यह सरकार भी अपना कार्यकाल पूरी नहीं कर पाई थी और मात्र तेरह माह बाद गठबंधन में शामिल एक दल के अलग होने चलते सरकार ने लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया था। भारतीय राजनीति इस समय-काल में भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी। एक तरफ कांग्रेस का जनाधार सिमटने लगा था और आंतरिक सत्ता संघर्ष अपने चरम में पहुंच कांग्रेस को कमजोर कर रहा था तो दूसरी ओर दक्षिणपंथी भाजपा तेजी से अपनी राजनीति को विस्तार देने में जुटी हुई थी। जनता परिवार हमेशा की तरह बिखरने की कगार पर पहुंच चुका था। इस दौरान पांच बरस तक प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष रहे नरसिम्हा राव के समस्त योगदान को दरकिनार कर कांग्रेस ने उन्हें राजनीतिक वनवास देने का काम किया था। आज जब भारत विश्व की प्रथम पांच आर्थिकी शक्ति बन चुका है, राव के योगदान को कभी-कभार याद किया जाने लगा है, 1996 में लेकिन प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद कांग्रेस ने उन्हें पूरी तरह हाशिए में डालने और अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राव निःसंदेह कई मामलों में देश को सफल नेतृत्व देने वाले प्रधानमंत्री थे। उन्होंने अपने वित्त मंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह के साथ मिलकर आर्थिक बर्बादी की कगार पर पहुंच देश की आर्थिकी को वापस पटरी में लाने का लगभग असम्भव काम सम्भव कर दिखाया था। उनके शासनकाल में पंजाब में काफी हद तक हालात सामान्य थे और आतंकी घटनाओं में कमी आई थी। भारत की सैन्य क्षमता और उसके परमाणु कार्यक्रम को भी राव सरकार के कार्यकाल में मजबूती मिली थी। फरवरी, 1993 में भारत परमाणु क्षमता वाली अपनी पहली मिसाइल ‘पृथ्वी-एक’ का सफल परीक्षण कर सही अर्थों में परमाणु शक्ति बन उभरा था। ‘पृथ्वी-एक’ के सफल परीक्षण बाद फरवरी 1994 में लम्बी दूरी तक मार करने की क्षमता रखने वाली ‘अग्नि’ मिसाइल का भी सफलतापूर्वक परीक्षण कर चीन तक परमाणु वार करने की ताकत हासिल कर ली थी। 1994 में एक कदम आगे बढ़ते हुए भारतीय वायुसेना ने अपने लड़ाकू विमान ‘मिराज-2000’ के जरिए परमाणु बम को हवा से शत्रु राष्ट्रों में विस्फोट करने का सफल परीक्षण किया था। पश्चिमी देश, विशेषकर अमेरिका इस दौरान भारत के परमाणु कार्यक्रम पर पैनी नजर रखने लगा था। राव सरकार पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन लगातार ‘परमाणु अप्रसार संधि’ (Non Proliferation Treaty) पर हस्ताक्षर करने के लिए भारी दबाव बनाने लगे। इस दबाव को दरकिनार कर राव ने एक और परमाणु परीक्षण करने का निर्णय लिया। 1974 में राजस्थान के पोखरण क्षेत्र में भारत ने पहला परमाणु परीक्षण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल में किया था। इस परीक्षण के बाद पश्चिमी देशों ने भारत पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए थे जिनसे हमारी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ा था। भारतीय परमाणु वैज्ञानिक इस परीक्षण के बाद बेहद गोपनीय तरीके से छोटे परमाणु बम विकसित करने में जुटे रहे थे। इस दौरान विकसित और परमाणु शक्ति से लैस राष्ट्रों की तरफ से भारत पर लगातार परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने का दबाव डाला जाता रहा था। 