पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ का विवादों संग नाता उनकी सेवानिवृत्ति बाद भी नहीं छूट रहा है। ताजा विवाद की शुरुआत पटना उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश राकेश कुमार के एक शिकायती पत्र से हुई है जो उन्होंने राष्ट्रपति को लिखा, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने 1 जुलाई 2023 को तीस्ता सीतलवाड़ की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान ‘हाइपरएक्टिविटी’ दिखाते हुए उसी दिन दो बार विशेष पीठों का गठन किया और अंततः उन्हें जमानत दिलवाई। यह आरोप लगाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट की छुट्टियों के दौरान इतनी तत्परता पूर्वग्रह और पद के दुरुपयोग का प्रतीक है। उन्होंने राष्ट्रपति से अनुरोध किया है कि इस प्रकरण की सीबीआई जांच करवाई जाए। अब खबर यह है कि राष्ट्रपति ने इस शिकायत को गम्भीर मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं और फाइल विधि मंत्रालय होते हुए कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (DoPT) को भेज दी गई है, जो न्यायिक सेवा से जुड़े मामलों को देखता है।
यहां दो चिंताएं उभरती हैं- पहली, क्या यह जांच वास्तव में न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का ईमानदार प्रयास है या फिर यह एक रिटायर्ड सीजेआई को लक्ष्य बनाकर पूरी न्यायपालिका को अनुशासित करने की एक रणनीति है? दूसरी चिंता यह है कि क्या न्यायमूर्ति चंद्रचूड़, जिनसे जनता को एक प्रगतिशील, संवेदनशील और निर्भीक न्यायिक दृष्टिकोण की उम्मीद थी, वे वास्तव में उस कसौटी पर खरे उतरे?
पहली बात पर विचार करें तो यह स्पष्ट है कि ‘Master of the Roster’ यानी किस केस को कब, किस पीठ में सुना जाएगा, इसका अधिकार केवल भारत के प्रधान न्यायाधीश को है। इसी अधिकार के अंतर्गत वे किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में विशेष पीठ गठित कर सकते हैं, यहां तक कि कोर्ट की छुट्टियों या मध्यरात्रि को भी। अतीत में कई बार याकूब मेमन की फांसी, आपातकालीन नागरिक स्वतंत्रता के मामलों, प्रेस की स्वतंत्रता या लोकतंत्र के मूल ढांचे की रक्षा के लिए ऐसी अदालती तत्परता दिखाई गई है। अतः चंद्रचूड़ द्वारा तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में पीठ गठित करना तकनीकी रूप से संविधान के अनुरूप था। किंतु यदि अब यही विवेक प्रयोग न्यायिक अपराध मान लिया जाए, तो यह अत्यंत चिंताजनक परंपरा की शुरुआत होगी। इससे भविष्य में कोई भी प्रधान न्यायाधीश अपने विवेक का प्रयोग करने से पूर्व संस्थागत प्रतिशोध की आशंका से ग्रस्त रहेगा।
दूसरी ओर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के पूरे कार्यकाल पर दृष्टि डालें तो कई सवाल खड़े होते हैं। वे बार-बार इस बात पर बल देते रहे कि ‘बेल नियम है, जेल अपवाद।’ वे कहते रहे कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ सरकार के खिलाफ निर्णय देना नहीं होता। उन्होंने इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के दबाव की भी खुलकर आलोचना की और बार-बार न्यायिक विवेक, नैतिक साहस और संवैधानिक प्रतिबद्धता की बातें कीं। परंतु जब इसी दौरान देखा गया कि कुछ चुनिंदा विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों को बेल, विशेष सुनवाई, या संवेदनशील मामलों में राहत मिलती रही, वहीं दूसरी ओर अनेक याचिकाएं लंबित ही रहीं, तो जनता के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक हो गया कि क्या यह न्यायिक निष्पक्षता है या चयनात्मक सक्रियता?
