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Editorial

जरूरत एक ठाकरे की-2

अंधकार में समां गए जो तूफानों के बीच जले
मंजिल उनको मिली कभी जो एक कदम भी नहीं चले
क्रांति कथानायक गौण पड़े हैं गुमनामी की बांहों में
गुंडे तश्कर तने खड़े हैं राजभवन की राहों में
यहां शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला
डाकू ने खादी पहनी तो संसद में सम्मान मिला

-डाॅ. हरिओम पवार


उत्तराखण्ड राज्य आंदोलनकारियों और जन आंदोलनकारियों को छोड़ गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ आज कितनों को याद होंगे, कह पाना कठिन है। अल्मोड़ा के हवालबाग में जन्मे हमारे गिर्दा अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी थे। प्रख्यात कवि, गायक, रंगकर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता गिर्दा की आवाज में अजब-गजब कशिश थी। मेरी उम्र बहुत कम और समझ कच्ची थी लेकिन इतनी भर जरूर थी कि जो भी यह लिख रहे हैं, गा रहे हैं वह अनमोल है। 1982-83 का समय या शायद ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन (1984) के दौरान गिर्दा और डॉ. शेखर पाठक की आवाज में पहली बार एक गीत को सुना था। यह गीत आज जब उत्तर प्रदेश से अलग हो पृथक राज्य बने उत्तराखण्ड को 25 बरस होने जा रहे हैं और अलग राज्य बनने के बाद राज्य की विधानसभा के भीतर प्रदेश के वित्तमंत्री पहाड़ियों के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करने का दुस्साहस कर रहे हैं, दुस्साहस के बाद भी मंत्री बने हुए हैं, मुझे यह गीत, इसका अर्थ और वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता, तीनों ज्यादा खुलकर समझ आ रही हैं। गीत के बोल हैं –