1989 में भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिकों ने छोटे बम बनाने की क्षमता हासिल कर ली। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भारत को एक पूर्ण परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बनाने का बड़ा निर्णय लेते हुए गुपचुप तरीके से एक परमाणु हथियार कमेटी का गठन किया जिसकी भनक उन्होंने अपने मंत्रिमंडलीय सदस्यों तक को नहीं लगने दी थी। इस कमेटी की अध्यक्षता का जिम्मा तत्कालीन रक्षा सचिव नरेश चंद्रा को सौंपा गया था और वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम (बाद में भारत के राष्ट्रपति) को कमेटी का सचिव बनाया गया था। पांच बरस के अथक श्रम बाद इस कमेटी ने परमाणु बम तैयार करने की अपनी तैयारियां पूरी कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से 1995 में परमाणु परीक्षण कराए जाने सम्बंधी स्वीकृति मांगी। नवम्बर- ‘कुछ सप्ताह बाद, नवम्बर माह की शुरुआत में परमाणु ऊर्जा आयोग और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने एक अति गोपनीय ‘केवल प्रधानमंत्री के लिए’ पत्र राव को भेजा जिसमें परमाणु परीक्षण किए जाने के लाभ और नुकसान पर चर्चा की गई थी। इस पत्र में भारत द्वारा पोखरण क्षेत्र में तीन परमाणु परीक्षण दिसम्बर 1995 से फरवरी 1996 के मध्य कराए जाने की संस्तुति की गई थी।’
राव इसके लिए सहमत हो गए थे लेकिन अमेरिका को भारत के इरादों की भनक लग गई। 15 दिसम्बर को अमेरिकी समाचार पत्र ‘न्यूयाॅर्क टाइम्स’ ने सनसनीखेज रिपोर्ट प्रकाशित कर दी जिसमें भारत के पोखरण क्षेत्र में गतिविधियों के तेज होने का जिक्र करते हुए अमेरिका खुफिया एजेंसियों के हवाले से आशंका व्यक्त की गई कि भारत 1974 के बाद अब अपना अगला परमाणु परीक्षण करने जा रहा है। राव सरकार पर इसके बाद भारी दबाव ‘परमाणु अप्रसार संधि’ पर हसताक्षर करने और पोखरण में प्रस्तावित परीक्षणों को रद्द करने के लिए अमेरिका द्वारा बनाया जाने लगा। आम चुनाव तब तक नजदीक आ चुके थे। नरसिम्हाराव ने अंततः इस परमाणु परीक्षण को चुनाव परिणाम आने तक स्थगित करने का निर्णय लिया था। उन्हें पूरा भरोसा था कि इस चुनाव बाद उनकी सत्ता में वापसी होगी ही होगी और दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद वे परमाणु परीक्षण करा पाने में सफल रहेंगे। चुनाव परिणाम लेकिन राव के आशानुकूल नहीं आए। राव लेकिन भारत को परमाणु शक्ति बना पाने में सफल रहे थे इसकी पृष्टि 2004 में राव की मृत्यु पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वीकारी थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने तब राव के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए कहा था कि ‘‘1996 में मेरे प्रधानमंत्री बनने बाद राव ने मुझे बताया था कि ‘सामग्री तैयार है’, आप आगे बढ़ सकते हो।’’
कुल मिलाकर 1991 से 1996 तक राव के प्रधानमंत्रित्वकाल की यदि समग्र विवेचना की जाए तो राव के खाते में कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां तो बहुत सारी विफलताएं सामने आती हैं। राव भारत को आर्थिक रूप से सबल राष्ट्र बना पाने में सफल रहे थे। उनके इस दिशा में उठाए गए कदमों का ही नतीजा है कि आज का भारत एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन वैश्विक पटल पर उभर चुका है। राव लेकिन साम्प्रदायिकता का उभार रोक पाने में सर्वथा विफल रहे थे। 1992 दिसम्बर में अयोध्या, उत्तर प्रदेश, स्थित बाबरी मस्जिद का विध्वंस उनकी बड़ी विफलताओं में शुमार किया जाता है। राव के शासनकाल की कमियों में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार में तब्दील होना और धन और बाहुबल का राजनीति में वर्चस्व स्थापित होना भी शामिल हैं।
