मैं क्षेत्रवाद का समर्थक कभी नहीं रहा हूं। मेरा मानना है कि क्षेत्रवाद की भावना देश के अखंडता को कमजोर करती है और संविधान की भावना को ठेस पंहुचाती है। मेरा दृढ़ मत रहा है कि इस प्रकार की भावना राष्ट्र और समाज के समग्र विकास को बाधित भी करती है और राष्ट्रीय एकता को नुकसान भी पहुंचाती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहते थे ‘सच्ची देशभक्ति सम्पूर्ण क्षेत्रीयता से ऊपर उठकर सभी के कल्याण की बात करती है।’ वे मानते थे कि क्षेत्रवाद समाज में विभाजन पैदा करता है और व्यापक राष्ट्र की अवधारणा से आमजन को दूर करने का काम करता है। डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि ‘यदि हम प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखते हैं तो हम एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं।’ नेहरू का भी मानना था कि संकीर्ण क्षेत्रीयता और भाषा के भेदभाव राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। डाॅ. राम मनोहर लोहिया का मत था कि क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के लिए विकेंद्रीकरण आवश्यक है किंतु संकीर्ण क्षेत्रवाद राष्ट्रीय विकास में बाधक डालता है। वे क्षेत्रीय भाषा संस्कृति और अधिकारों को सुरक्षित करने की आवश्यकता पर बल देते थे लेकिन राष्ट्रीय एकता को सर्वप्रथम मानते थे। मैं इन महान विचारकों के विचारों से पूरी तरह सहमति आज तक रखता आया हूं, अब लेकिन उत्तराखण्ड अपनी जन्मभूमि, अपने गृह प्रदेश की दशा और दिशा देखते हुए मेरे विचार मुझे बदलते से महसूस हो रहे हैं। हमारे स्थापित राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस ने बीते 25 वर्षों के दौरान उत्तराखण्ड राज्य की अवधारणा, वह अवधारणा जिसके चलते पृथक पहाड़ी राज्य बना, जिसके लिए लम्बा संघर्ष किया गया, शहादत दी गई, सपने देखे गए, सभी पर इन दोनों दलों ने, उनके खांटी पहाड़ी नेताओं ने न्याय नहीं किया। अब मुझे लगने लगा है इन दलों, इनके नेताओं भरोसे जनता यदि रही, जनता का भरोसा बना रहा है तो जल्द ही बचे-खुचे सपने, बची-खुची संस्कृति इत्यादि भी नष्ट हो जाएगी। याद कीजिए उस लम्बे संघर्ष को जिसके चलते हमें अपना अलग राज्य मिला था।
उत्तराखण्ड राज्य की कल्पना एक ऐसे पहाड़ी राज्य के रूप में की गई थी जहां स्थानीय संस्कृति, संसाधनों और लोगों के अधिकारों की रक्षा की जा सके। यह राज्य लम्बे संघर्ष और बलिदान के बाद अस्तित्व में आया। लेकिन आज, जब राज्य के वित्त मंत्री जैसे जनप्रतिनिधि पहाड़ की जनता के लिए असंवेदनशील भाषा का प्रयोग करते हैं, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या राज्य निर्माण के मूल उद्देश्य पूरे हो पाए हैं?