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागो-जागो हो मेरा लाल।

नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।

विचारनै की छां यां रौजै फानी छौ, घुर घ्वां हुनै रुंछौ यां रात्तै-ब्याल/दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल/बात यो आजै कि न्हेति पुराणिं छौ, छांणि ल्हियो इतिहास लै यै बताल/हमलै जनन कैं कानी में बैठायो, वों हमरै फिरी बणि जानी काल/अजि जांलै कै के हक दे उनले, खालि छोड़्नी रांडा स्यालै जै टोक्याल/ओड़, बारुणी हम कुल्ली कभाणिनाका, सांचि बताओ धैं कैले पुछि हाल/लुप-लुप किड़ पड़ी यो व्यवस्था कैं, ज्यून धरणै की भें यौ सब चाल/हमारा नामे की तो भेली उखेलौधें, तैका भितर स्यांणक जिबाड़ लै हवाल/भोट मांगणी च्वाख चुपड़ा जतुक छन, रात-स्यात सबनैकि जेड़िया भै खाल/उनरै सुकरम यौ पिड़ै रैई आज, आजि जांणि अघिल कां जांलै पिड़ाल/ढुंग बेच्यो-माट बेच्यो, बेचि खै बज्याणी, लिस खोपि-खोपि मेरी उधेड़ी दी खाल/न्यौलि, चांचरी, झवाड़, छपेली बेच्या मेरा, बेचि दी अरणो घाणी, ठण्डो पाणि, ठण्डी बयाल।
है न कमाल का गीत। गिर्दा इस गीत के माध्यम से हिमालय पुत्रों को ललकार कर कह रहे हैं कि हिमालय की संतानों तुम्हें हिमालय पुकार रहा है कि उसे नीलाम न होने दो, उसे हलाल मत करो, वह कह रहे हैं कि ‘यदि आज वे हमें हमारे अधिकार दे भी दें तो भी हमें सिर्फ बंजर भूमि और बचे-खुचे टुकड़े ही मिलेंगे। कभी शराब, कभी छल-कपट से हमें बहलाया गया, किसी ने हमारे दर्द को नहीं समझा।’ गीत के अंत में गिर्दा कहते हैं ‘पत्थर बेचे, मिट्टी बेची, सब कुछ बेचकर खा गए, हमारी चमड़ी तक उधेड़कर रख दी। न्यौली, चांचरी, झवाड़ छपेली-हमारी परम्पराएं भी बेच दी गई। पहाड़ों की शुद्ध हवा, शीतल जल भी बेच डाला।’
स्मरण रहे यह गीत 1980 के दशक में तब लिखा गया था जब हम उत्तर प्रदेश का अंग हुआ करते थे। 2000 में राज्य बना गीत लेकिन पृथक प्रदेश के गठन बाद ज्यादा प्रासंगिक हो गया। बागेश्वर में जो कुछ देखने को मिल रहा है उससे गिर्दा के बोल सत्य प्रमाणित होते हैं। जोशीमठ दरक गया है। गंगा में अवैध खनन हर सरकार के कार्यकाल दौरान जारी रहा है। जमीनों की, खनिजों की लूट प्रदेश गठन बाद दिन-दूनी रात चैगुनी गति से बढ़ी है। ऐसा तब जबकि राज्य गठन के बाद सभी निर्वाचित सरकारों के मुखिया खांटी पहाड़ी रहे। इन सभी की सरकारों में एक बात काॅमन रही, भ्रष्टाचार और अनाचार। ऐसा सम्भवतः इसलिए कि बीते 24 बरसों के दौरान प्रदेश में या तो कांग्रेस की सरकार बनी या फिर भाजपा की। क्षेनीय ताकतें जिन्होंने राज्य आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, राज्य गठन के बाद हाशिए में चली गईं। ये वे लोग थे जिन्हें पहाड़ से सही अर्थों में प्रेम था। शायद जनता इन्हें चुनती तो हालात इस कदर खराब न होते। इसलिए मैं अब मानने लगा हूं कि उत्तराखण्ड को यदि बचाना है तो कांग्रेस-भाजपा से इतर किसी क्षेत्रीय शक्ति को पैदा होना होगा। ऐसी शक्ति जो बाला साहेब ठाकरे की तर्ज पर पहाड़ी अस्मिता को जगा सके। मैं ठाकरे, उनकी विचारधारा यहां तक कि उनकी क्षेत्रवादी राजनीति तक का समर्थक नहीं हूं। मेरा मानना है कि इस प्रकार की भावना, इस प्रकार की राजनीति देश की अखंडता को अंततः कमजोर करने का काम करती है। इस दृढ़ मत के बावजूद अपनी जन्मभूमि की दुर्दशा देख अब मुझे उत्तराखण्ड में भी एक बाल ठाकरे की जरूरत महसूस होने लगी है। ठाकरे ने 1966 में शिवसेना की स्थापना की। वे कोई खांटी राजनेता नहीं थे, बल्कि एक कार्टूनिस्ट थे। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने ‘फ्री प्रेस जर्नल’ में बतौर व्यंग्य चित्रकार शुरू की थी। 1960 में खुद का राजनीतिक कार्टून पत्र ‘मार्मिक’ शुरू किया जिसमें उन्होंने मराठियों (महाराष्ट्र के मूल निवासियों) के अधिकारों और उनकी समस्यओं पर तीखे व्यंग्य चित्र बनाए। 