भारतीय समाज और राजनीति में नब्बे का दशक इस दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण है कि इसके पूर्वाध में घटी कुछ घटनाओं ने देश की चेतना को कुंद करने और उसे नेहरूवादी समाजवादी सोच से दूर करने का काम शुरू किया। 2024 का भारत नब्बे के दशक की इन तीन घटनाओं से जन्मा भारत है जो भले ही ऊपरी तौर पर एक बड़ी आर्थिक-सामरिक ताकत बन अब विश्व गुरू बनने का दम्भ भर रहा हो, इस भारत ने, इसके लोक ने अपनी चेतना उन शक्तियों के हवाले कर दी है, जिनका उदय काल नब्बे का पूर्वाध था। यह तीन घटनाएं अथवा कारक हैं- उदारीकरण, मंडल कमीशन को लागू किया जाना और कमंडल की राजनीति का विस्तार पाना। इन तीन घटनाओं के साथ-साथ इस दशक के दौरान राजनीति और अपराध के मध्य रिश्तों में एक बड़ा परिवर्तन भी देखने को मिला है। फ्रांसीसी लेखक, विचारक और इतिहासकार मान्टेक्स्यू के अनुसार ‘प्रत्येक सरकार का भ्रष्टाचार हमेशा सिद्धांतों से शुरू होता है।’ उन्होंने अपनी पुस्तक ”The Spirit of the laws” (1748) में भ्रष्टाचार को ‘किसी भी सरकार या राजनीतिक व्यवस्था के पतन का महत्वपूर्ण कारण’ बताते हुए सत्ता के केंद्रीयकरण को भ्रष्टाचार का एक बड़ा कारण कहा है। उनके अनुसार सत्ता का विभाजन और संतुलन जरूरी है अन्यथा किसी एक शाखा (कार्यपालिका, विधायकी, न्यायपालिका), यदि शक्तिशाली हो जाती है तो भ्रष्टाचार की संभावना बढ़ जाती है। प्राचीन भारत के विचार चाणक्य (कौटिल्य) ने अपनी प्रसिद्ध रना ‘अर्थशास्त्र’ में भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण चारणक्य नीति के अनुसार सत्ता के साथ भ्रष्टाचार का होना ठीक वैसा ही है जैसा ‘शहद की रखवाली करने वाले का शहद का स्वाद लेना।’ चाणक्य भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सख्त कानूनों की हिमायत करते हैं। वे सलाह देते हैं कि अधिकारियों और कर्मचारियों की निगरानी के लिए गुप्त एजेंसियों का गठन किया जाना चाहिए और वित्तीय तथा प्रशासनिक व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए आय-व्यय का नियमित लेखा परीक्षण होना चाहिए। सत्ता और अपराध के मध्य दुःरभि संधि को चाणक्य ने सत्ता की नैतिकता से जोड़ा है और इसे राज्य और समाज की स्थिरता के लिए घातक करार दिया है। उनके अनुसार- ‘जब शासक और अपराधी तत्व आपस में मिल जाते हैं, तो सत्ता तंत्र की नैतिकता समाप्त हो जाती है जो राज्य के पतन का पहला संकेत होता है।’ आजादी उपरांत यह दुःरभि संधि जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल से विस्तार लेने लगी थी। इस पुस्तक के पहले खंड में इसकी विस्तार से चर्चा की जा चुकी है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में सत्ता और अपराध मध्य रिश्तों में प्रगाढ़ता परवान चढ़ने लगी थी। नब्बे का दशक इस रिश्ते पर चढ़ी पर्दादारी की समाप्ति का शुरुआती दशक कहा जा सकता है। कांग्रेस समेत अधिकतर राजनीतिक दल खुलकर अपराधियों को न केवल संरक्षण बल्कि उन्हें विधिवत रूप से राजनीति में स्थापित करते इस दशक में नजर आते हैं।
ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी और लेखक पाॅल हेवुड भ्रष्टाचार को एक जटिल और बहुआयामी समस्या के रूप में सामने रखते हैं। भ्रष्टाचार की जटिलता को समझने के लिए वे इसे सात वर्गों में बांटते हैं। उनके अनुसार भ्रष्टाचार के सात प्रकार हैंः 1. व्यक्तिगत् भ्रष्टाचार (Individual Corruption), 2. प्राणालीगत भ्रष्टाचार (Systamatic Corruption) 3. राजनीतिक भ्रष्टाचार (Political Corruption), 4. नौकरशाही भ्रष्टाचार (Bureaucratic Corruption), 5. छोटे स्तर का भ्रष्टाचार (Petty Corrution), 6. बड़े पैमाने का भ्रष्टाचार (Grand Corruption), 7. नैतिक भ्रष्टाचार (Moral Corruption)। यह पुस्तक भारतीय व्यवस्था में कैंसर की भांति पनपे भ्रष्टाचार को और इसके व्यवस्थागत रूप लेने के कारण पैदा हुई राजनीतिक कुव्यवस्था और अपराधीकरण को समझने में सहायक है। इस पुस्तक के प्रथम खंड में संस्थागत भ्रष्टाचार और उसको मिले राजनीतिक संरक्षण पर विस्तार से बात की जा चुकी है। नब्बे के दश्का में इस भ्रष्टाचार के साथ खुले रूप में आपराधिक ताकतों का सीधे राजनीति में पर्दापण को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना जरूरी है। भारत के प्रथम उपराराष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली एस.राधाकृष्णन (बाद में भारत के द्वितीय राष्ट्रपति) ने नेहरू को आजाद भारत की सत्ता सम्भालने के तुरंत बाद लिखे अपने पत्र में भ्रष्टाचार की बाबत सतर्क रहने की सलाह देते हुए लिखा था- ‘जब तक हम उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं करते, भाई-भतीजावाद, सत्ता प्रेम, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी को जड़ से समाप्त नहीं कर देते है, जिनके चलते वर्तमान समय में हमारे देश का नाम खराब हो रहा है, हम न तो जीवन वस्तुओं का सही उत्पादन और वितरण कर पाएंगे और न ही प्रशासनिक दक्षता के मानक को ऊपर उठा पाएंगे।’ डाॅ. राधाकृष्णन की आशंका नब्बे के दशक आते-आते शत-प्रतिशत सही साबित होने लगी थी। जवाहर लाल नेहरू का राष्ट्र प्रेम, नैतिक मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा और प्रतिबद्धता और उनकी व्यक्तिगत् ईमानदारी श्रेष्ठता के उच्च मानकों पर खरी उतरती है। वे लेकिन अपने निकट सहयोगियों के नैतिक अवमूल्यन को नजरअंदाज के दोषी कहे जा सकते हैं। नेहरू अपने एक अति विश्वस्त और करीबी सहयोगी कांग्रेसी नेता प्रताप सिंह कैरों पर पंजाब प्रांत का मुख्यमंत्री रहते भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों को नजरअंदाज करते रहे थे। उनके मंत्रिमंडल में शामिल वी.के. कृष्ण मेनन और टीटी कृष्णामचारी भी आर्थिक भ्रष्टाचार के दोषी रहे लेकिन नेहरू ने अपने इन करीबियों पर लग रहे आरोपों पर उचित समय पर उचित निर्णय लिया नहीं। उन्होंने भ्रष्टाचार की बाबत एक दफा यहां तक कह डाला- ‘ Merely shouting from the housetops that everybody is corrupt creates an impression of corruption. People feel they live in a climate of corruption and they get Corrupted themselves. The man in the street says to himself: ‘Well if everybody seems corrupt, why shouldn’t I be Corrupt? That is the Climate sought to be created which must be discouraged.’
समाप्त
(यह श्रृंखला शीघ्र ही पुस्तकार सेतु प्रकाशन से आनी प्रस्तावित है।)