पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-127
इस रथयात्रा के साथ आडवाणी ने इतिहास को फिर से परिभाषित करने और उत्तर भारत के भीतरी इलाकों की लोककथाओं को दृढ़ता से हिंदुत्व के नजरिए से फिर से लिखने का मिशन शुरू किया था। उनके भाषणों का उद्देश्य बाबरी मस्जिद के प्रति हिंदुओं के बीच नफरत पैदा करना था, जो बाबर के ‘आक्रमण’ का प्रतीक था। वह व्यक्ति जो भारत का पहला मुगल सम्राट बना और हिंदू धरती पर उसकी ‘विदेशियों’ की सेना और बहुसंख्यक समुदाय को एक समूह में एकजुट करना था। जब मुसलमानों ने भारत पर ‘आक्रमण’ किया, तो ‘पीड़ितों’ को अपने ‘गौरव’ की हानि का दुख हुआ।
उन सटीक शब्दों और नारों को याद करना महत्वपूर्ण है, जिनका उपयोग आडवाणी ने इन भाषणों में किया था, खासकर वे जो उन्होंने 1991 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गढे़ थे।
यहां वे चार प्रमुख संदेश हैं-जिन्हें मैंने तब सुना, जब मैंने आडवाणी को बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियों में एकत्रित भीड़ को सम्बोधित करते हुए देखा।
संदेश-1: सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे (हम राम के नाम पर शपथ लेते हैं-हम मंदिर वहीं बनाएंगे)।
इस नारे को बोलने के बाद आडवाणी अपने दर्शकों को इसके बारे में समझाते थे। उन्होंने भीड़ से कहा, ‘मैंने अपने कुछ उत्साही समर्थकों को ‘एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो’ के नारे लगाते हुए सुना। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदू तोड़ने में विश्वास नहीं करते। वे एकजुट होने में विश्वास रखते हैं। इसलिए आपको ‘एक धक्का और दो’ नारे को ‘सौगंध राम की’ से बदल देना चाहिए।’
हालांकि आडवाणी का नारा कम आक्रामक लग रहा था, लेकिन इसका मतलब ‘एक धक्का’ जैसा ही था। मौजूदा ढांचे को तोड़े बिना बिल्कुल वहीं मंदिर कैसे बनाया जा सकता है?
‘एक धक्का’ का नारा उमा भारती द्वारा गढ़ा गया था- जो उस समय आडवाणी की सहयोगी थीं। जब उमा भारती ने आडवाणी की यात्राओं का अनुसरण किया तो उन्होंने खुशी से ‘एक धक्का और दो’ का नारा लगाया और उनके समर्थकों ने इसे कोरस में दोहराया।
संदेश-2: संरचना दशकों से जीर्ण-शीर्ण और परित्यक्त है। वहां वर्षों से कोई अजान नहीं दी गई है, यहां तक कि मुस्लिम धर्मग्रंथों में भी कहा गया है कि जिस इमारत में अजान नहीं दी जाती, उसे मस्जिद नहीं कहा जा सकता। ऐसी तकनीक है, जिसका उपयोग उस संरचना को सरयू नदी से परे स्थानांतरित करने के लिए किया जा सकता है। मुसलमानों को संरचना पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए और हमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम से जुडे़ स्थान और हिंदुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक से संरचना को स्थानांतरित करने देना चाहिए।
16वीं सदी के ऐतिहासिक स्मारक के वर्णन में आडवाणी ने हमेशा ‘मस्जिद’ या ‘मस्जिद’ का इस्तेमाल करने से परहेज किया और ‘कारसेवक’ कहे जाने वाले भाजपा-आरएसएस-वीएचपी चरमपंथियों द्वारा इसे गिराए जाने से बहुत पहले ही इसके अस्तित्व को खारिज कर दिया था।
संदेश-3: उन्होंने ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को सभी गैर-भाजपा दलों और आरएसएस के सिद्धांतों और दर्शन का विरोध करने वाले सभी नेताओं के लिए आकर्षक वाक्यांश के रूप में पेश किया। (‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ अब ‘मूर्खतापूर्ण’ में बदल गया है, जिसे आरएसएस-भाजपा समर्थक भारत के संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का पालन करने वालों के खिलाफ बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने ‘मुसलमानों का तुष्टीकरण’ वाक्यांश का भी यथासम्भव बार प्रयोग किया। इस तरह उन्होंने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को अमान्य कर दिया और यह संदेश घर-घर पहुंचा दिया कि ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ दल और नेता आजादी के बाद से ही ‘मुसलमानों को खुश करने’ में लगे हुए थे, जिससे ‘प्राकृतिक अधिकार’ रखने वाले हिंदुओं के ‘गौरव’ को ठेस पहुंच रही थी। हालांकि उनके शब्द विनम्र थे, लेकिन आडवाणी का उद्देश्य भारतीय संवैधानिक लोकाचार की नींव को हिलाना था।
