नई औद्योगिक नीति को 24 जुलाई 1991 की सुबह संसद में पेश किया गया था। इसी दिन शाम डाॅ. मनमोहन सिंह ने अपना पहला बजट पेश किया जिसे आज तक का सबसे महत्वपूर्ण और खुली अर्थव्यवस्था की दृष्टि से सबसे क्रांतिकारी बजट करार दिया जाता है। इस बजट में खाद की कीमतों को कम रखने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को 40 प्रतिशत कम कर दिया गया और चीनी तथा घर की गैस के सिलेंडर के दाम पर बढ़ा दिए गए थे। बजट के दौरान अपने भाषण में वित्त मंत्री ने बार-बार गम्भीर आर्थिक संकट का हवाला देते हुए खाद पर सब्सिडी कम किए जाने और चीनी तथा घरेलू गैस की कीमत बढ़ाए जाने को जायज ठहराने का भरकस प्रयास किया। अपने बजट भाषण के अंत में वित्त मंत्री ने कहा- ‘हम जिस लम्बी और कठिन यात्रा पर निकले हैं, उसमें आने वाली कठिनाइयों को मैं कम नहीं आंकता। लेकिन जैसा कि विक्टर ह्यूगो ने एक बार कहा था-‘‘पृथ्वी पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है।’’ मैं इस सम्मानित सदन से कहना चाहता हूं कि भारत का दुनिया में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने का विचार एक ऐसा ही विचार है जिसका समय आ गया है। पूरी दुनिया को इसे जोर से और स्पष्ट रूप से सुनने दें। भारत अब जाग चुका है। हम सफल और विजयी होंगे।’
ठीक ऐसा ही हुआ भी। आर्थिक कंगाली पर आ खड़े हुए देश को नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की जुगलबंदी ने विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों वाले देशों की कगार पर लाने की राह प्रशस्त की। आज (2023) में भारत दुनिया की पांचवीं विशाल अर्थव्यवस्था वाला राष्ट्र बन चुका है। ऐसा कर पाने में राव की सफलता के पीछे एक बड़ा कारण उनका कौटिल्य शास्त्र के अनुसार फैसले लेने रहा। जब जरूरत पड़ी तो राव ने इस नीति के अनुसार कठोर फैसले लेते समय कभी अपने विरोधियों को विश्वास में लिया, कभी उनके विरोध के प्रति सम्मान दिखाते हुए अपने फैसले बदले, राव ने विपक्षी दलों और कांग्रेस भीतर मौजूद अपने विरोधियों को शांत करने के लिए 40 प्रतिशत की कटौती को 30 प्रतिशत कर दिया था तो कई बार उन्होंने उपेक्षा, माया और यहां तक कि दंड का सहारा भी लिया। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत कई विपक्षी एवं कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ ‘जैन हवाला डायरी’ मामले में जांच का आदेश राजशक्ति के सहारे विपक्षियों को काबू करने का उदाहरण है जिस पर चर्चा थोड़ी बाद में। इसी तरह अपनी अल्पमत की सरकार को बहुमत में लाने के लिए राव ने माया (रिश्वत) का सहारा लेने से भी गुरेज नहीं किया था।
1991 के ऐतिहासिक बजट बाद देश की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार आने लगा था। मुद्रा का अवमूल्यन, लाइसेंस राज की समाप्ति, नई औद्योगिक नीति और विदेशी पूंजी निवेश की सीमा बढ़ाने तथा सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र के लिए भी ‘खुला द्वार’ (Open door) की नीति ने आर्थिक क्रांति की नींव रख दी थी। राव सरकार ने अब सुधारों के दूसरे चरण की तरफ कदम बढ़ाना शुरू किया। बिजली, उत्पादन, सड़क निर्माण, शेयर बाजार में सुधार इस चरण के लक्ष्य रखे गए। कांग्रेस के कई दिग्गज नेता जो राव को बतौर प्रधानमंत्री पचा नहीं पा रहð थे, इस दौरान नेहरू-इंदिरा की घोषित नीतियों से राव सरकार के कथित विचलन को आधार बना राव के खिलाफ राजनीतिक षड्यंत्रों में लगे हुए थे। नरसिम्हा राव जनाधार वाले नेता नहीं थे। 1973 में उन्हें आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री पद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विश्वस्त होने चलते मिला था। 1991 में भी उनका कांग्रेस अध्यक्ष और आम चुनाव बाद प्रधानमंत्री बनना उनकी जन स्वीकार्यता और जनाधार के कारण नहीं बल्कि नेहरू-गांधी परिवार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और एक कमजोर नेता होने की छवि चलते मिला था। राव इस सच से भलीभांति पुरस्कार परिचित थे। यही कारणा था कि उन्होंने अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए हर बड़ा फैसला लेते समय नेहरू-गांधी परिवार का स्तृतिगान किया और उनके बताए मार्ग पर चलने की अपनी वचनबद्धता दोहराई। पार्टी भीतर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष नरसिम्हा राव ने 1992 की शुरुआत में कांग्रेस संगठन के चुनाव कराए जाने का फैसला लिया। 