यह सही है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के समक्ष विपक्ष के पास एक दमदार चेहरे का नितांत अभाव है। लेकिन यही अभाव 2004 में भी था। तब अटलजी की करिश्माई छवि के समक्ष विपक्ष के पास कोई दमदार चेहरा नहीं था। उस दौर में भी यही कहा जाता था कि अटल सरकार का दोबारा सत्ता में आना तय है। खूब चर्चा थी कि अटलजी ने अपना नया कैबिनेट भी नतीजे आने से पहले ही बना डाला था। आज भी हालात कमोवेश 2004 जैसे ही हैं। फर्क केवल इतना है कि अटज बिहारी वाजपेयी के समय सरकार की नीतियों से आमजन के त्रस्त होने की बात नहीं थी, न ही न्यायपालिका और मीडिया पर अंकुश का कोई मुद्दा उस दौर में था
अगले लोकसभा चुनाव में पूरा एक बरस का समय अभी बाकी है, मैदान लेकिन इसके लिए अभी से तैयार होने लगा है। नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति से पस्त-त्रस्त विपक्ष मोदी सरकार के अंतिम वर्ष में कुछ उत्साहित सा यदि नजर आता दिख रहा है तो दूसरी तरफ भाजपा खेमे में हल्की घबराहट के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं। सियासी समर के लिए विपक्षी खेमा नए राजनीतिक समीकरणों को साध रहा है। भाजपा एनडीए के अपने कुनबे को खिसकने से नहीं रोक पा रही है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि भाजपा मोदी सरकार की उपलब्धियों के नाम पर चुनावी समर में उतरेगी या फिर उग्र हिंदुत्व के सहारे। संकट भाजपा के समक्ष घना है। मोदी सरकार जिन अच्छे दिनों के वायदे पर 2014 में प्रचंड बहुमत पाई थी उन अच्छे दिनों का दूर-दूर तक कुछ अता-पता नजर नहीं आ रहा। ऐसे में उग्र हिंदुत्व के रथ में सवार होकर ही भाजपा केंद्र की सत्ता में दोबारा आने का प्रयास करती दिखने लगी है। जम्मू-कश्मीर में यकायक ही पीडीपी संग अपनी सरकार को गिराने का प्रयोजन हिंदुत्व के नाम पर गोलबंदी से सीधे जुड़ा है। यदि पिछले कुछ अर्से में दिए गए भाजपा नेताओं के बयानों का विश्लेषण किया जाए तो अयोध्या में भव्य राममंदिर निर्माण, अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की बात और उग्र राष्ट्रवाद को उभारे जाने के संकेत स्पष्ट दिखाई देते हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पुरजोर शब्दों में राममंदिर निर्माण की बात कहते घूम रहे हैं।
विश्व हिंदू परिषद और राम जन्म भूमि न्यास से जुड़े संतों ने भी चुनावी वर्ष में राममंदिर का राग फिर से अलापना शुरू कर दिया है। अटलजी की सरकार पूरे छह बरस केंद्र में रही उस दौरान भी विहिप चुनावों के समय राममंदिर निर्माण पर कड़े तेवर अपना लेती थी। अब फिर से वही माहौल तैयार किया जा रहा है। भाजपा नेतृत्व के समक्ष लेकिन बड़ी समस्या एनडीए के अपने सहयोगियों को साथ रखने की है। पीडीपी का साथ भाजपा ने स्वयं छोड़ दिया है। चंद्राबाबू नायडू अपनी उपेक्षा से नाराज होकर अलग हो चुके हैं। शिवसेना लगातार बागी तेवर दिखा रही है। अपने मुखपत्र ‘सामना’ में शिवसेना प्रमुख लगातार प्रधानमंत्री मोदी पर हमले कर रहे हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष की उनके संग हुई मुलाकात के बाद भी शिवसेना के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बिहार में लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा भाजपा से अप्रसन्न बताए जा रहे हैं। विपक्षी एकता को भारी आघात पहुंचा दल-बल के साथ भाजपा संग हो लिए नीतीश कुमार के तेवर एक बार फिर बदलते दिख रहे हैं। मोदी के समक्ष विपक्ष के सबसे दमदार चेहरा बन उभरे नीतीश कुमार अवसरवादी राजनीति के चलते अपनी छवि को धूल-धूसरित कर चुके हैं। भाजपा नेतृत्व उन्हें खास महत्व नहीं दे रहा है। नीतीश कुमार का सबसे बड़ा संकट लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए सीटें हासिल करने का है। वे चाहते हैं 2009 के आम चुनाव में लागू 25-15 का फार्मूला इस बार भी भाजपा मान ले। तब जदयू ने पच्चीस और भाजपा ने पंद्रह सीटों पर चुनाव लड़ा था। तब से अब तक गंगा में खासा पानी बह चुका है और भाजपा बगैर नीतीश कुमार के 2014 में 22 सीटों पर चुनाव जीत चुकी है। सहयोगी दल लोक जनशक्ति पार्टी ने छह सीटें तो लोक समता पार्टी ने दो सीटें जीती। इस समीकरण के चलते भाजपा दस से ज्यादा सीटें नीतीश कुमार को देने से रही। गठबंधन बनाए रखने के लिए शायद अपने कोटे की कुछ सीटें वह नीतीश कुमार को दे भी दे, लेकिन पच्चीस सीटें तब भी जदयू को मिलने से रहीं। नीतीश जो संदेश इन दिनों दे रहे हैं उससे लगता है उनका भाजपा संग गठजोड़ टूट भी सकता है। स्मरण रहे 2013 में भी नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होने से पूर्व कुछ ऐसे ही तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे। अब लेकिन उनकी अविश्वसनीय छवि के चलते शायद ही विपक्षी खेमा उन्हें स्वीकारे। भाजपा के समक्ष संकट भीतर से भी खासा है। कई दिग्गज भाजपाई पहले से ही बागी हो चुके हैं। यशवंत सिन्हा ने तो पार्टी से स्वयं ही किनारा कर लिया, शत्रुघ्न सिन्हा कहने को तो भाजपा में हैं, वे लेकिन खुलेआम प्रधानमंत्री मोदी की मुखालफत करते घूम रहे हैं। राजस्थान में, जहां इस वर्ष अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं, पार्टी के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवारी बागी हो चुके हैं। 