प्रधानमंत्री के करीबी मित्र और सलाहकार भी इस कदम के हिमायती नहीं थे। अंग्रेजी पत्रिका ‘मेनस्ट्रीम’ के सम्पादक निखिल चक्रवर्ती नरसिम्हा राव के नजदीकी मित्र थे। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश, जो नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री कार्यालय में उस दौरान विशेष कार्यधिकारी थे, ने इस बाबत अपनी पुस्तक में लिखा है- ‘पदभार ग्रहण करने के दो अथवा तीन दिन बाद राव ने मुझे बताया कि ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका के सम्मानित सम्पादक निखिल चक्रवर्ती उनसे मिले हैं और उन्होंने अवमूल्यन को हर कीमत पर न करने की सलाह है। उन्होंने (चक्रवर्ती) यह भी प्रधानमंत्री को कहा है कि ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री डाॅ. अर्जुन सेन गुप्ता जो इंदिरा गांधी के साथ 1981-84 तक काम कर चुके हैं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में भारत के अधिशासी निदेशक रह चुके हैं, इस मुद्रा अवमूल्यन को पूरी तरह गैर जरूरी मानते हैं।’
नरसिम्हा राव के वित्त मंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह लेकिन अपनी बात पर अड़े रहे। अंततः राव ने उन्हें मुद्रा अवमूल्यन करने की इजाजत दे डाली। 1 जुलाई, 1991 को अमेरिकी डालर एवं अन्य महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपए को 7-9 प्रतिशत तक कम कर दिया गया। विपक्षी दलों ने जैसा अपेक्षित था इस मुद्रा अवमूल्यन को भारतीय हितों के खिलाफ बताया तो दूसरी तरफ खुली अर्थव्यवस्था के पैरौकारों ने इसे राव सरकार का साहसिक कदम करार दिया। वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने 1 जुलाई को तो मात्र टेªलर जारी किया था, पिक्चर अभी बाकी थी। मनमोहन सिंह ने 3 जुलाई को दूसरी बार मुद्रा अवमूल्यन करने का फैसला लिया था। उनकी राजनीति ‘जोर का झटका धीरे से लगे’ की थी। 2 जुलाई को उन्होंने विपक्षी दलों की आलोचना से विचलित प्रधानमंत्री को एक लिखित सुझाव भेजा जिसमें उन्होंने राव को सलाह दी कि वे मुद्रा अवमूल्यन को ज्यादा महत्व न देते हुए इसे एक रोजमर्रा की घटना के बतौर सामने रखें। मनमोहन सिंह ने अपने इस सुझाव में लिखा था-‘हम तैरती हुई मुद्राओं की दुनिया में रह रहे हैं। दुनिया की अधिकांश मुद्राएं दैनिक आधार पर तैर रही हैं। किसी दिन विनिमय दरें ऊपर जाती हैं तो अगले ही दिन नीचे आ जाती हैं। भारत इस नियम का अपवाद नहीं है…हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत सही रखने और भुगतान संतुलन को संतुलित रखने के लिए पूरी शक्ति लगा देंगे।’
3 जुलाई, 1991 को दूसरी बार मनमोहन सिंह ने भारतीय रुपए का अवमूल्यन कर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को यह भरोसा दिला दिया कि अब भारत स्पष्ट रूप से खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने की राह पकड़ चुका है। मात्र दो दिनों के भीतर भारतीय रुपया डालर व अन्य महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में 18 प्रतिशत कम कर दिया गया। जैसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को आशंका थी, विपक्षी दलों के साथ-साथ कांग्रेस भीतर मौजूद समाजवादी विचारधारा वाले नेताओं को राव का यह कदम खासा नागवार गुजरा। मनमोहन सिंह ने विपक्षी दलों और कांग्रेस भीतर राव विरोधियों