प्रधानमंत्री राव को भी आशंका थी कि कल्याण सिंह सरकार उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रीय एकता परिषद के सम्मुख दिए गए आश्वासनों का सम्मान नहीं करना चाहती है। उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले को एक गोपनीय योजना तैयार करने के निर्देश दिए थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार विवादित परिसर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले किया जा सके। गोडबोले ने अपनी पुस्तक ‘Unfinished Innings: Recollections and Reflections of a Civil Servent’ में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है। नरसिम्हा राव ने लेकिन माधव गोडबोले की गोपनीय रिपोर्ट में दिए गए सुझावों पर अमल करने की कोई चेष्टा नहीं की। वे उच्चतम न्यायालय के भरोसे बैठे रहे जहां कल्याण सिंह सरकार ने 28 नवम्बर को हलफनामा देकर न्यायालय को आश्वस्त किया था कि ‘कार सेवा के नाम पर कोई भी निर्माण कार्य नहीं होने दिए जाएंगे और यह कार सेवा श्रद्धालुओं की भावना का सम्मान करते हुए केवल सांकेतिक होगी। उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेशों के अनुपालन और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दायर हलफनामे पर नजर रखने के लिए मुरादाबाद जनपद के तत्कालीन जिला न्यायालय को विशेष पर्यवेक्षक नियुक्त किया था। जमीनी स्तर के हालात लेकिन स्पष्ट इशारा कर रहे थे कि कल्याण सिंह सरकार का इरादा नेक नहीं है। उस समय के दैनिक समाचार पत्रों ने भी कहना शुरू कर दिया था कि उच्चतम न्यायालय को दिए गए वचनों का पालन कल्याण सिंह करने वाले नहीं हैं। ऐसा ही हुआ भी। 6 दिसम्बर की सुबह कार सेवा शुरू होने के समय लगभग दो लाख विहिप समर्थक अयोध्या पहुंच चुके थे
कल्याण सिंह की कथनी और करनी में लेकिन जमीन-आसमान का अंतर था। फरवरी 1992 में सरकार द्वारा मस्जिद परिसर के आस-पास अधिग्रहित की गई जमीन पर सरकार द्वारा चाहरदिवारी बनाने का काम शुरू कर दिया। इसे राम दीवार का नाम दे यह भी स्पष्ट संकेत कल्याण सिंह सरकार ने दे डाले कि उसकी मंशा क्या है। मार्च से मई 1992 के मध्य विवादित परिसर के आस-पास बने कई भवनों जिनमें प्राचीन संकटमोचन मंदिर, सुमित्रा भवन, कई दुकानें और साक्षी गोपाल मंदिर (इसी मंदिर में राम लला की मूर्ति रखी गई थी) के कुछ हिस्से को ध्वस्त कर दिया। मई 1992 से विवादित परिसर के चारों तरफ बड़े स्तर पर खुदाई का काम भी राज्य सरकार ने कराना शुरू कर दिया जिससे बाबरी मस्जिद की बुनियाद कमजोर होने की आशंका बलवती हो गई। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी व अन्य पक्षकारों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस खुदाई को तत्काल रोकने की याचिका दायर की जिसे न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया। 9 जुलाई 1992 को विश्व हिंदू परिषद ने उच्च न्यायालय के आदेशों की खुली अवहेलना करते हुए विवादित परिसर के समीप एक विशाल गेट जिसे ‘सिंह द्वार’ का नाम दिया गया, का निर्माण शुरू कर दिया। ‘सिंह द्वार’ को मंदिर का मुख्य द्वार विहिप द्वारा प्रचारित किया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस निर्माण कार्य को तत्काल रोकने के आदेश 15 जुलाई 1992 को जारी किए लेकिन कल्याण सिंह सरकार ने इस आदेश को लागू करने का प्रयास तक नहीं किया। बाबरी मस्जिद के पैरोकारों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। उच्चतम न्यायालय ने 23 जुलाई को तत्काल निर्माण कार्यों को रोके जाने का आदेश दिया। कल्याण सिंह तब तक इस मुद्दे को राजनीतिक रंग देने का पूरा मन बना चुके थे। उच्चतम न्यायालय के आदेश बाद उन्होंने नया दांव चल दिया। राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री से अनुरोध किया कि निर्माण कार्यों को रोकने के लिए केंद्र सरकार पहल करे। एक तरह से कल्याण सिंह ने न्यायालय के आदेश को लागू कर पाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी थी। प्रधानमंत्री राव ने उत्तर प्रदेश सरकार के अनुरोध पर हिंदू धर्म गुरुओं संग बातचीत की जिसके बाद ही 26 जुलाई, 1992 से निर्माण कार्यों को रोका जा सका था। अगस्त से अक्टूबर 1992 के मध्य केंद्रीय गृह मंत्री की अध्यक्षता में विश्व हिंदू परिषद एवं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच इस विवाद का सवज़्मान्य हल निकालने के लिए कई दौर की वार्ता हुई। अभी वाताओज़्ं का दौर जारी ही था कि विश्व हिंदू परिषद ने यकायक ही एकतरफा फैसला लेते हुए 6 दिसम्बर, 1992 से निर्माण कार्य दोबारा शुरू किए जाने का ऐलान कर दिया।
