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Editorial

इतिहास बदलने की बेफिजूल कवायद

यह स्थापित सत्य है कि अतीत को बदला नहीं जा सकता है, छिपाने और भुलाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। इतिहास हमें अतीत में हुई घटनाओं के जरिए वर्तमान को समझने और उन गलतियों से सबक लेने, उन्हें दोहराने की गलती न करने का माध्यम मात्र है। यह भी लेकिन सत्य है कि इतिहासकार अतीत के तथ्यों संग छेड़छाड़ करते हैं, अपनी विचारधारा विशेष के चश्मे से उसका मूल्यांकन करते हैं जिसके चलते वे पूर्वाग्रहों से भरा ऐसा विश्लेषण कर देते हैं जिसके आलोक में असत्य को ‘सत्य’ और सत्य को ‘असत्य’ साबित कर दिया जाता है। इतिहास की प्रस्तुति को लेकर मुख्य रूप से दो मत हैं। इन मतों की बाबत हितेंद्र पटेल अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ में लिखते हैं कि- ‘एक मत जो उन्नीसवीं शताब्दी में राइके (Ranke) और अन्य विद्वानों के बीच मान्य हुआ उसमें अतीत के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण पर बल था जिसके लिए इतिहासकार के लिए अतीत के तथ्यों को प्रस्तुत करना जरूरी समझा गया। अतीत की कहानी कहने वाले ये इतिहासकार तथ्यों को महत्व देते थे, अपने विचारों को इतिहास में न्यूनतम स्थान दे, तथ्यों को बोलने देने पर जोर देते थे। दूसरी तरफ विलहम डिस्थे, कालिंगवुड और ई.एच. कार जैसे इतिहासकार-दार्शनिक मानते हैं कि इतिहास सापेक्ष होता है और इतिहासकार ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर वर्तमान में अपने इतिहास के समय को पहले अपने मस्तिष्क में फिर से प्रस्तुत करता है और फिर उसको इतिहास के रूप में सामने रखता है।’
उपरोक्त दोनों ही मतों में एक बात पर सहमति है कि इतिहास ‘तथ्यों’ पर आधारित होना चाहिए। इतिहासकार तथ्यों के आलोक में ही अपनी समझ, अपनी विचारधारा के अनुसार इतिहास का विश्लेषण कर सकता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का सबसे अधिक प्रभाव स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रहा है। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि आजादी की लड़ाई से आम जनता को सीधे जोड़ने वाले गांधी ही थे। तीन बड़े राष्ट्रीय जनआंदोलन अंग्रेज सत्ता के खिलाफ गांधी ने ही शुरू किए – असहयोग आंदोलन (1920-22), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942)। इन आंदोलनों की बदौलत ही देश में राष्ट्रीय एकता की चेतना का उभार हुआ था और सैकड़ों राजे-रजवाड़ों में बंटे भू-भाग ने एक राष्ट्र के रूप में स्वयं को पहचाना था। गांधी ने इतनी बड़ी क्रांति का सूत्रपात अहिंसा के सिद्धांत सहारे किया। उनके विचारों में शत्रु (अंग्रेजों) के प्रति घृणा नहीं थी, अपने अधिकारों के प्रति सत्य निष्ठा का भाव था। दूसरी तरफ गांधी के प्रति घोर घृणा का भाव रखने वाले भी थे जिनका आजादी की लड़ाई में कोई योगदान देखने को नहीं मिलता है। महात्मा के सीने में तीन गोली दाग उनके प्राण लेने वाले नाथूराम गोडसे ऐसों में ही शामिल था। यह ऐतिहासिक तथ्य है, इसे बदला नहीं जा सकता। ऐसे में प्रश्न उठता है कि इस तथ्य संग छेड़छाड़ वर्तमान में क्यों की जा रही है और इससे हासिल क्या होने वाला है?
अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित एक समाचार पढ़ यह प्रश्न मेरे दिमाग में कौंधा, इसलिए इतिहास की प्रस्तुति को लेकर प्रचलित दो मतों का जिक्र करना मुझे जरूरी लगा ताकि इन मतों के दृष्टिगत इतिहास संग जिस छेड़छाड़ की बात इन दिनों सामने आ रही है, उस पर कुछ सार्थक बात की जा सके। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर का शीर्षक है-‘Among key deletions on Gandhi’s assasination in NCERT class 12 texts are these lines : Gandhi’s pursuit of Hindu-Muslim unity provoked Hindu extremists… RSS was banned for some time’ (The Indian Express, April 5, 2023)। इस समाचार में विस्तार से बताया गया है कि एनसीईआरटी की किताबों को संशोधित करते हुए कई ऐतिहासिक तथ्यों को हटा दिया गया है। समाचार के अनुसार गत वर्ष एनसीईआरटी (#NCERT) ने कोविड महामारी के बाद पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के लिए पाठ्य पुस्तकों को संशोधित कर उन्हें अधिक युक्ति संगत बनाया है। गत वर्ष ये ‘युक्ति संगत पुस्तकें’ समयाभाव चलते प्रकाशित नहीं हो पाई थीं। अब नए शिक्षण सत्र में सभी विषयों की पुस्तकें उपलब्ध करा दी गई हैं। ‘एक्सप्रेस’ ने 12वीं कक्षा के लिए राजनीति शास्त्र की किताब का हवाला देते हुए कुछ ऐसे तथ्य सामने रखे हैं जो स्पष्ट तौर पर पाठ्यक्रम को ‘युक्ति संगत’ बनाने के बजाय ऐतिहासिक तथ्यों संग खिलवाड़ का प्रयास प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी की बाबत समाजशास्त्र की पुस्तक में से ऐसी बातें हटा दी गई हैं जिनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बाबत नकारात्मक बातें कही गई हैं। 