संदेश-4: अपने सभी भाषणों में आडवाणी ने रामायण के दो पात्रों का जिक्र कियाः वानर योद्धा नल और नील, जिन्होंने राम की सेना को राक्षस राजा रावण के राज्य लंका पर हमला करने में सक्षम बनाने के लिए समुद्र पर एक पुल बनाया, जिसने सीता का अपहरण कर लिया था।
उन्होंने अपने दर्शकों को विशेष रूप से बताया कि नल और नील ने ईंटों पर ‘राम’ शब्द अंकित किया था, जो बाद में समुद्र की सतह पर तैरने लगा और पुल की नींव बन गई। यह उस पौराणिक शक्ति पर जोर देने के लिए था, जो राम के नाम में निहित होती है, जब किसी को एक चुनौतीपूर्ण कार्य पूरा करना होता है। नल-नील की कहानी के अंत में उनके समर्थकों ने हमेशा समवेत स्वर में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाया।
बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने सितम्बर, 1990 में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया, जिससे कुछ समय के लिए रैलियां रूक गईं, लेकिन 1991 के चुनाव से ठीक पहले आडवाणी ने अपनी पार्टी के प्रचार की आड़ में बिहार और उत्तर प्रदेश में अपनी यात्राएं जारी रखीं।
छद्मवेश के बावजूद उन्होंने वोट नहीं मांगा और मतदाताओं से अपनी पार्टी के लिए वोट करने की अपील नहीं की। उन्होंने सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण पर ही फोकस किया।
पूरी यात्रा के दौरान आडवाणी पत्रकारों के लिए मिलनसार और सुलभ थे। जब मैंने उनसे सहरसा के एक गेस्ट हाउस में साक्षात्कार के लिए कहा, तो भाजपा कार्यकर्ताओं ने तुरंत इसकी व्यवस्था कर दी। पहली बात जो उन्होंने मुझसे पूछी, वह थी, ‘‘आप कहां रह रहे हैं? क्या तुम्हें रहने-खाने की कोई समस्या है?’’
वह इतना स्नेहपूर्ण और विनम्र था कि मुझे लगा कि मैं महत्वपूर्ण हूं। जब मैंने साक्षात्कार समाप्त कर लिया तो वे मुझे दरवाजे तक छोड़ने आए।
‘‘चुनाव आते-जाते रहेंगे, लेकिन हमें भगवान राम की जन्मभूमि को बचाने और भारत के प्राचीन गौरव को पुनर्जीवित करने के लिए काम करना चाहिए। हमारी भूमि देवताओं और महान संतों की भूमि है, जिसके बारे में आप जैसे युवा पत्रकार को सचेत रहना चाहिए,’’ उन्होंने मुझे विदा करते हुए कहा।
आडवाणी की रथयात्रा ने हिंदू राष्ट्रवाद को उभारने और उसके हिंसक होने की राह प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश के कई हिस्सों में इस रथयात्रा के चलते कौमी दंगे भड़कने लगे थे। वी.पी. सिंह ने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व से इस यात्रा को रोके जाने का कई बार आग्रह किया, लेकिन यात्रा को मिल रहे जनसमर्थन के चलते भाजपा को आगे की राजनीति का मार्ग स्पष्ट नजर आने लगा था, जिस कारण उसने ऐसा करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। संघ, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद् के नेतृत्व के साथ विफल वार्ताओं बाद वी.पी. सिंह ने संघ के प्रचारक एस. गुरुमूर्ति के जरिए इस समस्या को तलाशने का प्रयास किया। गुरुमूर्ति वी.पी. सिंह के खासे करीबी थे। रिलायंस औद्योगिक समूह के खिलाफ राजीव सरकार में बतौर वित्तमंत्री रहते वी.पी. सिंह ने गुरुमूर्ति और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ समाचार-पत्र के साथ मिलकर काम किया था। अब रथयात्रा से उत्पन्न संकट के समय उन्होंने एक बार फिर से गुरुमूर्ति की मदद ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने गुरुमूर्ति के जरिए प्रधानमंत्री को तीन सूत्रीय समाधान सुझाया, जिसके अनुसार विवादित स्थल और उसके आस-पास की जमीन का सरकार द्वारा अधिग्रहण किया जाना, विवादित ढांचे (मस्जिद) को छोड़कर सारी अधिग्रहित जमीन को राम मंदिर निर्माण के लिए विश्व हिंदू परिषद् के हवाले करना और विवादित ढांचे का निर्माण मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया था या नहीं, इसका निर्णय उच्चतम न्यायालय के जरिए कराया जाना था। अपनी सरकार को हर कीमत पर बचाने के लिए व्याकुल वी.पी. सिंह ने संघ के इस प्रस्ताव को स्वीकारते हुए विवादित स्थल और उसके आस-पास 70 एकड़ जमीन का केंद्र सरकार द्वारा अधिग्रहण किए जाने सम्बंधी अध्यादेश 19 अक्टूबर, 1990 को जारी कर दिया।