1980 के बाद से कांग्रेस पार्टी ने अपने संगठन के भीतर चुनाव नहीं कराए थे और संगठन के सभी पदों पर नियुक्ति कांग्रेस अध्यक्ष की इच्छानुसार तय होने लगी थी। संगठन चुनावों के बाद राव ने तिरुपति (आंध्र प्रदेश) में कांग्रेस का महाधिवेशन बुलाया था। 1966 के बाद पहली बार नेहरू-गांधी परिवार की सरपरस्ती बगैर हो रहे इस महाधिवेशन के दौरान कांग्रेस की शीर्ष निर्णायक समिति कांग्रेस कार्य समिति (कांग्रेस वर्किंग कमेटी) का गठन भी चुनाव के जरिए किया गया था। इस 10 सदस्यीय वर्किंग कमेटी के लिए चुने गए सदस्यों में से कई राव के घोर-विरोधी थे। दूसरी तरफ उनके समर्थकों में शामिल प्रणव मुखर्जी और के. करुणाकरण चुनाव जीत पाने में विफल रहे थे। राव ने एक बार फिर से चाणक्य नीति का सहारा लेते हुए इस कमेटी के लिए चुने गए अपने समर्थकों से यह कहते हुए इस्तीफा करवा दिया कि कमेटी में महिला एवं दलित समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। मजबूरन अर्जुन सिंह, शरद पवार और बलराम जाखड़ समेत सभी राव विरोधी नेताओं ने भी अपना इस्तीफा पार्टी अध्यक्ष को सौंप उन्हें कार्य समिति के लिए सदस्यों को चुनने का अधिकार दे दिया। राव ने अब अपनी मनमर्जी की कार्यसमिति को गठित कर उसमें बतौर दलित नेता महाराष्ट्र कांग्रेस के सुशील कुमार शिंदे और उत्तर पूर्व जनजाति की नेता ओमान देवरी को नामांकित करने, केरल कांग्रेस से अपने पक्के समर्थक के. करुणाकरण को शामिल कर किया। अपने विरोधी नेताओं में से अर्जुन सिंह, शरद पवार को भी शामिल कर राव ने ऐसी कार्यसमिति का गठन किया जो पूरी तरह से उनकी इच्छा और कृपा पर चुनी गई थी। पत्रकार संजय बारू राव के समयकाल पर लिखी अपनी पुस्तक में कहते हैं-‘The Tirupati session strengthened PV and the party organization and in doing so, became an important step in the direction of once again making the INC a truly national political party that was not identified with anyone individual or family.’ (त्रिरुपति अधिवेशन ने पी.वी. और पार्टी संगठन, दोनों को मजबूत करने का काम किया। यह अधिवेशन एक बार फिर से इंडियन नेशनल कांग्रेस को सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल बनाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाने वाला रहा। ऐसा संगठन जो किसी एक व्यक्ति अथवा परिवार तक सीमित नहीं था।)
कांग्रेस भीतर अपनी पकड़ मजबूत करने के दौरान राव ने इस बात का विशेष ख्याल रखा कि आर्थिक नीतियों में किए जा रहे परिवर्तनों को नेहरू और इंदिरा की नीतियों का ही विस्तार बना सामने रखा जाए ताकि उन पर उनके विरोधी नेहरू- गांधी परिवार के खिलाफ जाने का आरोप न लगा सकें। त्रिरुपति अधिवेशन की समाप्ति के बाद अंग्रेजी दैनिक ‘द टाइम्स आॅफ इंडिया’ ने राव की इस नीति को कुछ यूं रेखांकित किया-‘The party is quite obviously committed to the package of programmes announced by the government in the last few month, marking a major departure from past postures. This has, however, been shrouded in the ritual invocation of the Nehru- Indira- Rajiv Vision. Indeed a substantial part of the resolution is devoted to re-interpeting the political- economic thought of Jawaharlal Nehru in a bid to justify the present thrust of government policies’ (बीते कुछ महीनों के दौरान सरकार द्वारा घोषित कार्यक्रमों (आर्थिक-औद्योगिक नीति में बदलाव) के प्रति पार्टी ने अपना समर्थन स्पष्ट रूप से जता दिया है। ऐसा तब जबकि ये बदलाव कांग्रेस की पिछली नीतियों से बहुत अलग हैं इस विचलन को छुपाने के लिए नेहरू-इंदिरा-राजीव के नाम का सहारा लिया गया है। कार्य समिति में पारित प्रस्ताव का एक बड़ा हिस्सा वर्तमान सरकार की नीतियों को सही ठहराने के लिए जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण को पुनव्र्याखित करने पर केन्द्रित रहा है।)