बकौल नरसिम्हा राव-‘सौहार्द पूर्व माहौल में चल रही वार्ता के दृष्टिगत यह अप्रत्याशित कदम था…इस घोषणा का केवल एक ही अर्थ निकलता है कि इस एक पक्षीय निर्णय का उद्देश्य वाताज़् को बाधित करना और उच्चतम न्यायालय की मध्यस्थता को रोकना था ताकि एक बार फिर से विवाद की स्थिति पैदा हो जाए।) विपक्षी दलों ने विश्व हिंदू परिषद के इस फैसले बाद राव सरकार पर कल्याण सिंह को बर्खास्त कर उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के लिए भारी दबाव बनाना शुरू कर दिया। राव ने 23 नवम्बर को राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक आहूत की। भाजपा ने इस बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया था। भाजपा के वरिष्ठ नेता, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, संघ प्रमुख राजेंद्र सिंह और महंत अवैधनाथ सरीखे नेता इस दौरान खुलकर विश्व हिंदू परिषद के पक्ष में बयानबाजी कर माहौल को खासा साम्प्रदायिक बनाने में जुट गए। राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को संविधान की रक्षा एवं कानून व्यवस्था बनाए रखने तथा न्यायालय के आदेशों की रक्षा करने के लिए सभी दलों द्वारा सहयोग एवं समर्थन दिए जाने की बात कही गई थी। राष्ट्रीय दलों के खुले समर्थन बाद भी नरसिम्हा राव ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त करने और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शासन लगाए जाने का निर्णय नहीं लिया। नतीजा रहा 6 दिसम्बर की कलंकपूर्ण घटना। ऐसी घटना जिसने भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार करने और सामाजिक सौहार्द की नींव को तार-तार करने का काम कर दिखाया था। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों द्वारा प्रधानमंत्री को लगातार आगाह किया जा रहा था कि विवादित मस्जिद परिसर की सुरक्षा खतरे में है और विश्व हिंदू परिषद का इरादा 6 दिसम्बर को कारसेवा के बहाने मस्जिद को ध्वस्त करने का है-‘आईबी ने उस नवम्बर दो रिपोर्ट भेजी थी। पहली रिपोर्ट में कहा गया था कि मस्जिद खतरे में है लेकिन इस रिपोर्ट में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की सलाह नहीं थी। दूसरी रिपोर्ट जो दिसम्बर की शुरुआत में भेजी गई, में उन अफवाहों का जिक्र था जिनके अनुसार विश्व हिंदू परिषद एक आत्मघाती दस्ते को तैयार कर रही है जो धमाका कर मस्जिद को 6 दिसम्बर के दिन ध्वस्त कर देगा।’
प्रधानमंत्री राव को भी आशंका थी कि कल्याण सिंह सरकार उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रीय एकता परिषद के सम्मुख दिए गए आश्वासनों का सम्मान नहीं करना चाहती है। उन्होंने तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले को एक गोपनीय योजना तैयार करने के निर्देश दिए थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर केंद्र सरकार विवादित परिसर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले किया जा सके। गोडबोले ने अपनी पुस्तक ‘Unfinished Innings:
