भाजपा के नेतागण यूपीए शासनकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘मौनी बाबा’ कह उपहास उड़ाया करते थे। अब यही जुमला विपक्षी नेता उनके सर्वमान्य नेता नरेंद्र मोदी के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते एक दशक से देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं। इस सत्य को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि उनकी छवि और लोकप्रियता के सहारे ही भाजपा आज देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन उभरी है और मोदी के नाम सहारे ही अधिकांश भाजपा नेता चुनावों में जीत दर्ज करा पाते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि मोदी का कद भाजपा से कहीं ज्यादा बड़ा हो चला है। इतनी लोकप्रियता के बावजूद यदि प्रधानमंत्री संवेदनशील मुद्दों से कन्नी काटते नजर आएं तो प्रश्न उठने लाजिमी है। बीते कुछ समय से पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में जातीय हिंसा अपने चरम पर देखने को मिली है। प्रधानमंत्री ने लेकिन इस मुद्दे पर अभी तक कुछ भी कहना, यहां तक कि इस जातीय हिंसा में मारे गए लोगों के प्रति संवेदना तक प्रकट करना उचित नहीं समझा है।
संवेदनशील मुद्दों पर डराती है पीएम की खामोशी

अमेरिकी यात्रा पर जाने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जरिए भी इस विषय पर एक शब्द नहीं कहा। वे 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल पर अपने ‘मन की बात’ कह अमेरिका निकल गए। उनके पीछे मणिपुर जलता रहा। इस विदेश यात्रा से वापस आने के बाद एयरपोर्ट पर उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष से जरूर जानना चाहा कि देश में क्या चल रहा है? भाजपा अध्यक्ष ने उन्हें वही उत्तर दिया जो प्रधानमंत्री सुनना चाहते थे- ‘आॅल इज वेल’। उत्तर पूर्व के सातों राज्यों में इस समय चैतरफा ‘कमल’ खिला हुआ है। असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर में भाजपा की सरकारें हैं तो नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में वह गठबंधन सरकार का हिस्सा है। इन सातों राज्यों से कुल मिलाकर 25 लोकसभा सीटें हैं। इन 25 सीटों में से 14 पर भाजपा का कब्जा है। ‘कमल’ के प्रति पूर्वोत्तर के इतने असीम प्रेम के बावजूद प्रधानमंत्री का मणिपुर को लेकर मौन साध लेना और अमेरिकी यात्रा से पहले प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली पहुंचे मणिपुरी नेताओं को मिलने का वक्त नहीं देना पूर्वोत्तर में भाजपा के प्रति आमजन का मोह कम करने का कारण बन चुका है।
सोशल मीडिया पर पीएम को ‘लापता’ घोषित किए जाने वाले पोस्टर वायरल हो रहे हैं। मणिपुर में प्रधानमंत्री की चुप्पी से आक्रोशित हो गत सप्ताह दिल्ली के जंतर-मंतर पर मणिपुरी महिलाओं द्वारा प्रदर्शन तक किया गया। इम्फाल की प्रसिद्ध इमा बाजार से आई इन महिलाओं ने देश से सवाल किया है कि ‘क्या हमलोग भारत के नागरिक नहीं हैं? क्योंकर प्रधानमंत्री मणिपुर का दौरा नहीं कर रहे हैं? इन प्रश्नों के पीछे दोयम दर्जे का नागरिक होने की वह पीड़ा छिपी है जिसे बीते 75 वर्षों के दौरान हर पूर्वोत्तरी नागरिक ने सहा है। प्रधानमंत्री केवल मणिपुर के मुद्दे पर ही खामोश रहे हों तो समझा जा सकता था कि वे अपनी ‘डबल इंजन’ की सरकार के सहारे वहां शांति बहाली किए जाने के लिए प्रयासरत हैं और शांति बहाली से पहले कुछ भी कह मामले को और उलझाना नहीं चाहते हैं लेकिन ऐसा नहीं है। बीते दस वर्षों के दौरान ऐसा कई बार देखा जा चुका है कि ज्वलंत मुद्दों पर प्रधानमंत्री ने मौन धारण करे रखा। तीन कृषि कानूनों का जब घोर विरोध देशभर के किसानों ने किया था तब भी प्रधानमंत्री खामोश रहे थे। कोरोनाकाल के दौरान लाखों की संख्या में पैदल अपने घर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे मजदूरों की पीड़ा पर भी वे कुछ नहीं बोले थे। दिल्ली दंगों के दौरान भी उन्होंने एक तरह से मौन धारण कर लिया था। 2020 में उत्तर प्रदेश के शहर हाथरस में एक 19 बरस की दलित लड़की का सामूहिक बलात्कार सवर्ण जाति के युवकों द्वारा किया गया था। इस जघन्य कांड ने देशभर को झकझोर दिया था। चार दिन तक जीवन-मृत्यु के मध्य संघर्ष करने के बाद इस लड़की की मृत्यु हो गई थी। इस मामले को दबाने का भरसक प्रयास तब उत्तर प्रदेश पुलिस ने किया था। कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी, प्रियंका गांधी समेत विपक्षी दलों के नेताओं ने इस जघन्य अपराध की कड़े शब्दों में निंदा की लेकिन प्रधानमंत्री खामोश रहे। प्रधानमंत्री तब भी कुछ नहीं बोले थे जब उनकी सरकार में मंत्री अजय मिश्रा के बेटे द्वारा किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने का मामला सामने आया था। उन्होंने एक तरह से चुप रहकर व विवादित मंत्री को बर्खास्त न कर यही संदेश देने का काम किया था कि वे कृषि कानूनों की राह में बाधा बन रहे किसानों के साथ नहीं खड़े हैं। प्रधानमंत्री आपातकाल के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण पर लगातार अपनी बात सामने रखते हैं लेकिन खुद की सरकार पर लग रहे आरोपों पर एक शब्द भी नहीं बोलते हैं। ‘प्रेस फ्रीडम इन्डेक्स’ के अनुसार भारत में बोलने की आजादी पर पाबंदी बढ़ती जा रही है। 