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Editorial

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-140: राव का अवसान काल-1

वर्ष 1994 में एक तरफ राव की सफल आर्थिक नीतियों का असर दिखने लगा था और अंतरराष्ट्रीय फलक पर प्रधानमंत्री का कद नई ऊंचाइयों को छू रहा था तो दूसरी तरफ कांग्रेस भीतर राव की नीतियों को लेकर उनके प्रति पुराने कांग्रेसियों का असंतोष चरम पर जा पहुंचा था। देश को आर्थिक बदहाली की कगार से बाहर निकालने वाले इस चाणक्य के राजनीतिक सफल के अंत का समय अब नजदीक आने लगा था। कांग्रेस भीतर मौजूद राव विरोधियों के सब्र का बांध अब उफान मारने लगा था। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता नारायण दत्त तिवारी और राव सरकार में मंत्री अर्जुन सिंह असंतुष्ट कांग्रेसियों का नेतृत्व कर रहे थे। इंदिरा और राजीव सरकार में मंत्री और चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके एन.डी. तिवारी, 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी पराजय के बाद से ही नरसिम्हा राव के खिलाफ घेराबंदी करने में जुट गए थे। राजीव गांधी की हत्या बाद प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार रहे तिवारी को राव ने पार्टी की शीर्ष निणार्यक समिति सीडब्ल्यूसी से बाहर रख पूरी तरह हाशिए में डालने का काम किया था। तिवारी और उनके समर्थक सोनिया गांधी को लगातार राव के खिलाफ उकसाने का काम करते थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस ने सोनिया गांधी को नरसिम्हाराव की बाबत सशंकित करने का काम कर ही दिया था। तिवारी और अर्जुन सिंह राव सरकार की नीतियों को नेहरू-गांधी परिवार की विरासत के खिलाफ बताने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे थे। हालांकि उनके तमाम प्रयास बाद भी सोनिया गांधी ने राजनीति से अपनी दूरी बनाए रखी थी लेकिन राव संग भी उनकी दूरियां बढ़ने लगी थी।

राजीव गांधी हत्याकांड मामले में मंथर गति से चल रही जांच से भी सोनिया राव सरकार से खासी नाराज थीं जिसका लाभ भी असंतुष्ट कांग्रेसी उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बकौल रशीद किदवई- ‘1991-96 तक पार्टी नेताओं, विशेषकर उत्तर भारत के नेताओं के एक वर्ग ने सोनिया के दरवाजे पर दस्तक देने का कोई मौका नहीं छोड़ा। सोनिया उनसे मिलती जरूर थीं, लेकिन कभी-कभार ही बोलती थीं। लेकिन असंतुष्टों को मुलाकात का मौका देकर उन्होंने यह संकेत अवश्य देने का काम किया कि वे प्रधानमंत्री की कार्यशैली को पसंद नहीं करती हैं…नेहरू के धर्मनिरपेक्ष, बहुलवाद, गुटनिरपेक्षता तथा उनकी वामपंथीय आर्थिक नीतियों को आगे रख अर्जुन सिंह, माखन लाल फोतेदार, नारायण दत्त तिवारी और अन्य ने ऐसा राजनीतिक चक्रव्यूह रचा जिसने न केवल राव और सोनिया के मध्य दूरी बढ़ाने में सफलता पाई बल्कि राव को एक घातक झटका देने में भी यह लोग सफल रहे जिसका परिणाम अंततः 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस की पराजय के रूप सामने आया।’

