‘‘देवी आप मुझे इतना महत्व न दें। मैं उन संपूर्ण लोगों की ओर से आपसे क्षमा-याचना करता हूं, जिन्होंने आपका अपराध किया है, और प्रतिज्ञा करता हूं कि जीवन में जब कभी इन्द्र से साक्षात्कार हुआ, उसे प्राणदंड दूंगा। मेरी आयु अभी इतनी नहीं, मेरा ज्ञान भी अभी इतना नहीं, जितना इन ऋषियों, मुनियों और साधकों का है। परंतु मैं अत्यंत चकित और पीड़ित हूं। ये लोग जानते हैं कि सत्य क्या है, न्याय क्या है, किंतु फिर भी ये सब-के-सब भय से निष्क्रिय और जड़ पड़े हुए हैं। मैं प्रयत्न करूंगा कि इस जड़ता को यथाशक्ति तोड़ूं। …मैं कौसल्या-पुत्र राम वचन देता हूं कि यदि समाज ने आपको स्वीकार नहीं किया तो मैं इस गलित समाज का नाश कर नया समाज बनाऊंगा।’’ रामकथा पर आधारित सात खंडों की उपन्यास शृंखला के लेखक नरेंद्र कोहली कोरोना का शिकार हो गए। मुझे ताउम्र इस बात का मलाल रहेगा कि मैं अपना आलस्य न त्याग सका, नतीजा रहा अपने सबसे प्रिय लेखकों में से एक नरेंद्र कोहली संग मुलाकात से वंचित रह गया। कोहली जी रचित रामकथा के सातों खंड मैंने एक नहीं कई बार पढ़े हैं। जब मात्र 13-14 बरस का था तब पहली बार इस उपन्यास शंृखला ने मुझे राम के चरित्र को अलग नजरिए से समझने की दृष्टि दी। साथ ही मेरे चारित्रिक विकास में भी इस उपन्यास शृंखला का बड़ा योगदान रहा। ‘पाखी’ पत्रिका के प्रकाशन बाद मुझे कई अवसर कोहली जी से मुलाकात करने के मिले जिन्हें मैं टालता गया। अब उनके नहीं रहने पर बेहद मलाल महसूस रहा हूं। मलाल करने से लेकिन कुछ हासिल होने वाला नहीं। जिंदगीभर एक किस्म की आत्मग्लानि का भार ढोते रहने के सिवा। बहरहाल, इस कोविड महामारी के दौरान पहली बार समझ में आया कि धन का क्या महत्व है। आधा से अधिक जीवन लक्ष्मी का महत्व समझे बगैर गुजार दिया। कभी लगा ही नहीं कि इसका संचय करना चाहिए। यह भी नहीं समझा कि संचय किए धन को केवल और केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए ही इस्तेमाल में लाना चाहिए। गालिब चचा की शायरी चलते ऐसा बिगड़ा कि अब सुधार की गुंजाइश भी नहीं बची है। चचा तो मौज में कह गए ‘कर्ज की पीते थे मय, समझते थे रंग लाएगी अपनी फाकामस्ती एक दिन।’ त्रासदी अपन साथ यह रही कि ‘मय’ से भी दूर रहे। इस गलतफहमी चलते कि चचा गालिब तो कर्ज लेकर उसे शराब में लुटा देते थे, अपन तो कुछ सार्थक काम में उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए यह फाकामस्ती का रंग चढ़ेगा जरूर। आज जब इस महामारी के समय तमाम हाथ पैर मारकर भी किसी को राहत नहीं पहुंचा पा रहा हूं तब केवल और केवल आक्रोश, आत्मग्लानि, असहाय होने का बोध साथ पा रहा हूं। बाकी सभी मुगालते दूर हो गए। सबसे बड़ा मुगालता यह था कि समय आने पर वे सब आगे बढ़कर हाथ बढ़ाएंगे जिनकी निस्वार्थ भाव से कभी न कभी मदद की थी। एकाध को छोड़कर सभी ने अपना असली रंग दिखा डाला। एक मित्र को एक बड़े महानगर में कोविड बेड की बड़ी जरूरत थी। पूरे विश्वास के साथ महानगर के कलेक्टर को फोन लगाया। कोई उत्तर नहीं मिला तो यह मानते हुए कि साहब बहादुर व्यस्त होंगे, उन्हें मैसेज भेजा। सुबह से शाम हो गई लेकिन उत्तर नदारत। फिर काॅलेज के दिनों के एक साथी से मदद मांगी। उसने तत्काल एम्बुलेंस की व्यवस्था की। मित्र को उस महानगर से नोएडा लाया गया। यहां सरकारी मेडिकल काॅलेज में उनको बेड मिल गई, जान भी बच गई। जिन डीएम साहब को बहुत उम्मीदों के साथ, विश्वास के साथ मैसेज भेजा था उनका आज तक कोई उत्तर नहीं आया है। यह साहब एक दौर में अपन के दफ्तर में हाजिरी लगाते थे। बड़े भाई का दर्जा इन्होंने दे रखा था। साहब बहादुर पर उन दिनों भारी संकट आया हुआ था। मेरे एक प्रिय मित्र ने इनकी जबर्दस्त पैरवी की थी। इशारों-इशारों में बताने का प्रयास किया था कि करोड़-दो-करोड़ खर्च भी यह महानुभाव करने को तैयार हैं। ये मित्र सरल स्वभाव के हैं। उन्होंने भरसक समझाया कि भैय्या आती लक्ष्मी का निरादर मत करिए, यदि इस अफसर की मदद हो सकती है तो कर दीजिए, लक्ष्मी मां भी मिल जाएगी, साथ ही नौकरशाही में एक अच्छा सहारा भी जीवन पर्यन्त के लिए हो जाएगा। पर अपन पर तो