Recollections and Reflections of a Civil Servent’ में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है। नरसिम्हा राव ने लेकिन माधव गोडबोले की गोपनीय रिपोर्ट में दिए गए सुझावों पर अमल करने की कोई चेष्टा नहीं की। वे उच्चतम न्यायालय के भरोसे बैठे रहे जहां कल्याण सिंह सरकार ने 28 नवम्बर को हलफनामा देकर न्यायालय को आश्वस्त किया था कि ‘कार सेवा के नाम पर कोई भी निर्माण कार्य नहीं होने दिए जाएंगे और यह कार सेवा श्रद्धालुओं की भावना का सम्मान करते हुए केवल सांकेतिक होगी। उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेशों के अनुपालन और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दायर हलफनामे पर नजर रखने के लिए मुरादाबाद जनपद के तत्कालीन जिला न्यायालय को विशेष पर्यवेक्षक नियुक्त किया था। जमीनी स्तर के हालात लेकिन स्पष्ट इशारा कर रहे थे कि कल्याण सिंह सरकार का इरादा नेक नहीं है। उस समय के दैनिक समाचार पत्रों ने भी कहना शुरू कर दिया था कि उच्चतम न्यायालय को दिए गए वचनों का पालन कल्याण सिंह करने वाले नहीं हैं। ऐसा ही हुआ भी। 6 दिसम्बर की सुबह कार सेवा शुरू होने के समय लगभग दो लाख विहिप समर्थक अयोध्या पहुंच चुके थे। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती इत्यादि भी मौके पर मौजूद थे। केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकार की मदद के लिए भेजे गए अर्द्ध सैनिक बलों को विवादित परिसर के आस-पास भटकने तक नहीं दिया गया था। लगभग 12.20 मिनट पर यकायक ही पुलिस का घेरा तोड़ 80 के करीब कार सेवक बाबरी मस्जिद के गुंबदों में चढ़ गए। स्थानीय पुलिस बल ने इन कार सेवकों को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। इसके बाद भाजपा और विहिप के शीर्ष नेतृत्व की उपस्थिति में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने की शुरुआत हुई। शाम 4:30 बजे तक मस्जिद का ढांचा पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया गया। इस बीच लगभग दो बजे के बाद से ही देश भर में साम्प्रदायिक दंगे शुरू होने लगे थे। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की नींद अब जाकर पूरी तरह टूटी। 6 बजे केंद्रीय मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई गई जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने का फैसला लिया गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा को तत्काल ही भंग करते हुए रात 9:10 मिनट पर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के तुरंत बाद देशभर में कौमी दंगे शुरू हो गए थे। मुम्बई, सूरत, अहमदाबाद, भोपाल, दिल्ली, कानपुर और फैजाबाद में बड़े पैमाने पर हुए इन दंगों में 2000 से अधिक जिसमें अधिकतर मुसलमान थे, मारे गए और हजारों करोड़ की सम्पत्ति स्वाह हो गई। दिसम्बर 1992 और जनवरी 1993 में अकेले बम्बई (अब मुम्बई) शहर में 900 से अधिक जानें इन दंगों की भेंट चढ़ गई थी। शिवसेना इन दंगों के पीछे रही। मार्च 1993 में अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद अब्राहिम के सहयोग से बम्बई (अब मुंबई) में बड़ी आतंकी घटना को अंजाम दिया गया। 12 मार्च, 1993 को 12 बम धमाकों ने पूरे शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। 257 की इन धमाकों में मौत हुई और 1400 से अधिक घायल हुए थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच के लिए राव सरकार ने न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था जिसने 16 बरस बाद 30 जून 2009 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में 68 लोगों को षड्यंत्रकारी बताते हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस को एक सोची-समझी साजिश करार दिया गया। इन 68 लोगों मेें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह का नाम शामिल है। आयोग ने भाजपा की त्रिमूर्ति (अटल- आडवाणी-मुरली मनोहर को ‘छद्म उदारवादी’ करार देते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा- ‘इन राजनेताओं ने आमजन के विश्वास को तोड़ा। इनके द्वारा उठाए गए कदम मतदाताओं के मनोकूल नहीं थे, बल्कि एक समूह विशेष (आरएसएस) द्वारा निर्धारित किए गए थे। इस समूह ने आमजन की इच्छा के विपरीत अपने एजेंडे को लागू करने के लिए इन नेताओं का उपयोग किया। लोकतंत्र में इससे बड़ा विश्वासघात अथवा अपराध और कुछ हो नहीं सकता। इस आयोग को इन छद्म उदारवादियों की उनके पापों के लिए निंदा करने में कोई संकोच नहीं है।’