पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-16
‘साइमन कमिशन’ का घोषित उद्देश्य 1919 में बनाए गए ‘भारत सरकार अधिनियम’ का रिव्यू करना और भारत में संवैधानिक सुधारों का ढांचा तैयार करना था। एक भी भारतीय प्रतिनिधि को इस कमीशन में शामिल नहीं किए जाने का भारी विरोध हुआ। कांग्रेस ने दिसंबर 1927 में मद्रास में हुए अपने वार्षिक सम्मेलन में एक सर्वदलीय समिति का गठन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में करा जिसे देश का नया संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसे नेहरू रिपोर्ट के नाम से पुकारा गया जो 15 अगस्त, 1928 को कांग्रेस द्वारा जारी की गई थी। इस रिपोर्ट में मुख्य रूप से भारत को तुरंत ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत एक स्वतंत्र उपनिवेश (Dominion Status) बनाए जाने, दो सदनीय संसद प्रणाली स्थापित करने, राज्य का कोई धर्म नहीं होने और उसके सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने, एक केंद्रीय सरकार के अधीन उन सभी शक्तियों के निहित होने जिनका राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में उल्लेख न हो एवं किसी भी धर्म के लिए पृथक रूप से निर्वाचक मंडल (Seperate Electorates) नहीं होने की बात कही गई थी। हालांकि अल्संख्यकों के लिए कुछ प्रतिशत सीटों पर आरक्षण का प्रावधान इस रिपोर्ट में किया गया था। मुस्लिम लीग ने नेहरू रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया। 1929 में मोहम्मद अली जिन्ना ने इस रिपोर्ट के जवाब में लीग की तरफ से 14 सूत्री मांग पत्र सामने रखा जिन्हें ‘जिन्ना की चौदह सूत्री मांगें’ कह पुकारा गया। इसमें मुख्य रूप से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल, उन सभी शक्तियों जिनका उल्लेख केंद्र और राज्य की सूची में न हो। ;त्मेपकनंतल च्वूमतेद्ध को राज्य सरकारों के अधीन किए जाने आदि का प्रस्ताव किया गया था। आजादी के बाद दोनों स्वतंत्र राष्ट्रों के इतिहासकारों ने जिन्ना की इन चौदह सूत्री मांगों को अपनी-अपनी सुविधानुसार सामने रखने का काम कर जिन्ना के प्रति भारी अन्याय करने का काम किया है। भारत में जिन्ना को विभाजन का गुनहगार तो पाकिस्तान में महानायक बना पेश करने की शुरुआत इन चौदह सूत्री मांगों के जरिए की जाती है। इस तथ्य को हाशिए में डाल दिया गया है कि इन चौदह सूत्री मांगों से पहले नेहरू रिपोर्ट पर चर्चा के दौरान जिन्ना ने हिंदू- मुस्लिम एकता को बनाए रखने के लिए एक अंतिम प्रयास अपने उस प्रस्ताव के जरिए किया था जिन्हें ‘दिल्ली मुस्लिम प्रस्ताव’ (Residuary Powers) कहा जाता है। जिन्ना ने कांग्रेस के समक्ष रखे इन प्रस्तावों में पृथक निर्वाचन मंडल बनाए जाने की लीग की मांग को दरकिनार करते हुए ऐसा निर्वाचन मंडल तैयार करने का प्रस्ताव दिया था जिसमें हिंदू बाहुल्य राज्यों में कुछ सीटें अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज के लिए आरक्षित हों और मुस्लिम बाहुल्य राज्यों में ठीक ऐसे ही कुछ सीटें अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए आरक्षित हों। जिन्ना का मानना था कि इस प्रकार की व्यवस्था के चलते निवार्चित होने वाले जनप्रतिनिधियों को दोनों धर्मों के मतदाताओं के मध्य संतुलन बैठाना होगा जिसका सीधा प्रभाव संकुचित धार्मिक प्रवृत्तियों को रोकने का काम करेगा। ‘दिल्ली मुस्लिम प्रस्तावों’ में मुसलमानों के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग की गई थी ताकि किसी एक धर्म के जनप्रतिनिधियों का राज्यों की