अलग ही रंग चढ़ा रहता है। साहब बहादुर की मदद पूरी कर डाली। लक्ष्मी मैय्या को दूर से ही प्रणाम कर डाला। साहब बहादुर भी समझ गए कि बंदा ‘बड़ा वाला गधा’ है। मामला सल्टा नहीं कि सब कुछ भूल बैठे। एक गंभीर रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की बाबत भेजे संदेश का जवाब देना तक गंवारा नहीं किया। ऐसे एक नहीं कई वाकये आज संकट की घड़ी में याद आ रहे हैं। सोच रहा हूं यदि तब लक्ष्मी का तिरस्कार नहीं किया होता तो शायद आज इस महामारी के समय कुछेक के लिए कुछ तो सार्थक कर पाता। लबे अर्से की सार्वजनिक जीवन यात्रा के अनुभवों की बिना पर कह सकता हूं भले ही हम राजनेताओं को लाख बुरा-भला कहें, नौकरशाहों से ये कौम लाख गुना अच्छी है। नौकरशाह, किसी भी पेशे से जुड़े नौकर, बेहद संकुचित,स्वार्थी और खुद तक सिमटी कौम है। इन्हें किसी के जीने-मरने से कुछ लेना-देना नहीं, केवल और केवल अपने स्वार्थ सिद्धि तक ये फोकसड् रहते हैं। मुफ्तखोरी की इन्हें आदत पड़ चुकी है। मनोरंजन हो, होटल में भोजन करना हो या फिर अस्पताल में इलाज, हर जगह इन्हें डिस्काउंट नहीं शत-प्रतिशत फ्री का माल खाना है। इनसे लाख भले राजनेता हैं। गाली भी खाते हैं, काम भी लेकिन बुरे समय पर वे ही आते हैं। व्यापारी समाज भी ऐसे आपातकाल में अपना फर्ज निभाने आगे आता नजर आ रहा है। कई मित्र हमेशा ही मेरे अनुरोध पर यथासंभव मदद करने आगे आए हैं। अपनी सामथ्र्य से ज्यादा किया है। आज भी कोरोनाकाल में कई उद्योगपतियों ने अपने खजाने खोल दिए हैं। ऐसों को देखकर कुछ ढाढ़स ला मन में बंधता है कि मानवता पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। अभी भी बहुतों के भीतर बची हुई है। लेकिन समाज में ऐसों की उपस्थिति के बावजूद एक बात पर मैं कायम हूं कि लक्ष्मी सबसे ज्यादा ताकतवर होती है। मैं भले ही बहुत देर में चेता, जिनकी अभी तक चेतना जगी नहीं है, उन्हें मुझ से सबक लेना चाहिए ताकि भविष्य में पछतावा न हो। इस महामारी के चलते उपजे असहायता बोध ने बहुत कुछ सिखाने का काम किया है। पहली बात यह कि जीवन को स्याह-सफेद के खांचे में मत बांधिए। काला और सफेद से कहीं ज्यादा जीवन में घूसर रंग का प्रभाव होना चाहिए। इसे लक्ष्मी यानी धन के उदाहरण से समझिए। कालाधन या सफेद धन जैसा कुछ नहीं। धन लक्ष्मी को कहा जाता है इसलिए काला हो ही नहीं सकता। उसका आगमन कभी न रोकें। हां, निजी स्वार्थों के पूर्ति, निजी सुख-साधनों में उसे न लुटाकर मानवता के लिए उसका सदुपयोग करें ताकि आज सरीखी आपदा के समय इसकी कमी चलते आत्मग्लानि से बचा जा सके। दूसरा सबक है किसी पर भी आंख मूंदकर भरोसा न करें। यदि किसी परिचित, मित्र, भाई-बहन आदि के लिए कभी कुछ अच्छा किया हो तो उसे पूरी तरह भूल जाएं। कोई आस न बांधें कि वे भी समय आने पर आपका साथ देंगे। इसका लाभ संकटकाल में मिलेगा। कोई अपेक्षा नहीं होने पर उनके द्वारा की गई छोटी-सी मदद भी कृतज्ञता भाव को जन्म देगी और यदि वे नजर फेर लेते हैं तो उनकी अहसान फरोमोशी से आप आहत नहीं होंगे। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण सबक लक्ष्मी का अनादर कभी न करें। कभी भी लक्ष्मी के आगमन को पाप-पुण्य की परिभाषा में तौलने की मूर्खता न करें। मैंने एक नहीं अनेकों बार ऐसी मूर्खता की है। बहुत संभव है आगे भी आदत से मजबूतर होने चलते करता रहूंगा। लेकिन अपने अनुभवों को साक्षी मान आपको यह नेक सलाह देना चाहता हूं कि चचा गालिब पर भरोसा कतई न करना। फाकामस्ती रंग लाएगी सोचते-सोचते उम्र बीत जाएगी। हाथ खाली रह जाएंगे। और एक वक्त ऐसा भी आएगा कि कुछ करने लायक, गलतियां सुधारने लायक समय बचेगा नहीं। अंतिम सबक है किसी के भरोसे मत रहिएगा। जिस पर सबसे ज्यादा विश्वास करते हों, उसी से विश्वासघात की सबसे ज्यादा संभावना रहती है। इसलिए खुद पर भरोसा रखें, केवल खुद पर। बाकि अंधकार चाहे जितना गहरा हो, उसे छंटना ही होता है, छंटेगा ही छंटेगा। कोरोना अवश्य हारेगा। कुछ सबक सीखने का यह अवसर है। सबक सीखिए, लेकिन मानवीय गरिमा और संवेदनशीलता के संग।
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