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Editorial

प्राची में अरुणिम की रेखा

मेरी बात
 
 

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

-अटल बिहारी वाजपेयी

ब्रिटेन का मीडिया संस्थान ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिं  कॉरपोरेशन (बीबीसी) यूं तो हमेशा से ही चर्चा में अपनी खबरों को लेकर रहता आया है। इन दिनों अपनी एक डॉक्युमेंट्री फिल्म के चलते वह हमारे देश में तहलका मचाए हुए है। ‘दि मोदी क्वेशचन’ नामक इस वृत्तचित्र की पहली किश्त सामने आते ही केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी मानो सकते में आ गई। इससे पहले की यह वृत्तचित्र वायरल होता केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के निर्देश पर यू-ट्यूब एवं ट्विटर ने इसे अपने प्लेटफॉर्म से हटा दिया। हंगामा लेकिन थमने का नाम ले नहीं रहा है। इस वृत्तचित्र पर चर्चा से पहले कुछ जानकारी बीबीसी की बाबत जाननी जरूरी है। 19 अक्टूबर, 1922 यानी आज से लगभग सौ साल बरस पहले इस संस्था का गठन ब्रिटेन में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था। आज भी यह ब्रिटिश सरकार के अधिपत्य वाली संस्था है। अपनी सौ बरस की यात्रा के दौरान जहां इस मीडिया संस्थान ने अपनी खोजपरक खबरों और विभिन्न विषयों पर बनाए गए वृत्तचित्रों के चलते विश्वभर में खासा नाम कमाया, वहीं यह लगातार विवादों का केंद्र भी रही है। ब्रिटेन की लौह महिला कहलाई जाने वाली राजनेता और प्रधानमंत्री मार्गेट थैचर ने तो बीबीसी पर गैरजिम्मेदाराना और पूर्वाग्रही होने तक का आरोप अपने प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान लगाया था। अपने स्वतंत्र और वामपंथी झुकाव के लिए जाने जाती इस संस्था की बाबत ब्रिटेन में एक सर्वे 2018 में कराया गया जिसमें 40 प्रतिशत जनता ने इसके पूर्वाग्रही होने की बात कही थी। ईरान के सबसे बड़े नेता अल खुमेनी ने बीबीसी को ब्रिटिश सरकार के हाथों खेलने और ईरान में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का आरोप लगाते हुए वर्ष 2009 में प्रतिबंधित कर दिया था। वर्ष 2008 में जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ तब बीबीसी ने अपने समाचारों में हमलावरों को आतंकवादी न कह हथियारबंद लोग कहा जिसके चलते उसे भारत और ब्रिटेन में भारी आलोचना का शिकार होना पड़ा था। ब्रिटिश सांसद स्टीफन पाउंड ने बीबीसी की कड़ी आलोचना करते हुए इसे बेहद शर्मनाक कृत्य करार दिया था। बीबीसी पर पूर्वाग्रही से जुड़े कई कई विवादास्पद मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं। ताजा विवाद ‘दि मोदी क्वेशचन’ को लेकर पैदा हुआ है। इस डॉक्यूमेंट्री को केंद्र सरकार ने ‘नीच दुष्प्रचार’ कह अपने आपातकालीन अधिकारों का प्रयोग करते हुए प्रतिबंधित कर दिया है। 59 मिनट का यह वृत्तचित्र वर्ष 2002 में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए कौमी दंगों की पड़ताल करता है। ‘टाइम’ पत्रिका के अनुसार Raw and chilling footage in the documentary reveals how the police stood by as Hindu mobs attacked Muslims and religious attacks took hold of the state. विपक्षी दल बीते दो दशकों से प्रधानमंत्री मोदी की गुजरात दंगों में भूमिका को लेकर हमलावर रहते आए हैं। मोदी पर आरोप हमेशा से ही यही लगता रहा है कि उनकी सरकार ने समय रहते इन दंगों को रोकने की कार्रवाई नहीं की। बीबीसी की यह डॉक्यूमेंट्री एक कदम आगे बढ़कर सीधे तत्कालीन मुख्यमंत्री को इन दंगों का जिम्मेवार ठहराने का काम कर रही है।