12वीं की पुस्तक ‘Politics in India Since Independence’ में बीते पंद्रह सालों से यह पढ़ाया जा रहा था कि ‘गांधी की मृत्यु का देश की साम्प्रदायिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ा . . .भारत सरकार ने साम्प्रदायिक घृणा फैलाने वाले कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया। इनमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी शामिल था।’ यह भी नई पुस्तक से हटा दिया गया है कि ‘गांधी को वे लोग खास नापसंद करते थे जो भारत को हिंदू राष्ट्र देखना चाहते थे, वैसे ही जैसे पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र बना था।’ महात्मा गांधी के हत्यारे की बाबत एनसीईआरटी की इतिहास की पुस्तक में लिखा था कि ‘गोडसे पुणे का रहने वाला एक ब्राह्मण और एक अतिवादी हिंदू समाचार पत्र का संपादक था जो गांधी को मुसलमान तुष्टीकरण का दोषी मानता था।’ इस अंश को भी अब हटा दिया गया है। इसी प्रकार 11वीं की पुस्तकों में संशोधन करते हुए 2002 में हुए गुजरात दंगों का संदर्भ भी हटा दिया गया है।
प्रश्न उठता है कि पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के नाम पर ऐतिहासिक तथ्यों को छुपाया जाना कितना तर्कसंगत है? और ऐसा करने से क्या इतिहास को बदला जा सकता है? यहां यह समझा जाना जरूरी है कि ऐसा प्रयास केवल वर्तमान में नहीं हो रहा है। आजादी उपरांत जब चौतरफा कांग्रेस की सत्ता थी इतिहासकारों ने कांग्रेस विरोधी विचारों को अपने लेखन में स्थान देने से जमकर परहेज किया। महात्मा गांधी के बाद नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कह पुकारे जाने वाले इतिहास लेखन में सरदार वल्लभ भाई पटेल तक को हाशिए में रखे जाने के प्रयास इस बात की पुष्टि करते हैं कि इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग इस दौर में कांग्रेस, विशेषकर नेहरू की नजरों में खरा उतरने का प्रयास करता रहा तो दक्षिणपंथी इतिहासकारों ने हर संभव यह साबित करने का पुरजोर प्रयास किया कि स्वतंत्रता की लड़ाई में संघ की भूमिका को कैसे सही ठहराया जाए। ऐसे इतिहासकारों की दृष्टि में अंग्रेजों से संघर्ष के साथ-साथ संघर्ष देश के उन मुसलमानों संग भी हमेशा बना रहा जो राष्ट्र से बढ़कर अपने धर्म इस्लाम को मानते थे। आजादी उपरांत भारत का इतिहास, विशेषकर स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पूरी तरह एकपक्षीय रहा क्योंकि ऐसा इतिहास लेखन कांग्रेस के द्वारा वित्त पोषित था। इतिहासकार रोमेश चंद्र मजूमदार के अनुसार कांग्रेस द्वारा वित्त पोषित इतिहास लेखन में इतिहासकार असुविधाजनक तथ्यों को (कांग्रेस के लिए) दबाने में लग गए। मजूमदार के शब्दों में-‘Deep repression of inconvenient historical realities when the congress government sponsored history was written.’ आज जब चौतरफा दक्षिणपंथी विचारधारा वालों का बोलवाला है तो नए सिरे से इतिहास ‘गढ़ने’ का काम शुरू हो चुका है। एनसीईआरटी की पुस्तकों में किए गए बदलाव इसी नव इतिहास लेखन का परिणाम हैं। जर्मनी के चांसलर और विचारक ओटो फॉन बिस्मार्क का कहना था- ‘What we learn from history is that no one learns from history’ (हम इतिहास से केवल इतना सीखते हैं कि इतिहास से कोई सबक नहीं लेता है।) इसे वर्तमान में एनसीईआरटी की पुस्तकों में किए जा रहे बदलाव, शहरों के, सड़कों के, जिलों के नए नामकरणों संग जोड़ा जाए तो इस कथन की सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। ऐतिहासिक तथ्यों संग छेड़छाड़ और खिलवाड़ तो किया जा सकता है, उन्हें बदला नहीं जा सकता है।

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