इस निर्णय का भारी विरोध मुस्लिम संगठनों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा किए जाने से वी.पी. सिंह एक बार फिर बैकफुट पर आ गए। मुलायम सिंह यादव का ‘एम-वाई’ (मुसलमान-यादव) समीकरण इस निर्णय से सीधे प्रभावित होता था, जिसके चलते उन्होंने इसे विश्व हिेदू परिषद् के साथ सौदेबाजी करार देते हुए घोषणा कर दी कि वे केेद्र सरकार को इस विवादित परिसर का अधिग्रहण नहीं करने देंगे। वी.पी. सिंह किस कदर लाचार और कमजोर प्रधानमंत्री थे, इसे इस अध्यादेश को मात्र दो दिनों के बाद उनके द्वारा वापस लिए जाने से समझा जा सकता है- ‘21 अक्टूबर, 1990 की सुबह विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने मंत्रिमंडल की दोबारा बैठक बुलाकर इस अध्यादेश को वापस लिए जाने का निर्णय ले लिया था। मुझे लगा, ऐसे अध्यादेश का क्या फायदा जिससे न तो हिंदू और और न ही मुसलमान खुश होंगे और दोनों ही पक्षों का इस अध्यादेश पर विश्वास न हो।’
सुलह वार्ता विफल होने के बाद केंद्र सरकार के समक्ष विश्व हिंदू परिषद् द्वारा 30 अक्टूबर, 1990 को प्रस्तावित राम मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम और लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को उत्तर प्रदेश में प्रवेश करने से बलपूर्वक रोकने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पहले से ही घोषणा कर चुके थे कि वे उत्तर प्रदेश में आडवाणी की रथयात्रा का संचालन किसी भी कीमत पर होने नहीं देंगे। मुलायम सिंह रथयात्रा को रोकने और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए लालायित थे, क्योंकि ऐसा कर उनका ‘एम-वाई’ वोट बैंक मजबूत होता था, लेकिन वी.पी. सिंह किसी भी सूरत में मुलायम सिंह यादव को अल्पसंख्यकों और ओबीसी का नायक बनते नहीं देख सकते थे। दोनों के मध्य हमेशा से ही छत्तीस का आंकड़ा रहता आया था। मुलायम के कद को बढ़ने से रोकने की नीयत से वी.पी. सिंह ने बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को निर्देश दे दिए कि रथयात्रा के बिहार में प्रवेश करते ही लालकृष्ण आडवाणी को हिरासत में ले लिया जाए- ‘भाजपा उस दौरान विश्वनाथ सरकार को बाहरी समर्थन देने वाले दलों में शामिल थी, लेकिन आडवाणी की रथयात्रा ने स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि अब भाजपा ने अपनी पृथक राह पकड़ ली है। यह रथयात्रा धार्मिक वैमनस्यता के सहारे राजनीतिक लाभ लेने का एक दुस्साहस भरा प्रयास था, जो वी.पी. सिंह सरकार की ‘धर्मनिरपेक्षता’ को सीधे चुनौती देने लगी थी। आडवाणी का रथ धार्मिक उन्माद और कौमी वैमनस्यता के बादलों पर सवार हो रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे को सुलगाकर हिंदू और मुसलमान के मध्य नई विभाजन-रेखा खींचने में जुट गया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार किंर्तव्यविमूढ़ हो इस रथयात्रा को देशभर से गुजरता देख रही थी, क्योंकि उसका अस्तित्व भाजपा के समर्थन पर निर्भर था, लेकिन जैसे ही रथ ने बिहार में प्रवेश किया, केंद्र सरकार के हाथ-पांव फूलने लगे। आडवाणी अयोध्या के नजदीक पहुंचने लगे थे। उत्तर प्रदेश में माहौल पहले से ही तनावपूर्ण था और उनका उत्तर प्रदेश में प्रवेश आग को तेज भड़का सकता था। उन्हें रोका जाना जरूरी था, लेकिन कहां? और कैसे? बिहार तक रथयात्रा को पहुंचने देने के बाद तार्किक तो यही होता कि रथ को उत्तर प्रदेश में प्रवेश के समय रोका जाता, लेकिन प्रधानमंत्री इसके लिए तैयार नहीं थे। उत्तर प्रदेश उनकी राजनीतिक कर्मभूमि भी था। वे नहीं चाहते थे कि प्रवेश के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को यह मौका उपलब्ध कराकर मुसलमानों की नजरों में उन्हें नायक बनने दिया जाए और मुलायम धर्मनिरपेक्षता के ‘राजा’ बनकर उभरे। वी.पी. ने लालू यादव को आडवाणी की रथयात्रा की लगाम खींचने को कहा, जिसे लालू ने बहुत खुशी के साथ स्वीकार कर लिया …लालू यादव हर कीमत पर आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए लालायित थे। उन्होंने कहना शुरू कर दिया था कि- ‘अगर किसी ने इस देश में हिम्मत की है इस तोड़-फोड. वाले रथ को रोकने के लिए तो वह है लालू यादव। लालू यादव जान पर खेल जाएगा, लेकिन फिर से इस देश का बंटवारा हिंदू-मुसलमान में होने नहीं देगा।’