विधानसभाओं में पूर्ण बहुमत न हो सके और यदि मुस्लिमों के हितों के खिलाफ कोई प्रस्ताव इन विधानसभाओं में लाया जाए तो उसे रोका जा सके। जिन्ना के इन प्रस्तावों का मोतीलाल नेहरू और गांधी ने स्वागत किया क्योंकि दोनों ही कांग्रेसी नेता धर्म आधारित पृथक निर्वाचन मंडल व्यवस्था को रोकना चाहते थे ताकि धर्म आधारित विभाजक प्रवृत्तियों का विस्तार रोका जा सके और स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई में अंग्रेज सत्ता की ‘फूट डालो शासन करो’ की नीति बाधक न बने पाए। ब्रिटिश सरकार कांग्रेस ओर लीग के मध्य आ रही निकटता के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हुए उनसे किस कदर नाराज थी इसे साइमन कमिशन के संपूर्ण बहिष्कार से खिन्न भारतीय मामलों के तत्कालीन मंत्री लॉर्ड बिरकेनहेड (Lord Birken head, Secretary of state for India-1924 to 1928) द्वारा भारत के तत्कालीन वायराय लॉर्ड इविंन को लिखे पत्र से स्पष्ट हो जाती है। लॉर्ड बिरकेनहेड ने लिखाः ‘I Should advise Simon to see at all stages important people who are not boycotting the commission, particularly the Moslems and the depressed classes. I should widely advertise all his interviews with repesentative moslems. The whole policy is now obvious. It is to terrify the immense Hindu population by apprehension that the commission is being got hold of by the Moslems and may present a report altogether destructive to Hindu position, there by securing a solid Moslem support, and leaving Jinnah high and dry’ (मुझे साइमन को सलाह देनी होगी कि वह हर उस महत्वपूर्ण व्यक्ति से मिले जो कमीशन का बहिष्कार नहीं कर रहा है, विशेषकर मुसलमानों और दलित वर्ग के नेताओं से। साथ ही मुझे साइमन की ऐसे नेताओं संग बैठकों को व्यापक प्रचारित भी करना होगा ताकि हमारी नीति स्पष्ट हो सके और बहुसंख्यक हिंदुओं के मध्य यह डर पैदा किया जा सके कि यह कमीशन पूरी तरह मुसलमानों के पक्ष में अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहा है जिससे हिंदुओं को भारी नुकसान होगा। ऐसा करने से हमें न केवल मुसलमानों का भारी समर्थन मिल जाएगा, साथ ही ‘जिन्ना को हम हाशिए में’ डाल देंगे)। इस पत्र से यह स्थापित होता है कि अंग्रेज हुकूमत जिन्ना को किस कदर संदेह की दृष्टि से देखती थी और अपनी ‘डिवाइड एंड रूल’ नीति की राह में अड़चन मानती थी। नेहरू रिपोर्ट तैयार करते समय जिन्ना के दिल्ली प्रस्तावों पर चर्चा के दौरान हिंदू महासभा मुसलमानों को विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए राजी नहीं हुई जिसके चलते नेहरू रिपोर्ट में 33 प्रतिशत के बजाए अल्पसंख्यकों को 25 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रस्ताव रखा गया जिसे लीग ने सिरे से खारिज कर दिया।
‘दिल्ली मुस्लिम प्रस्तावों’ को जिन्ना के हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने का अंतिम प्रयास कहा जा सकता है। इन प्रस्तावों के खारिज किए जाने और इसके बाद दिए गए चौदह सूत्रों को भी कांग्रेस द्वारा नकार दिए जाने के बाद राष्ट्रवादी जिन्ना में भारी बदलाव देखने को मिलता है। 