19 जून 1966 को शिवसेना का जन्म हुआ। इस संगठन के जरिए ठाकरे ने ‘मराठी मानुष’ के हितों की आवाज को बुलंद करना शुरू किया। उन्होंने मराठी अस्मिता का मुद्दा उठाते हुए दावा किया कि मुम्बई और महाराष्ट्र में मराठियों संग नौकरियों और व्यापार में दोयम दर्जे का बर्ताव किया जा रहा है। उनके नेतृत्व में शिवसेना ने दक्षिण भारतीयों, जिन्हें मराठी मूल के लोग मद्रासी कह पुकारते थे, के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। बाद में उनके निशाने पर उत्तर भारतीय भी आ गए जो रोजगार की तलाश में मुम्बई जा बसे थे। ठाकरे ने नारा दिया ‘मुम्बई में मराठी बोलणारा पाहिजे’ (मुम्बई में मराठी बोलने वाला चाहिए) और ‘बाहेरच्याना काम नाहीं’ (बाहरी लोगों को काम नहीं)। मराठा संस्कृति को बचाने के लिए ठाकरे ने ‘मराठी आमची शान’ (मराठी हमारी शान है) और ‘मराठीतूनच व्यवहार करा’ (मराठी में ही व्यवहार करें) का नारा बुलंद कर शिवसेना को एक बड़ी राजनीतिक ताकत बना डाला। बाद के वर्षों में ठाकरे घोर साम्प्रदायिक हो गए। 1992 में मुम्बई और महाराष्ट्र में हुए साम्प्रदायिक दंगों में शिवसेना सक्रिय रही। इतना ही नहीं मराठी हितों के लिए लड़ने की उसकी प्रतिबद्धता भी सत्ता सुख के लालच में शनैः शनैः मंद होती चली गई। ठाकरे मेरी दृष्टि में कभी भी नायक नहीं हो सकते। फिर भी मैं अपने प्रदेश की वर्तमान दुर्दशा को देखते हुए अब यह कामना करने लगा हूं कि एक अदद ठाकरे का हमारे यहां भी उदय हो जो पहाड़ियों के दुख-दर्द को समझता हो, पहाड़ की संस्कृति और उसकी अस्मिता को बचाने के लिए जो भले ही क्षेत्रवाद को आगे करे, कम से कम जिन आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए राज्य बना था, उस दिशा में कुछ सार्थक तो कर सके।
प्रेमचंद अग्रवाल का धामी मंत्रिमंडल से इस्तीफा इसी क्षेत्रवाद के उभार का परिणाम है। वर्तमान समय में प्रेमचंद एक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस मानसिकता का नाम है जो हम पहाड़ियों को जाहिल गंवार समझती है और हमारे ही संसाधन लूटकर हमें ही गालियां देने का दुस्साहस करती है। जरा सोचिए, ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने अपना मान और सम्मान की रक्षा का दायित्व ऐसों के हाथों सौंप दिया जो पूरी तरह और बुरी तरह प्रेमचंद अग्रवालों की जकड़-पकड़ में है। बागेश्वर में खड़िया खनन हो या फिर हरिद्वार समेत प्रदेश की अन्य नदियों में खनन के पट्टे हों, सबकुछ बाहर की कम्पनियों के हवाले है। देहरादून के सत्ता गलियारों में नारायण दत्त तिवारी के शासनकाल से ही ऐसे तत्वों की आमद होने लगी थी जो अपने धनबल के सहारे हमारे पहाड़ों की प्राकृतिक सम्पदा को लूटने लगे थे। आज ऐसों ने हमारे पूरे सिस्टम को हाईजैक कर लिया है। यह भी हमें ईमानदारी पूर्वक स्वीकारना होगा कि बीते 25 बरसों में खांटी पहाड़ी मूल का माफिया तंत्र भी विकसित हुआ है जो अपनी जन्मभूमि की खरीद-फरोख्त में इन बाहरियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहा है।
यह याद रखना और इसका प्रतिरोध करना हर उत्तराखण्डी का अब लक्ष्य होना चाहिए कि अंकिता भंडारी की निर्मम हत्या का राज आज तक सामने नहीं आ सका है। ट्रिपल इंजन की सरकार हर कीमत पर इस हत्याकांड की जांच सीबीआई से कराने के लिए आखिरकार क्यों तैयार नहीं हुई? वह वीआईपी आखिरकार है कौन? और कहां का है? जिसकी बाबत नाना प्रकार की चर्चाएं लम्बे अर्से से सुनाई दे रही हैं। याद रखना यह भी जरूरी है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, किसी ने भी गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की दिशा में सार्थक पहल नहीं की है क्यों? इसलिए क्योंकि पहाड़ी राज्य के कर्णधारों को अब पहाड़ सुहाता नहीं है। उन्हें देहरादून का ऐश्वर्यशाली जीवन रास आने लगा है। इसलिए भी क्योंकि सत्ता पक्ष और विपक्ष के कई दिग्गजों ने देहरादून के आस-पास बड़ा पूंजी निवेश किया है और अब वे चाहते हैं कि स्थाई राजधानी देहरादून ही बने ताकि उन्हें उनके पूंजी निवेश का मनमाफिक लाभ मिल सके।
प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे से थोड़ी आस जरूर बंधी है लेकिन यह लड़ाई अभी जारी रहनी चाहिए। उन खांटी पहाड़ियों को भी सबक सिखाना जरूरी है जो सड़कछाप नेता कह हमारी भावनाओं का मखौल उड़ा रहे थे। जरूरत है अब एक अदद ठाकरे की जो पहाड़ की अस्मिता को बचाए रखने के लिए हर पहाड़ विरोधी के खिलाफ जंग का ऐलान कर सके।

क्रमशः

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