25 जून को जब भाजपा नेतृत्व बयालीस बरस पहले देश में लगे आपातकाल को यादकर कांग्रेस नेतृत्व को घेरने में जुटा था, घनश्याम तिवारी ने देश में अघोषित आपातकाल जैसा गंभीर आरोप लगा भाजपा से इस्तीफा दे डाला। तिवारी कोई मामूली हैसियत के नेता नहीं हैं। वे छह बार राजस्थान में मंत्री रह चुके हैं। खांटी संघी पृष्ठभूमि से आते हैं। आपातकाल के दौर में उन्होंने नारा दिया था ‘संघ पर प्रतिबंध लगाया है, सोता शेर जगाया है।’ अब वही यदि यह कह पार्टी छोड़ देते हैं कि ‘आपातकाल तब घोषित था, अब अघोषित इमरजेंसी है। मीडिया की जुबान बंद है और न्यायपालिका पर दबाव है।’ ऐसे में निश्चित ही भाजपा आलाकमान पर दबाव बढ़ रहा है। मध्य प्रदेश में पंद्रह बरसों से राज कर रही भाजपा इस बार डिफेंसिव मोड में है। शिवराज सिंह चौहान सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। अमूमन विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों को सत्तारूढ़ दल जीतता है। मध्य प्रदेश में लेकिन इस वर्ष हुए विधानसभा और लोकसभा के उपचुनावों में कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई है। यह शिवराज सरकार के साथ-साथ भाजपा आलाकमान के लिए भी खतरे की बड़ी चेतावनी है। कांग्रेस हालांकि राज्य में कई गुटों में बंटी है। कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी धरातल पर खासी सक्रिय हो चुकी है। कई हजार किलोमीटर की नर्मदा परिक्रमा पद यात्रा के बाद दिग्विजय सिंह भी एक बार फिर मध्य प्रदेश की राजनीति में एक्टिव हैं। यह तय है कि इस बार राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी सत्ता बचाने के लिए भाजपा को कड़ा संघर्ष करना होगा। राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में भाजपा 2014 की अपनी परफॉरमेंस कतई नहीं दोहरा पाएगी। यदि ऐसा होता है तो अपने दम पर तो दूर, एनडीए का कुल संख्या बल भी केंद्र में सरकार बना पाने के लक्ष्य से दूर होता नजर आ रहा है। यह सही है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के समक्ष विपक्ष के पास एक दमदार चेहरे का नितांत अभाव है। लेकिन यही अभाव 2004 में भी था। तब अटलजी की करिश्माई छवि के समक्ष विपक्ष के पास कोई दमदार चेहरा नहीं था। उस दौर में भी यही कहा जाता था कि अटल सरकार का दोबारा सत्ता में आना तय है। खूब चर्चा थी कि अटलजी ने अपना नया कैबिनेट भी नतीजे आने से पहले ही बना डाला था। आज भी हालात कमोवेश 2004 जैसे ही हैं। फर्क केवल इतना है कि अटज बिहारी वाजपेयी के समय सरकार की नीतियों से आमजन के त्रस्त होने की बात नहीं थी, न ही न्यायपालिका और मीडिया पर अंकुश का कोई मुद्दा उस दौर में था। नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले चार बरसों में जहां एक तरफ अंतरराष्ट्रीय मंच में भारत की मजबूती की बातें सामने आईं तो दूसरी तरफ अपने पड़ोसियों संग हमारे संबंध खराब हुए हैं। जम्मू-कश्मीर में भाजपा की राज्य सरकार में भागीदारी के बावजूद हालात बदतर होते गए, आतंकी घटनाओं की बढ़ोतरी हुई। कालेधन पर सरकार ने अंकुश लगाने के लिए नोटबंदी तो कर डाली लेकिन न तो कालाधन सरकारी खजाने में आया, न ही कालेधन वालों का कुछ बिगड़ा। आमजन और व्यापार जरूर बुरी तरह प्रभावित हो गया है। रोजगार के बड़े- बड़े वादे आंकड़ों की बाजीगरी तक सिमटकर रह गए। इससे इंकार नहीं कि मोदी सरकार ने कोई महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी योजनाओं की शुरुआत की है, धरातल पर लेकिन उनका असर देखा जाना अभी बाकी है। ऐसे में जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, भाजपा का संकट गहरा रहा है। एक तरफ उसे अपने सहयोगियों को थामे रखना भारी पड़ रहा है तो दूसरी तरफ बागी होते अपने नेताओं से भी पार्टी आलाकमान त्रस्त और पस्त होता दिख रहा है। घनश्याम तिवारी जैसे जमीनी नेताओं का तिरस्कार, कहीं न कहीं पार्टी में बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा से जुड़ बड़ा बवंडर खड़ा कर सकता है। यह भविष्य के गर्भ में छिपा है कि 2019 के आम चुनाव से पहले कौन किस पाले में जाता है। इतना अवश्य स्पष्ट नजर आ रहा है कि भाजपा के लिए आगामी आम चुनाव में राह अब आसान नहीं रह गई है।