20 फरवरी, 1929 में रुत्तीबाई की लंबी बीमारी बाद लंदन में मृत्यु हो गई। जिन्ना सामाजिक और पारिवारिक जीवन में एक हारे हुए व्यक्ति बन कर रह गए। तब उन्होंने अपना ध्यान फिर से अपने वकालती पेशे में लगाना शुरू कर दिया। इस निजी संक्रमणकाल में ही जिन्ना एक कट्टर मुस्लिम नेता के रूप में बदलने लगे थे। इस बात का प्रमाण सितंबर 1929 में हुए एक हत्याकांड से स्पष्ट होता है। लाहौर के एक पुस्तक प्रकाशक राजपाल की हत्या एक कारपेंटर इल्मउद्दीन ने चरम आक्रोश की स्थिति में कर दी। इस आक्रोश का कारण था राजपाल द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक ‘रंगीला रसूल’ जिसमें पैंगबर मोहम्मद की निजी जिंदगी की बाबत आपत्तिजनक बातें कही गई थीं। इस पुस्तक ने पूरे पंजाब प्रांत में धार्मिक विद्वेष को गरमा दिया। यह पुस्तक 1924 में प्रकाशित की गई थी। माना जाता है इस पुस्तक को प्रकाशित कराए जाने का मुख्य कारण इसी दौर में भगवान राम की पत्नी मां सीता के चरित्र को लांछित करते एक पोस्टर ‘सीताका छिनाला’ का मुस्लिमों द्वारा प्रकाशन किया जाना था। ‘रंगीला रसूल’ को लिखने वाला व्यक्ति पंडित चामूपति नामक एक आर्य समाजी था जिसे ‘राजपाल एंड संस’ नामक प्रकाशन संस्थान के मालिक महाशय राजपाल ने 1924 में प्रकाशित किया था। महात्मा गांधी ने अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ के जून 1924 के एक अंक में इस किताब का जिक्र करते हुए इसकी कठोर शब्दों में निंदा की थी। गांधी ने लिखा ‘A friend has sent me a pamphlet called ‘R. Rasul’ written in Urdu. The Author’s name is not given…The very title is highly offensive. The contents are in keeping with the title …I have asked myself what the motive possible could be in writing or printing such a book except to inflame passion. Abuse and caricature of the prophet connot wean a Musalman from his faith and it can do no good to a Hindu who may have doubts about his own belief’ (मेरे एक मित्र ने मुझे उर्दू में लिखा एक पर्चा भेजा है जिसका शीर्षक है ‘र ़रसूल’। इस पर्चे में लेखक का नाम नहीं है। पर्चे का शीर्षक बेहद आपत्तिजनक है और इसमें लिखा गया वर्णन भी। मैं सोचता हूं ऐसे पर्चे को लिखने का उद्देश्य भावनाओं को आहत करने के सिवा और क्या हो सकता है। पैंगबर का चरित्र हनन न तो किसी मुसलमान की आस्था को डगमगा सकता है, न ही किसी हिंदू की आस्था को प्रभावित कर सकता है) इस पुस्तक ने हिंदू-मुसलमान के मध्य पहले से ही चले आ रहे झगड़ों को और भड़काने का काम कर दिया था। पुस्तक पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया और महाशय राजपाल पर मुकदमा दर्ज कर लिया गया। लेकिन पंजाब हाईकोर्ट ने पुस्तक को बेहद आपत्तिजनक मानते हुए भी राजपाल को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इस निर्णय का भारी विरोध पूरे भारत, विशेषकर पंजाब प्रांत में हुआ। यहां कौमी दंगे भड़क गए जिसमें कइयों की जान चली गई। 1926 में राजपाल पर प्राणघातक हमला हुआ जिसमें वह बच गए लेकिन 6 अप्रैल, 1929 को एक 20 वर्षीय कारपेंटर इल्मउद्दीन ने राजपाल को चाकुओं से गोद कर मार डाला। इल्मउद्दीन पर हत्या का मुकदमा चला जिसकी पैरवी करने के लिए जिन्ना सहमत हो गए जो उनकी धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी छवि के एकदम विपरीत कदम था। हालांकि एक हत्या आरोपी की जिन्ना द्वारा पैरवी का अपेक्षित नतीजा नहीं निकला और इल्मउद्दीन को अंततः फांसी पर चढ़ा दिया गया लेकिन इससे यह बात स्थापित होती है कि जिन्ना कट्टरपंथ की तरफ कदम बढ़ा चुके थे। 2020 में आई जिन्ना की एक जीवनी ‘जिन्नाह-ए-लाईफ’ के लेखक यासिर लतीफ हमदानी इस घटना को जिन्ना की उन भूलों में से एक करार देते हैं जो कट्टरपंथी मुस्लिम समाज को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए जिन्ना ने की थी।
क्रमशः