इस संदेह को और बल मिला जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो उस समय कार्यरत प्रधानमंत्री थे, चंद्रचूड़ के घर गणेश पूजन के अवसर पर पहुंचे। यह आयोजन सम्भवतः धार्मिक आस्था से प्रेरित निजी समारोह रहा होगा, परंतु जब एक कार्यरत प्रधान न्यायाधीश अपने घर में प्रधानमंत्री की उपस्थिति में सार्वजनिक रूप से पूजा का आयोजन करता है, तो यह दृश्य न्यायपालिका की निष्पक्षता की सार्वजनिक छवि को प्रभावित करता है। भारतीय संविधान में न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र माना गया है, परंतु ऐसी घटनाएं यह विभाजन रेखा धुंधली कर देती हैं।
अब यदि हम इस जांच को केवल तकनीकी नजरिए से देखें तो यह तर्क दिया जा सकता है कि किसी भी पूर्व पदाधिकारी के आचरण की समीक्षा संविधान सम्मत है। लेकिन यह जांच किन मंशाओं से प्रेरित है, इसका मूल्यांकन अधिक आवश्यक है। यदि यह जांच निष्पक्ष, तथ्यपरक और पारदर्शी होगी, तो यह न्यायिक उत्तरदायित्व की दिशा में एक स्वागत योग्य कदम होगा। परंतु यदि यह जांच राजनीतिक दबाव, वैचारिक असहमति या संस्थागत असहिष्णुता से प्रेरित है तो यह भारतीय लोकतंत्र की नींव को ही झकझोर सकती है। भारत की न्यायपालिका पहले ही अनेक आंतरिक और बाहरी चुनौतियों से जूझ रही है, लम्बित मामलों की संख्या, न्यायाधीशों की नियुक्तियों में देरी और जनता के बीच घटता हुआ विश्वास। ऐसे में जब एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध जांच की खबर आती है, तो यह केवल एक व्यक्तिगत आरोप नहीं रह जाता, यह पूरे संस्थान की पारदर्शिता और भरोसे पर सवाल खड़ा कर देता है।
प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में न्याय सभी के लिए समान है? क्या उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति भी उसी कानूनी कसौटी पर परखे जाएंगे जिस पर एक आम नागरिक को कसा जाता है? यदि नहीं, तो ‘Rule of Law’ यानी विधि सम्मत शासन की अवधारणा केवल एक सैद्धांतिक वाक्य बनकर रह जाएगी।
एक और महत्वपूर्ण पहलू है न्यायिक स्वायत्तता और उत्तरदायित्व के बीच का संतुलन। न्यायपालिका को यदि पूर्ण स्वायत्तता दी जाए लेकिन कोई उत्तरदायित्व तय न हो तो वह स्वायत्तता तानाशाही बन सकती है। वहीं यदि हर न्यायिक निर्णय पर कार्यपालिका या राजनीतिक वर्ग प्रश्नचिह्न खड़े करने लगे तो वह स्वायत्तता एक मजाक बनकर रह जाएगी। इसीलिए यह जांच एक कसौटी है,जिसमें देखा जाएगा कि क्या भारत वास्तव में एक परिपक्व लोकतंत्र है, या फिर संस्थाओं के बीच शक्ति संतुलन एक भ्रम मात्र है।
पूरे घटनाक्रम का सबसे निर्णायक पहलू यही है कि इस जांच का परिणाम क्या होगा। यदि जांच निष्पक्ष रूप से पूरी होती है और उचित निष्कर्ष निकलता है तो यह एक सकारात्मक उदाहरण बनेगा। लेकिन यदि यह जांच राजनीतिक दुराग्रह, वैचारिक प्रतिशोध या न्यायपालिका को अनुशासित करने का हथियार बनती है, तो यह देश के संवैधानिक ढांचे को असाधारण क्षति पहुंचाएगी। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका निर्णायक होगी। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता बनी रहे, साथ ही यह भी कि कोई भी व्यक्ति संविधान और कानून से ऊपर नहीं है, चाहे वह पूर्व सीजेआई ही क्यों न हो। इसी में लोकतंत्र की परिपक्वता छिपी है। देश की जनता की आंखें अब विधि मंत्रालय, कार्मिक मंत्रालय और सर्वोच्च न्यायालय पर टिकी हैं, जो इस अत्यंत संवेदनशील मामले को किस प्रकार से संभालते हैं, इससे यह तय होगा कि भारत की न्यायिक व्यवस्था कितनी मजबूत, निष्पक्ष और जवाबदेह है।