को करारा जवाब देते हुए तब मुद्रा अवमूल्यन को लेकर कई साक्षात्कार दिए थे। ख्याति प्राप्त पत्रकार, शिक्षाविद् और लेखक परजंय गुहा ठाकुरता, जिन्हें इन दिनों (2023 में) कई केंद्रीय एजेंसियों की जांच का शिकार होना पड़ रहा है, ने अंग्रेजी पत्रिका ‘संडे’ के लिए जुलाई 1991 में डाॅ. मनमोहन सिंह का साक्षात्कार लिया था। इस साक्षात्कार में डॉ. सिंह ने मुद्रा अवमूल्यन की जोरदार वकालत करते हुए कहा था-‘हम, इस देश में, कुछ भ्रमों के साथ जी रहे हैं- हमारे अर्थशास्त्री इसके लिए जिम्मेदार हैं- यह भ्रम है कि अवमूल्यन अनैतिक और राष्ट्रविरोधी है। पूरी दुनिया में देख लें, पिछले वर्ष सोवियत संघ और चीन ने भी बड़े पैमाने पर अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया…विनियम दर सिर्फ एक कीमत है। यदि आप बेचने के व्यवसाय में हैं तो आपकी कीमत बाजार के साथ प्रतिस्पर्धा अनुसार होनी चाहिए।’
संसद में मुद्रा अवमूल्यन को लेकर विपक्षी दलों ने सरकार को आड़े हाथों लेने का प्रयास तब किया था लेकिन वित्त मंत्री ने अपने स्पष्टीकरण में राव सरकार का शानदार बचाव कर यह संकेत दे दिया कि एक अर्थशास्त्री अब राजनेता बनने की राह पकड़ चुका है। 16 जुलाई, 1991 को राज्यसभा में इस मुद्दे पर तीखी बहस हुई। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास गुप्ता ने वित्त मंत्री से जानना चाहा कि क्या मुद्रा अवमूल्यन के बाद भारत का निर्यात बढ़ेगा? और क्या अधिक निर्यात के चलते संतुलन बनाए रखने के लिए भारत का आयात भी बढ़ेगा? दास गुप्ता ने यह भी प्रश्न किया कि क्या अवमूल्यन अप्रवासी भारतीयों और विश्व बैंक के दबाव में लिया गया?। डॉ. मनमोहन सिंह इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया उससे समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव द्वारा बतौर वित्त मंत्री एक अर्थशास्त्री को नियुक्त करना कितना सही निर्णय था। डॉ. सिंह ने कहा-‘दबाव में आकर काम करने का सवाल ही नहीं उठता है। प्रश्न का पहला भाग है कि क्या मुद्रा अवमूल्यन के बाद निर्यात में वृद्धि होगी? माननीय सदस्य ने पूर्व के कई उदाहरण सामने रखें हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि इस देश में अति दक्षिणपंथियों और अति वामपंथियों के मध्यम दुरभि संधि सी प्रतीत होती है। दोनों ही अवमूल्यन को अनैतिक और राष्ट्र विरोधी करार देते हैं ऐसा लेकिन है नहीं। यदि आप भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पूरा इतिहास देखें तो पाएंगे कि हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने इस पूरे काल में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारतीय रुपए की विनिमय दर को अत्याधिक अधिक रखने का लगातार विरोध किया था। ब्रिटिश भारतीय रुपए की विनिमय दर अधिक क्यों रखना चाहते थे? इसलिए क्योंकि वह इस देश को पिछड़ा रखना और यहां औद्योगिकरण नहीं होते देखना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि भारत केवल सामान्य वस्तुओं का ही निर्यात करे जिसका सभी भारतीय अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया था। यदि आप 1900 से 1947 तक का हमारा इतिहास देखें तो आपको स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे अर्थशास्त्रियों ने ब्रिटिश सत्ता से लगातार गुहार लगाई थी कि भारतीय रुपए की विनियम दर इतनी भी अधिक न रखी जाए कि भारत निर्यात कर ही न सके और न ही उसका औद्योगिकरण हो सके। मुझे आश्चर्य है कि जिस निर्णय का उद्देश्य भारतीय निर्यात को बढ़ाना और औद्योगिकरण को तेज करना है, उसको ही राष्ट्र विरोधी निर्णय कहा जा रहा है।’