नरसिम्हा राव सरकार की आर्थिक नीतियों का सकारात्मक असर अब गति पकड़ने लगा था। कांग्रेस पार्टी के भीतर भी उनके खिलाफ उठने वाली आवाजें मंद हो चली थी। लेकिन अर्थव्यवस्था से इतर अन्य कई समस्याओं ने राव सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी थी। इनमें पंजाब में एक बार फिर से आतंकवाद का सिर उठाना, कश्मीर में अलगाववादी ताकतों की हिंसक गतिविधियों का जोर पकड़ना, दक्षिण भारत में कावेरी नदी जल विवाद का अपने चरम पर जा पहुंचना और भारतीय जनता पार्टी का उत्तर प्रदेश के शहर अयोध्या में बाबरी मस्जिद परिसर के भीतर राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर धार्मिक धु्रवीकरण को तेज करना शामिल था। राव ने 20 जून 1991 के दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। उनकी ताजपोशी के मात्र 7 दिन बाद 28 जून को कश्मीरी आतंकवादियों ने बड़ी घटना को अंजाम देते हुए इंडियन ऑयल काॅरपोरेशन के अधिशासी निदेशक के. दोराईस्वामी का श्रीनगर से अपहरण कर लिया। भारत सरकार के एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपक्रम आईओसी के वरिष्ठ अधिकारी का अपहरण राव सरकार के लिए बड़ा झटका था। 20 अगस्त को आतंकियों के आगे घुटने टेकते हुए दोराईस्वामी की रिहाई के बदले 4 आतंकियों को रिहा करना पड़ा। यह कांग्रेस और राव सरकार के लिए बेहद शर्म का कारण बना। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा तत्कालीन गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के अपहरण बाद आतंकियों की रिहाई को लेकर कांग्रेस ने खासा हो-हल्ला मचाया था और वी.पी. सिंह पर आतंकवाद को संरक्षण देने तक का आरोप मड़ा था। दोराईस्वामी की रिहाई के बदले आतंकियों की रिहाई को लेकर कांग्रेस को बैकफुट पर आना पड़ा और नवनियुक्ति प्रधानमंत्री के नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल उठने लगे। इसी दौरान पंजाब में भी हालात तेजी से बिगड़ने शुरू हो गए थे। राव के प्रधानमंत्री बनने से ठीक पांच दिन पहले 15 जून 1991 को खालिस्तानी आतंकवादियों ने पंजाब के लुधियाना रेलवे स्टेशन में अंधाधुंध गोलीबारी कर 80 यात्रियों को मौत के घाट उतार दिया था। दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों तमिलनाडु और कर्नाटक के मध्य भी इसी दौरान कावेरी नदी के पानी का बंटवारा बड़े विवाद में बदलने लगा था। राव एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे थे जिसके पास आर्थिक दृष्टि से कंगाल राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को पटरी में लाने के साथ-साथ गणतंत्र के कई राज्यों में अलग-अलग कारणों से तेज हो रहे असंतोष और अलगाववाद को भी शांत करना था।
अल्पमत में होने के बावजूद नरसिम्हा राव की सरकार बड़े आर्थिक सुधार लागू कर पाने में और लोकसभा में अपनी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्तावों को जीतने में सफल रही तो इसके पीछे राव की राजनीतिक सूझबूझ और कूटनीति का हाथ था। राव ने अपनी आर्थिक नीतियों के घोर विरोधी वामपंथी खेमे को भाजपा की साम्प्रदायिकता का भय दिखा थामे रखा तो जनता दल के नेतृत्व को वह यह समझा पाने में सफल रहे कि यदि उनकी सरकार गिरती है तो एक बार फिर से मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ेगा जिसके लिए कोई भी पार्टी तैयार नहीं थी। राजनीतिक विज्ञानी जोया हसन के अनुसार-‘ The primary of secular parties and the need to contain BJP’s further expansion was one important resason why economic liberalisation did not face significant hurdles, even though the Congress lacked a majority in Parliament’. (भले ही कांग्रेस के पास संसद में बहुमत नहीं था, धर्मनिरपेक्ष दलों की प्रधानता और भाजपा के विस्तार को रोकने की मजबूरी, एक महत्वपूर्ण कारण रहा जिसके चलते आर्थिक उदारीकरण की राह में बाधाएं नहीं आईं।)
क्रमशः