1994 दिसम्बर में अर्जुन सिंह ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे कांग्रेस भीतर चल रहे आंतरिक सत्ता संघर्ष को तेज कर डाला। उन्हें फरवरी 1995 में कांग्रेस से निष्कासित कर राव ने अपने विरोधियों को खुली चुनौती दे इस आंतरिक सत्ता संघर्ष की आग में घी डालने का काम किया। कांग्रेस भीतर तेज हो रहे इस सत्ता संघर्ष का बड़ा असर आर्थिक सुधारों की गति पर पड़ने लगा था। राव का लक्ष्य अब आर्थिक सुधारों से हटकर हर कीमत पर 1996 में प्रस्तावित लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करना बन चुका था। इस दौरान कई राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था जिसका एक बड़ा असर राव सरकार की उदारीकरण नीतियों पर देखने को मिलता है। फरवरी-मार्च, 1995 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में शिव सेना-भाजपा गठबंधन कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में सफल रहा था। इस गठबंधन ने एनराॅन पावर प्रोजेक्ट को चुनावी मुद्दा बना यह जीत हासिल की थी। यह दीगर बात है कि सत्तारूढ़ होने के कुछ समय बाद ही पूरी तरह से पलटी मारते हुए शिवसेना-भाजपा सरकार ने इस परियोजना को हरी झण्डी देने का काम किया था जिस पर विस्तार से चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। 1994 दिसम्बर में दक्षिण भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस को सिनेस्टार नंदमूरक तारक रामाराव (एनटीआर) की पार्टी तेलगुदेशम के हाथों तीसरी बार करारी हार का सामना करना पड़ा था। आजादी पश्चात दक्षिण भारत के जिन राज्यों में लम्बे अर्से तक कांग्रेस का वर्चस्व बरकरार रहा था, आंध्र प्रदेश उनमें से एक था। 1953 में तत्कालीन मद्रास प्रांत कर पुनर्गठन कर आंध्र प्रदेश का गठन किया गया था।