2020 में 180 देशों में भारत की रैंकिग प्रेस फ्रीडम के मामले में 142 थी जो 2023 में और नीचे गिरकर 161 में जा पहुंची हैं। अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ‘रिपोट्र्स विदआउट बार्डस’ हर वर्ष विश्वभर के देशें में मीडिया को सही और तथ्यपरक समाचार सामने लाने के लिए मिलने वाली स्वतंत्रता को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी करती है। इस संस्था के अनुसार प्रेस फ्रीडम से उसका तात्पर्य है -‘The ability of journalists as individuals and collectives to select, produce and disseminate news in the public interest independent of political, economic, legal and social interference and in the absence of threats to their physical and mental safety.’ (व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से पत्रकारों द्वारा सार्वजनिक हित में समाचारों का चयन करने और उन्हें सामने लाने के प्रयासों के दौरान राजनीतिक, आर्थिक और कानूनी स्वतंत्रता तथा उनकी शारीरिक और मानसिक सुरक्षा का स्तर।) भारत में इस प्रकार के माहौल का नदारद रहना अथवा लगातार खराब होते जाना, लोकतांत्रिक मूल्यों का भारी अवमूल्यन दर्शाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस मसले पर भी कभी किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं देकर उन चिंताओं में इजाफा करने का काम किया है जो देश में लोकतंत्र को लेकर लगातार पैदा हो रही है। संसद में भी प्रधानमंत्री ने हर एक ऐसे मुद्दे पर बोलने से परहेज किया है जो सीधे उनकी छवि को प्रभावित करते हों। उदाहरण के लिए अडानी समूह संग प्रधानमंत्री की कथित निकटता को लेकर संसद के बीते सत्र में भीषण हंगामा मचा। विपक्षी दलों ने इस विवादित समूह और प्रधानमंत्री के मध्य दुरभि संधि सरीखे आरोप तक लगा डाले। मोदी लेकिन खामोश रहे। महिला पहलवानों द्वारा कुश्ती संघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए। वे कई दिनों तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी रहीं लेकिन ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ को अपना मूल मंत्र मानने वाले मोदी ने न तो भारत की इन बेटियों संग संवाद करना उचित समझा, न ही बृजभूषण सिंह पर किसी प्रकार की कार्रवाई करते वे अथवा उनकी सरकार नजर आई।
मोदी जी की संवेदनशील मुद्दों पर खामोशी क्या कहती है? क्या मोदी जी अंग्रेजी लेखक नील रिचर्ड गेमेन के इस कथन से इत्तेफाक रखते हैं कि-‘The wise man knows when to keep silent. Only the fools tells what he know.’ (बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि उसे कब चुप रहना चाहिए। मूर्ख बोलता रहता है कि वह क्या जानता है।) यदि ऐसा है तो प्रधानमंत्री अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जरिए जन सामान्य संग संवाद भला क्यों कर करते हैं? जन संवाद की सार्थकता तभी है जब आमजन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बात की जाए। जनता की बात भी सुनी जाए और इस संवाद के जरिए कुछ सार्थक पहल की जाए। ऐसा तो लेकिन है नहीं। प्रधानमंत्री केवल अपनी बात, ऐसी बात जो उन्हें सुहाती है, कहते हैं और असल मुद्दों से कन्नी काट लेते हैं। निश्चित ही एक विशाल लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें ज्वलंत मुद्दों से कन्नी नहीं काटनी चाहिए। लोकतंत्र की खूबसूरती लोक संग सार्थक संवाद में है। यदि लोक के मन की बात से लोकशाही में लोक द्वारा चुना गया सबसे बड़ा सेवक ही परहेज करने लगे तो इसका दुष्परिणाम लोकतंत्र के स्वास्थ्य बिगड़ने बतौर सामने आता है। आज ऐसा ही कुछ हम होता देख रहे हैं।
मेरे बहुत सारे मित्रों का कहना है कि मैं बाधित दृष्टि का शिकार हो चुका हूं जिस कारण बीते दस वर्षों के दौरान हुए विकास पर, अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की बढ़ती साख पर और एक मजबूत बन उभर रहे राष्ट्र पर मैं कुछ लिख नहीं पाता हूं। बहुत संभव है ऐसा ही हो। बाधित दृष्टि वाला भला कैसे स्वीकारेगा कि वह दृष्टि दोष का शिकार है। मैं तो इतना भर कह सकता हूं कि जो मुझे नजर-समझ आता है मैं वही लिखता हूं। दुष्यंत के शब्दों मेंः
तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं
मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।