नेहरू ने 10 सितम्बर 1949 को संविधान सभा में कहा था कि – ‘‘कोई भी न्यायाधीश और कोई भी सर्वोच्च न्यायालय खुद को तीसरा सदन नहीं बना सकता… न्यायपालिका समस्त जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली संसद की सम्प्रभु इच्छा का अतिक्रमण नहीं कर सकती।’’
नेहरू के इस कथन में न्यायपालिका की भूमिका को लेकर एक चेतावनी भी निहित है और एक मर्यादा भी। आज जब भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रहे डाॅ. डी.वाई. चंद्रचूड़ पर पद के दुरुपयोग, शक्ति के अतिक्रमण और पक्षपात के गम्भीर आरोप लगे हैं तो यह प्रश्न और अधिक तीव्रता से उठता है कि क्या न्यायपालिका अपनी मर्यादाओं से बाहर निकल रही है या फिर यह सब एक राजनीतिक दबाव का परिणाम है जिससे न्यायपालिका की स्वायत्तता को कुचला जा रहा है?
यह विवाद केवल एक व्यक्ति के आचरण से जुड़ा नहीं है; यह पूरे संस्थान की साख, निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है। न्यायपालिका लोकतंत्र की आत्मा है और यदि उसकी निष्पक्षता संदिग्ध हो जाए या उसकी स्वतंत्रता पर कुठाराघात हो तो लोकतंत्र भीतर से सड़ने लगता है। भारत का संविधान न्यायपालिका को इसलिए स्वतंत्र करता है ताकि वह कार्यपालिका और विधायिका द्वारा नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन पर अंकुश लगा सके। लेकिन यदि न्यायाधीश स्वयं ही नैतिक और संवैधानिक लक्ष्मण रेखाओं का उल्लंघन करें तो उनकी आलोचना न केवल उचित है, बल्कि अनिवार्य भी।
आज की स्थिति में दो बातें समान रूप से महत्वपूर्ण हो जाती हैं- पहली, न्यायाधीशों की स्वतंत्रता की रक्षा; और दूसरी न्यायपालिका की जवाबदेही का सुनिश्चित किया जाना। केवल इसलिए कि कोई सर्वोच्च पद पर है, उसे आलोचना से परे नहीं माना जा सकता। केवल इसलिए कि कोई सरकार में है, उसे न्यायपालिका को हथियार बनाकर अपने राजनीतिक शत्रुओं को कुचलने का अधिकार नहीं है।
डाॅ. चंद्रचूड़ के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सत्यता अभी जांच के अधीन है, लेकिन यह निश्चित है कि इस प्रकरण ने लोकतंत्र के तीन स्तम्भों- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, के बीच संतुलन को फिर से केंद्र में ला खड़ा किया है। अगर यह जांच न्यायपालिका की गरिमा के साथ निष्पक्ष तरीके से होती है तो यह लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत होगा। परंतु यदि यह बदले की कार्रवाई या संस्थागत बदनामी का औजार बनती है तो यह भारत की संवैधानिक आत्मा के लिए घातक सिद्ध होगा।
हमारे समय की यह सबसे बड़ी परीक्षा है कि क्या हम नेहरू के उस कथन को सही संदर्भ में समझ पा रहे हैं? क्या न्यायपालिका अपनी सीमाओं में रहकर जनहित की रक्षा कर रही है या वह स्वयं सत्ता की लालसा में जनता की इच्छा से टकराने लगी है? यह प्रश्न जितना चंद्रचूड़ के लिए है, उससे अधिक भारत के हर नागरिक और संविधान के प्रति हमारी निष्ठा के लिए है।