कांग्रेस यहां लगातार तीस बरस तक सत्ता में  काबिज रही थी। 1983 में लेकिन उसका यह अभेद दुर्ग एक फिल्मी सितारे द्वारा गठित नए राजनीतिक दल के हाथों परास्त हो गया। पी.वी. नरसिम्हा राव इसी प्रदेश से थे और 1972 में यहां के मुख्यमंत्री रह चुके थे। मद्रास प्रांत के पुनर्गठन बाद कांग्रेस का जमीनी आधार तमिलनाडु में कमजोर होता चला गया था और हिंदी भाषा को जबरन थोपे जाने के विरोध को जनआंदोलन का रूप देने में सफल रही द्रविण मुनेत्र कषगम (डीएमके) ने यहां की राजनीति से कांग्रेस को साठ के दशक में उखाड़ फेंका था। आंध्र प्रदेश लेकिन दक्षिण भारत में कांग्रेस का मजबूत किला अगले 30 बरस तक बना रहा जिसे 1983 में भेदने का काम तेलगु सिनेमा के महानायक नंदमूरक तारक रामाराव उर्फ एनटीआर ने किया। एनटीआर राजनीति में प्रवेश करने से पहले तेलगु सिनेमा के जरिए आंध्र प्रदेश की जनता के मनमानस में स्थापित हो चुके थे। लगभग 300 फिल्मों में अभिनय कर चुके एनटीआर को ‘विश्व विख्यानता सर्वामूता’ (विश्व विख्यात अभिनय सम्राट) कह पुकारा जाता था। 1982 में उन्होंने कांग्रेस के कथित भ्रष्ट शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प ले तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) की नींव रखी और अगले वर्ष (1983) में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए ‘तेलगु वरी आत्म गौरवम’ का नारा दे पूरे प्रदेश का भ्रमण शुरू किया। सम्भवतः यह पहली ऐसी राजनीतिक यात्रा थी जिसमें एक वाहन को रथ के रूप में तैयार किया गया था जिसमें सवार हो एनटीआर ने 75,00 किलोमीटर तक जनजागरण का काम किया। इस ‘रथ’ को ‘चैतन्य रथम्’ कह पुकारा गया। बाद के वर्षों में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस सफल यात्रा से प्रेरणा ले राम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा निकाली थी। एनटीआर की तेलगु आत्मगौरव यात्रा ने कांग्रेस का विधानसभा चुनावों में सूपड़ा साफ कर नव गठित पार्टी को 294 विधानसभा सीटों में से 202 में जीत दिलाने का काम किया और एनटीआर की पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बतौर राज्य में ताजपोशी करा दी। स्वस्थ लोकतांत्रिक परम्पराओं और मूल्यों को कांग्रेस अर्सा पहले ही त्याग चुकी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दक्षिण भारत के अपने गढ़ में मिली इस करारी शिकस्त से तिलमिला उठीं। उन्होंने मात्र कुछ माह बाद ही 15 अगस्त 1984 के दिन प्रदेश के राज्यपाल के जरिए एक बेहद अलोकतांत्रिक कदम उठाते हुए एनटी रामाराव को मुख्यमंत्री पद से हटा उनकी पार्टी के एक नेता एन. भास्कर राव को मुख्यमंत्री बना डाला। कांग्रेस के इशारे पर एन. भास्कर राव ने एटीआर के खिलाफ बगावत करते हुए तेलगुदेशम पार्टी के विधायकों की तरफ से एक पत्र तत्कालीन राज्यपाल ठाकुर राम लाल को सौंपा था जिसमें दावा किया गया था कि एनटीआर ने विधायक दल का विश्वास खो दिया है और पार्टी विधायकों ने भास्कर राव को अपना नया नेता चुन लिया है। इस पत्र की सत्यता का परीक्षण कराए बगैर ही राज्यपाल ने एनटी रामाराव के स्थान पर एन. भास्कर राव को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। एनटीआर इस दौरान अपने हृदय रोग का इलाज कराने अमेरिका गए हुए थे। अपनी ओपन हार्ट सर्जरी के तुरंत बाद वापस लौटे एनटीआर ने इस बर्खास्तगी के खिलाफ जनअभियान शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने समर्थन विधायकों की राजभवन में परेड करा यह स्पष्ट कर दिया कि उनके पास विधान दल में बहुमत है। इंदिरा गांधी लेकिन झुकने को तैयार नहीं हुईं। नतीजा एनटीआर का दोबारा अपने चर्चित ‘चैतन्य रथ’ पर सवार हो विपक्षी दलों के समर्थन से कांग्रेस, राज्यपाल और केंद्र सरकार के खिलाफ  जन अभियान की शुरुआत करना रहा जिसका इतना भारी असर और दबाव इंदिरा गांधी पर पड़ा कि उन्हें ठाकुर राम लाल को राज्यपाल पद से हटाना पड़ा था और नए राज्यपाल शंकर दयाल शर्मा के जरिए एनटीआर को मुख्यमंत्री बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा था। अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को इस हत्या से उपजी जन सहानुभूति का भारी लाभ मिला आंध्र प्रदेश को छोड़ पूरे देश में था। आंध्र में लेकिन एनटी रामाराव का जादू तेलगुदेशम पार्टी को 42 में से 30 सीटें जीत पाने में सफल रहा था और टीडीपी लोकसभा में सबसे बड़ा विपक्षी दल बन उभरी थी। एनटीआर ने 1985 में राज्य में मध्यावधि चुनाव करा दोबारा से जनादेश हासिल किया था। 1989 के विधानसभा चुनाव लेकिन वे हार गए थे और एक बार फिर से राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी थी। इस हार के बाद एनटीआर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत कर विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुख्य रणनीतिकार बन उभरे। 1994 में जब आंध्र प्रदेश का नेता ही देश का प्रधानमंत्री था, राज्य विधानसभा चुनाव कांग्रेस हार गई। इस हार ने नरसिम्हा राव के विरोधियों का हौसला बुलंद करने और राव सरकार की आर्थिक नीतियों की गति को कम करने का काम किया।