21 बरस पहले हुए दंगों की बात आज किए जाने के पीछे बीबीसी ब्रिटिश विदेश मंत्रालय की एक गोपनीय रिपोर्ट को आधार बता अपने वृत्तचित्र में दावा कर रही है कि इस रिपोर्ट में सीधे तत्कालीन मुख्यमंत्री को दंगों का दोषी ठहराया गया है। जाहिर है यह बेहद गंभीर आरोप है जिनसे न केवल देश, बल्कि विदेशों में भी प्रधानमंत्री की छवि बिगड़ने का खतरा है। यही कारण है कि केंद्र सरकार ने इस पर तत्काल प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। ‘केरावान्’ (www.caravanmagazine.com) के अनुसार ब्रिटिश सरकार की गोपनीय रिपोर्ट में विश्व हिंदू परिषद् द्वारा दंगों को योजनाबद्ध तरीके से कराए जाने की बात कही गई है। ‘केरावान्’ ने इस रिपोर्ट के कुछ अंश अपनी वेबसाइट में प्रकाशित भी किए हैं इनमें कहा गया है कि ‘Police contacts confirmed that rioters used computerised lists to target Muslim homes and businesses. The accuracy and detail of the lists, including businesses with minority Muslim share holding, suggests that they were prepared in advance… The VHP and its allies acted with the support of the state government. They couldnot have inflicted so much damage without the climate of impunity created by the state government.’ (पुलिस सूत्र प्रमाणित करते हैं कि दंगाई कम्प्यूटरीकृत सूची के जरिए मुस्लिम घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को निशाने पर ले रहे थे। लिस्ट पूरी तरह प्रमाणिक और सही थी जिससे स्पष्ट होता है कि तैयारी पहले से की गई थी . . . विश्व हिंदू परिषद् और उसके सहयोगियों को राज्य सरकार का समर्थन था अन्यथा वे इतना अधिक नुकसान नहीं पहुंचा पाते)।
इस वृत्तचित्र में जो कुछ भी दिखाया गया है, जो भी दावे किए गए हैं, उनमें कुछ भी नया प्रतीत नहीं होता है। ऐसे में विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में इस बाबत प्रकाशित समाचारों के आधार पर कह रहा हूं। क्योंकि भारत सरकार ने इस वृत्तचित्र का प्रसारण प्रतिबंधित कर दिया इसलिए गूगल पर बहुत खोजने पर भी मुझे यह मिली नहीं। हां, बहुत सारे ट्विट जरूर मिले जिनमें विदेशी कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिए इस वृत्तचित्र को डाउनलोड करने का तरीका बताया गया है। जो कुछ, जितना कुछ मैं इस वृत्तचित्र बाबत पढ़ पाया उससे मुझे इन दंगों की बाबत कुछ भी नई जानकारी नहीं प्राप्त हुई। ब्रिटिश सरकार की इस कथित गोपनीय रिपोर्ट में जिन कथित तथ्यों का जिक्र किया गया है वे सभी बीते 21 बरसों से सार्वजनिक पलट पर मौजूद हैं। उच्चतम न्यायालय इन दंगों से जुड़ी कई याचिकाओं को सुन चुकी है। कांग्रेस जब केंद्र में सत्तारूढ़ थी तब वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के एक पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में जांच कमेटी का गठन कर नरेंद्र मोदी पर लगे आरोपों की जांच हेतु किया था। 2010 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी। इस रिपोर्ट को आधार बनाते हुए 2012 में गुजरात की एक विशेष अदालत ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई भी प्रमाण नहीं होने की बात कही थी। कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी समेत 69 लोगों को दंगाइयों द्वारा अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में मार दिए जाने का मामला भी इस जांच कमेटी की जांच के दायरे में था। कोर्ट द्वारा सबूत न होने के आधार पर जब मामला बंद कर दिया गया तो अहसान जाफरी की पत्नी ने हाईकोर्ट में अपील दायर की जिसे 2017 में हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। जाकिया जाफरी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जून 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने भी विशेष जांच दल की रिपोर्ट को सही करार देते हुए नरेंद्र मोदी व अन्य को दोषमुक्त करार दिया। हालांकि यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय बाद भी तत्कालीन सरकार की भूमिका को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी अपने अतीत के, अध्याय पर खुलकर बोलने को आज तक तैयार नहीं होते नजर आते हैं। 2007 में जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब पत्रकार करण थापर ने उनसे साक्षात्कार के दौरान गुजरात दंगों के विषय में प्रश्न पूछे तो कुछ ही मिनटों में मोदी बातचीत छोड़ उठ गए थे। ‘सीएनएन- आईबीएन’ चैनल का यह इंटरव्यू आज भी यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। करण थापर ने अपनी पुस्तक ‘डेविल्स एडवोकेट’ में इस घटना का विस्तार से जिक्र करते हुए लिखा है कि इस साक्षात्कार के बाद भाजपा ने उनको पूरी तरह बहिष्कृत करने का काम कर दिया। विशेषकर 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद।
उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद अब इस वृत्तचित्र के जरिए पुराने आरोपों को एक विदेशी सरकार की कथित गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर दोबारा सामने लाया जाना बहुत संभव है कि किसी बड़े अंतरराष्ट्रीय एजेंडे का हिस्सा हो। स्मरण रहे आजाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी सच पर पर्दा बनाए रखने की है। 1984 के सिख दंगों का सच सभी भलीभांति जानते हैं। कितने जांच आयोग बने लेकिन दोषियों को बचाने की कवायद लगातार होती हमने देखी। भ्रष्टाचार के एक से बढ़कर एक मामले समय-समय पर सुर्खियों में आए हैं। सच लेकिन हमेशा कहीं गहरे दफन कर दिया जाता है। एक समय में बोफोर्स तोप सौदे में दलाली की बात उठी थी। राजीव गांधी इस अकेले मुद्दे पर सत्ता से बाहर हो गए। अदालतों ने भले ही कथित दोषियों को बरी कर दिया है लेकिन आज तक सामने नहीं आ पाया है। अटल जी की कविता इन्हीं सबके चलते मुझे याद हो आती है। भारतीय राजनीति के कटु  अनुभवों से निराश हो शायद हताशा के क्षणों में उन्होंने इसे लिखा हो, मुझे लेकिन इसी क्रम में लिखी उनकी दूसरी कविता ज्यादा भाती है। उन्होंने कहा-
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिम की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं।

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