मुद्रा अवमूल्यन के तुरंत बाद राव सरकार ने बदहाल आर्थिकी को पटरी में लाने के लिए कड़े आर्थिक सुधार उठाने शुरू किए। इनकी शुरूआत निर्यातकों को दी जाने वाली विशेष रियायतों को समाप्त करने से की गई। 1966 में निर्यात को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कैश कम्पनसेटरी स्पोर्ट (Cash Compensatory Suport) नीति लागू की थी जिसके अंतर्गत निर्यातकों को उनके उत्पाद पर लगने वाले अप्रत्यक्ष करों से राहत देते हुए ऐसे सभी करों को नकदी में वापस कर दिया जाता था। राव सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की बरअक्स भारतीय रूपए की कीमत तय करने के बाद इस नीति को समाप्त करने का बड़ा निर्णय लिया। निर्यातकों को प्रोत्साहित करने के लिए एक नई नीति बनाई गई जिसके अंतर्गत उन्हें ऐसी वस्तुओं को आयात करने की छूट दी गई जिन्हें सामान्यः आयात करने पर प्रतिबंध था। राव की पूर्ववत्र्ती चंद्रशेखर सरकार वार्षिक बजट संसद में पेश करने से पहले ही गिर गई थी। नई सरकार पर 1991-92 का वार्षिक बजट तैयार करने की जिम्मेदारी आॅन् पड़ी थी। 24 जुलाई, 1991 को मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री अपना पहला बजट संसद में पेश किया था। इस बजट की तैयारियों के दौरान ही नरसिम्हा राव ने देश की उद्योग नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर लाइसेंस राज को समाप्त करने का फैसला लिया। बतौर प्रधानमंत्री राव ने उद्योग निजी क्षेत्र के लिए हरेक क्षेत्र के दरवाजे खोल लाइसेंस राज की समाप्ति की तरफ बड़ी छलांग लगा डाली। नई नीति के अंतर्गत विदेशी पूंजी निवेश की सीमा 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत कर दी गई। यह एक बेहद बड़ा और क्रांतिकारी कदम था। आजादी उपरांत सत्ता में आई कांग्रेस ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की समाजवादी पूंजीवाद के दर्शन को आगे रख अपनी नीतियां बनाई थीं। नेहरू सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने के पक्षधर थे। उनके शासनकाल के दौरान एक से बढ़कर एक सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए गए थे। नरसिम्हा राव सरकार की औद्योगिक नीति नेहरू की समाजवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से पूरी तरह अलग थी। कांग्रेस भीतर इस नीति को लेकर भारी असंतोष पैदा होने लगा था। अल्पमत की सरकार चला रहे राव ने बजट से पहले जब इस नई नीति को मंत्रिमंडल की बैठक में रखा तो उनको भारी विरोध का सामना करना पड़ा। परंपरावादी कांग्रेसी, विशेषकर राव के प्रधानमंत्री बनने से नाखुश वरिष्ठ मंत्रियों- अर्जुन सिंह और माखनलाल फोजेदार ने इस नीति को नेहरू के बताए मार्ग से भटकने की संज्ञा दे डाली।
साम, दाम, भेद, माया, उपेक्षा और दंड
नरसिम्हा राव कई भाषाओं के ज्ञाता थे। सरकार गठन के तुरंत बाद संसद में अपना बहुमत साबित करते समय 15 जुलाई 1991 के दिन लोकसभा में राव ने विपक्षी दलों से राष्ट्रीय संकट के समय एकजुटता दिखाने का आह्वान करते हुए संस्कृत की एक कहावत कही थी-