राव अब हर कीमत पर 1996 के लोकसभा चुनाव जीतने की रणनीति पर काम करने लगे थे। 1991 से 1995 तक हुए विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार ने राव को स्पष्ट कर दिया था कि उदारीकरण की उनकी नीतियों ने भले ही देश को आर्थिक दलदल से बाहर निकालने और अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने का काम कर दिखाया हो, आम जनता की स्थिति में इन सुधारों का असर और लाभ नहीं पहुंच पाया है। उन्होंने अब जनकल्याणकारी योजनाओं को विस्तार देने का प्रयास शुरू किया। जन वितरण प्रणाली व्यवस्था पहले से देश में लागू थी। इस व्यवस्था के जरिए गरीबों तक सस्ता अनाज, तेल इत्यादि सरकारी तंत्र के जरिए पहुंचाया जाता था। काला बाजारी और भ्रष्टाचार चलते यह योजना पूरी तरह बदहाल हो चुकी थी। राव ने इस जनवितरण प्रणाली में सुधार का प्रयास करते हुए देश के सबसे गरीब जिलों को चिन्हित कर वहां एक नई व्यवस्था लागू की जिसके अंतर्गत चावल और गेहूं को सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों से भी कम कीमत पर उपलब्ध कराया गया था। इस योजना को भ्रष्टाचार एवं दलालों-कालाबाजारियों से मुक्त रखने के उद्देश्य से सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय की देखरेख में लागू किया गया था। बेरोजगारी की समस्या का आंशिक समाधान निकालते हुए राव सरकार ने ‘रोजगार गारंटी’ योजना की भी नींव रखी थी। इस योजना के अंतर्गत हरेक गरीब बेरोजगार को सौ दिन का काम दिए जाने का प्रावधान था। राव सरकार ने देश के सबसे गरीब और पिछड़े जिलों में इस योजना को लागू किया था। 2005 में इसी योजना का विस्तार ‘मनरेगा’ (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी) के रूप में सामने आया। राव की यह दोनों कल्याणकारी योजनाएं लेकिन न तो कारगर साबित हो पाईं और न ही इन योजनाओं का चुनावी लाभ कांग्रेस ले पाने में सफल रही थी। मई, 1995 में कांग्रेस भीतर चल रहा सत्ता संघर्ष सड़क पर आ गया था। अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी के नेतृत्व में कई वरिष्ठ कांग्रेसियों ने राव के खिलाफ बगावत करते हुए नए राजनीतिक दल कांग्रेस (टी- तिवारी) के गठन का ऐलान कर दिया। हालांकि सोनिया गांधी ने कांग्रेस में हुई इस टूट से स्वयं को अलग रखने का प्रयास किया लेकिन राव विरोधी कांग्रेसियों का सोनिया के लगातार सम्पर्क में रहना इस धारणा का आधार बना था कि कांग्रेस (टी) के नेताओं को उनका समर्थन था- ‘सोनिया लगातार इस बात से इनकार करती रहीं कि मई 19 को कांग्रेस में हुई टूट में उनकी कोई भूमिका थी। उनका सीधे भले ही इस टूट के पीछे हाथ न रहा हो, सामान्य धारणा यही है कि उन्होंने राव विरोधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया। नरसिम्हा राव के पूरे कार्यकाल दौरान 10 जनपथ (सोनिया गांधी का अधिकारिक निवास) एक शक्ति केंद्र के रूप में राव विरोधियों की बातों को सुनता रहा।’

राव 1995 के अंतिम चरण में खासे बेचैन और हर कीमत पर अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए व्यग्र रहने लगे थे। उनकी इस व्यग्रता का नतीजा 16 जनवरी 1996 के दिन उच्चतम न्यायालय में एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान देखने को मिलता है। इस मुकदमे ने तत्कालीन राजनीति में भूचाल लाने का काम किया था। इसे ‘जैन हवाला डायरी’ कांड के नाम से जाना जाता है। नरसिम्हा राव ने 16 जनवरी के दिन ऐसा क्या किया जिससे भारी बवाल मच गया। इसे जानने से पहले इस मामले के शुरुआती काल में जाना
होगा।

क्रमशः

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