पदस्थ व्यक्ति के यह विचार ‘हर-हर मोदी-घर-घर मोदी’ के चरम दौर में उस पहलू को अंतरराष्ट्रीय पटल में सामने लाते हैं जिनकी बाबत देश भीतर भी बहुत कुछ कहने का प्रयास बीते दस वर्षों से किया जा रहा है। यह दीगर बात है कि प्रतिरोध की इन आवाजों को सुनने और समझने वालों की संख्या लगातार घटी है और प्रधानमंत्री मोदी के चाहने वालों की संख्या उन पर और उनकी गारंटियों पर यकीन करने वालों की तादात् लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि भाजपा के लिए ‘ऑल इज वेल’ का माहौल वाकई है, वाकई प्रतिरोध की आवाजें कमतर और कमजोर होती जा रही हैं और वाकई मोदी की गारंटी पर अधिकांश भारतीय पूरी तरह भरोसा रखते हैं तो फिर क्योंकर भारत सरकार अथवा प्रधानमंत्री की हल्की सी आलोचना से भाजपा और संघ परिवार विचलित हो उठता है और क्योंकर एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी अपने सार्वजनिक भाषणों में विपक्षी दलों के प्रति अतिशय कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें वंशवादी और महाभ्रष्ट कहते नहीं थकते हैं तो दूसरी तरफ ऐसे दलों के दागी नेताओं को ‘अपने परिवार’ का हिस्सा बनाने में जरा भी संकोच नहीं बरतते? संघ परिवार और भाजपा संभवतः अपनी और अपने नेता की आलोचना से इसलिए विचिलत हो उठती है क्योंकि उसे इस सच्चाई का पता है कि तमाम प्रचार और मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद 2014 के आम चुनाव में उसे मात्र 31 प्रतिशत मतदाताओं ने अपना मत दिया था जो 2019 में बढ़कर करीब 38 प्रतिशत तक अवश्य पहुंचा लेकिन 62 प्रतिशत भारत अभी भी उसे अपना वोट देने से हिचक रहा है। स्मरण रहे गत् लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन 45 प्रतिशत वोट हासिल कर पाया था जिसका सीधा अर्थ है कि 55 प्रतिशत ने भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को नकार दिया था। भाजपा की चिंता का कारण यही 55 प्रतिशत वोट बैंक है। यदि विपक्ष एकजुट हो जाता है तो यह वोट बैंक एकमुश्त इस गठबंधन के खाते में जा सकता है। प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं और विपक्षी दल हताश-निराशा के दलदल में गले तक धंस चुके हैं। इसके बावजूद भाजपा का विपक्षी दलों के दागी नेताओं को अपने परिवार में शामिल करना, ऐन-केन-प्रकारेण राज्यसभा चुनावों में क्रास वोटिंग कराना, स्पष्ट जनादेश से सत्ता में आई विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने के प्रयास करना आदि यही संकेत देता है कि आत्मविश्वास से लबरेज संघ परिवार 55 प्रतिशत उस भारत से भयभीत है जो भले ही कांग्रेस को नकार चुका हो, अभी तक भाजपा को भी स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। यह भारत निश्चित ही वर्तमान सरकार की नीतियों से सहमत नहीं है। संभवत यही कारण है कि यूट्यूबर ध्रुव राठी के एक वीडियो ‘क्या भारत तानाशाही में बदलता जा रहा है?’ को एक सप्ताह के भीतर ही पौने दो करोड़ के करीब भारतीयों ने देख डाला। राठी के इस वीडियो में कोई नई बात या कोई सनसनीखेज खुलासा नहीं है। राठी ने सीधे-सपाट लहजे में उन्हीं बातों को दोहराया है जिन्हें बीते एक दशक के दौरान विपक्षी दलों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग द्वारा लगातार कहा जा रहा है। राठी अपने इस वीडियो में इलेक्ट्रोलर बॉन्ड, चंडीगढ़ मेयर चुनाव में हुई धांधली, केंद्रीय जांच एजेंसियों के कथित दुरुपयोग, मीडिया पर कथित अघोषित प्रतिबंधों आदि का जिक्र कर रहे हैं। उन्होंने इस पूरे वीडियो में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ किसी भी प्रकार की जुमलेबाजी से परहेज किया है और बेहद सरल तरीके से अपनी बात कही है। यही कारण है कि आम जनता राठी के कहे से खुद को जोड़ पा रही है। ऐसा तब जबकि चौबीसों घंटे प्रधानमंत्री की छवि को बनाने, उसे अधिक प्रभावशाली बनाने का काम भाजपा की छवि निर्माता टीम लगातार करती रहती है।
संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार प्रमुख वोल्कर टुर्क का कथन भले ही भारत सरकार सिरे से नकार रही हो, इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि टुर्क का बयान और ध्रुव राठी के वीडियो की सफलता से मोदी परिवार चिंतित है। उसकी यह चिंता इसलिए भी गहराने लगी है कि पहले जो बातें अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं कह रही थी उन्हें नकारा अथवा उनको नजरअंदाज किया जा सकता था क्योंकि इन अंतरराष्ट्रीय संगठनों के कहे तक भारतीय वोटर की पहुंच नहीं थी। इसलिए ‘फ्रीडम हाउस’ संगठन का भारत को मुक्त लोकतंत्र की श्रेणी से कमतर कर ‘आंशिक रूप से मुक्त’ लोकतंत्र की श्रेणी में रखना अथवा ‘वी-डेम’ संगठन का भारत को चुनावी लोकतंत्र’ के दर्जे से खिसकाकर ‘चुनावी निरंकुशता’ वाले देश की श्रेणी में रखना, भाजपा को ज्यादा चिंतित नहीं करता था लेकिन आम चुनाव से ठीक पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से प्रतिकूल टिप्पणी और फिर एक आम भारतीय यूट्यूबर के वीडियो का वायरल हो जाना मोदी परिवार से लेकर संघ परिवार तक की चिंताओं में भारी इजाफा कर रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ‘उदित भारत’ की अवधारणा के साथ चुनाव लड़ी भाजपा के लिए 2004 के आम चुनाव नतीजे स्तब्धकारी रहे थे। अतीत का सबक संघ परिवार भूला नहीं है इसलिए वह सर्तक है और हर कीमत सत्ता में बने रहने का प्रयास कर रहा है। कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों के उन नेताओं तक को भाजपा नेतृत्व गले लगाने में जरा भी देर नहीं कर रहा जिन्हें स्वयं प्रट्टानमंत्री मोदी महाभ्रष्ट कह चुके हैं अथवा जिन पर केंद्रीय जांच एजेंसियों का शिकंजा कसा हुआ है। 2004 के आम चुनाव ऐसे ही असलियत माहौल में हुआ था जैसे माहौल में 2024 का चुनाव होने जा रहे हैं। तब अटल जी के नेतृत्व में चौतरफा विकास का दावा पूरी दमदारी से पेश किया गया था और तब भी कांग्रेस अस्त-व्यस्त और नेतृत्वविहीन थी। 2024 में भी यही कहा-सुना और समझाया जा रहा है कि अब भारत विकास की गंगा में हर रोज डुबकी लगा रहा है और विश्वगुरु बनने की राह पकड़ चुका है। 2004 के नतीजे सभी जानते हैं, 2024 को लेकर 2004 वाली आशंका ही संघ परिवार की बेचैनी का असल कारण है। हालांकि यह भी सत्य है कि वर्तमान में चौतरफा प्रधानमंत्री के नाम का डंका बज रहा है और विपक्ष भाजपा की चुनावी तैयारियों के समक्ष पूरी तरह बौना नजर आ रहा है। ऐसे में किसी चमत्कारिक नतीजे के आने की संभावना कम ही है लेकिन भारत की जनता पूर्व में भी कई बार ऐसे जनादेश दे चुकी है जिनकी अपेक्षा और अनुमान लगा पाने में चुनावी विश्लेषक विफल रहे थे। भाजपा नेतृत्व जनमानस की इस प्रवृत्ति को भलीभांति समझता है। 2004 के आम चुनाव में भाजपा की विफलता का एक बड़ा कारण तत्कालीन नेतृत्व का अतिशय आत्मविश्वास था। वर्तमान भाजपा नेतृत्व उस गलती को दोहराना नहीं चाहता है। नतीजे चाहे जो भी हों संघ परिवार और मोदी परिवार हर प्रकार की सतर्कता इसी चलते बरत रहा है।