‘सर्वनाशे समुत्पन्ने हि अर्घ्यं त्यजति दण्डितः
अर्धेन कुरुते कार्य सर्वनाशो हि दुसहः।।
अर्धेन कुरुते कार्य सर्वनाशो हि दुसहः।।
अर्थात सर्वनाश को नजदीक देख विद्वान व्यक्ति बचा हुआ आधा काम छोड़ जो आधा काम किया होता है, उसी को समाधान मान आचरण करता है। सर्वनाश सह पाना बेहद कठिन होता है। राव के कहने का अर्थ था कि देश वित्तिय सर्वनाश की कगार पर खड़ा है, ऐसे में जो समाधान संभव है उसे स्वीकारने में ही सबका हित है। नरसिम्हा राव अर्थशास्त्र के महाज्ञाता चाणक्य की नीतियों अनुसार आचरण करने के लिए याद किए जाते हैं। अपनी पुस्तक ‘अर्थशास्त्र’ में चाणाक्य (कौटिल्य) ने राजा को समय, काल और परिस्थिति अनुसार साम,दाम, भेद, माया, उपेक्षा दण्ड की नीति अपनाने को कहा हैं। साम से अर्थ विरोधी की सच्ची अथवा झूठी प्रशंसा कर उसे वश में करना, दाम से तात्पर्य शत्रु के रहस्यों को जान उसे उसका भय दिखाकर काबू में रखना, माया से तात्पर्य शत्रु को रिश्वत देकर अपना बनाना, उपेक्षा का अर्थ है कमजोर शत्रु की बातों पर ध्यान न देना और दण्ड अर्थात जरूरत पड़ने पर शत्रु पर राजशक्ति के जरिए हमला करना है। नरसिम्हा राव ने बतौर प्रधानमंत्री इस नीति का जमकर सहारा लिया। मंत्रिमंडल की बैठक में जब सरकार की प्रस्तावित औद्योगिक नीति का वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा विरोध किया गया तो राव ने अगली बैठक से पहले नीति में संशोधन की बात कही जरूर लेकिन बगैर कोई संशोधन किए ही इसे लागू करने के लिए कूटनीति का ऐसा जाल बिछाया कि राव का विरोध कर रहे मंत्रियों को अपनी सहमति देनी पड़ी। बकौल जयराम रमेश प्रधानमंत्री ने उन्हें इस नीति की उद्घोषिका में नेहरू के दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुए इसे नेहरू की नीति का ही विस्तार साबित करने को कहा। जयराम रमेश ने ठीक ऐसा ही किया भी। उन्होंने इन नई नीति को नेहरू की नीति का विस्तार बताते हुए इसे ‘निरंतरता के साथ बदलाव’ बताया। नई नीति की उद्घोषिका में लिखा गया-‘पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी। उनकी दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प ने आजादी उपरांत राष्ट्रीय महत्व के हर पहलु पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। यह उनके ही प्रयासों का नतीजा है कि भारत अब एक मजबूत और विविध औद्योगिक आधार वाला दुनिया का एक प्रमुख औद्योगिक राष्ट्र है…वर्तमान औद्योगिक नीति नेहरू के दृष्टिकोण से प्रेरित है और इस महत्वपूर्ण चरण में राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण के लक्ष्य को पाने की दिशा में एक नई पहल है…सरकार की नीति परिवर्तन के साथ निरंतरता की नीति है।) राव की कूटनीति रंग लाई और उनके मंत्रिमंडल ने नई उद्योग नीति को नेहरू के दूरदृष्टि का विस्तार मानते हुए अपनी सहमति दे दी। इस नई नीति ने निजी पूंजी निवेश और विदेशी पूंजी निवेश के लिए मार्ग खोल दिया। उड्ययन क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश इसी नीति का परिणाम है। 1993 में पहली निजी एयरलाइन जेट एयरवेज ने इसी नीति के चलते उड़ान भरी थी। दमानिया एयरवेज, ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस, सहारा एयरलाइंस और मोदी लुफ्त एयरलाइन का भारतीय आकाश में उड़ान भरना राव सरकार की ही देन रही।
क्रमशः