स्मरण रहे उत्तराखण्ड का राज्य आंदोलन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुए प्रमुख जन आंदोलनों में से एक था जो मुख्यतः उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली जनता के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लड़ा गया था। 1950-60 के दशक दौरान उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय समस्याओं को लेकर असंतोष बढ़ने लगा था। बुनियादी सुविधाओं की कमी, नौकरियों की अनुपलब्धता और प्रशासनिक उपेक्षा के चलते अलग राज्य की मांग ने तब अपना सर उठाया था। 1979 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन हुआ, लेकिन यह केवल प्रतीकात्मक ही साबित हुआ। क्षेत्र की उपेक्षा जारी रही।
1980 के दशक में उत्तराखण्ड क्रांति दल (यूकेडी) जैसे क्षेत्रीय दल ने अलग राज्य की मांग को एक सशक्त रूप देना शुरू किया। 1994 में मुजफ्फरनगर कांड ने आंदोलन को चरम पर पहुंचा दिया। इस घटना में उत्तराखण्ड आंदोलनकारियों पर बर्बर अत्याचार किए गए, जिससे राज्य गठन की मांग को और बल मिला। अंततः 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड (तब उत्तरांचल) भारत का 27वां राज्य बना। इसे विशेष राज्य का दर्जा दिया गया ताकि इसके विकास को प्राथमिकता मिल सके। 2007 में राज्य का नाम आधिकारिक रूप से ‘उत्तराखण्ड’ कर दिया गया।
आज 2025 में सोचिए, खुद से प्रश्न कीजिए कि क्या राज्य आंदोलन के लक्ष्य पूरे हुए? क्या पलायन और रोजगार की समस्या से निजात मिली। नहीं कतई नहीं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी जिलों से बड़े पैमाने पर पलायन जारी है। गांव खाली हो रहे हैं और लोग रोजगार के लिए शहरों की ओर जा रहे हैं। राज्य आंदोलन का एक मुख्य उद्देश्य स्थानीय रोजगार को बढ़ावा देना था, लेकिन आज भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। राज्य में सामाजिक सौहार्द में गिरावट और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति असहिष्णुता की घटनाएं बढ़ी हैं, जो गम्भीर चिंता और चिंतन का विषय हैं।
पुरोला में 2023 एक अंतर्धार्मिक प्रेम-प्रसंग के बाद, अल्पसंख्यक समुदाय के व्यापारियों के बहिष्कार और पलायन की घटनाएं सामने आईं। इससे सामाजिक ताना-बाना प्रभावित हुआ और समुदायों के बीच तनाव बढ़ा। उत्तरकाशी में कुछ हिंदू संगठनों ने एक मस्जिद को सितम्बर 2024 में अवैध बताते हुए उसे ध्वस्त करने की मांग की। प्रदर्शनकारियों ने मस्जिद और मुस्लिम काॅलोनी को निशाना बनाया, जिससे स्थानीय मुस्लिम समुदाय में भय और असुरक्षा की भावना बढ़ी। चमोली जिले के नंदानगर में सितम्बर 2024 एक मुस्लिम युवक पर छेड़छाड़ का आरोप लगने के बाद, मुस्लिम स्वामित्व वाली दुकानों में तोड़-फोड़ और लूटपाट की घटनाएं हुईं। इससे क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा। रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों के कुछ गांवों में गत् वर्ष ‘गैर-हिंदुओं’ के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने वाले बोर्ड लगाए गए, जिससे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिला। इन घटनाओं ने सामाजिक सौहार्द को प्रभावित किया है और अल्पसंख्यक समुदायों में असुरक्षा की भावना बढ़ाई है। आवश्यक है कि समाज के सभी वर्ग मिलकर आपसी विश्वास और सम्मान को बढ़ावा दें, ताकि ‘देवभूमि’ की पहचान सुरक्षित रहे और सभी समुदाय शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का अनुभव कर सकें।
अपराध भी इन बीते 25 वर्षों में जमकर बढ़े हैं। राज्य गठन के तुरंत बाद वर्ष 2003 में हरिद्वार जनपद में तैनात एक आईपीएस अधिकारी धूम सिंह तोमर यकायक लापता हो गए। उनकी गुमशुदगी सीबीआई जांच के बाद भी आज तक रहस्य बनी हुई है। पौड़ी गढ़वाल निवासी 21 वर्षीय अंकिता भंडारी, ऋषिकेश के निकट वनंतरा रिजाॅर्ट में रिसेप्शनिस्ट के पद पर कार्यरत थीं। रिजाॅर्ट के मालिक पुलकित आर्य और उसके सहयोगियों ने अंकिता पर ‘विशेष सेवाएं’ प्रदान करने का दबाव डाला। इंकार करने पर 18 सितम्बर 2022 को उन्होंने अंकिता की हत्या कर उसके शव को चीला नहर में फेंक दिया। यह मामला राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक आक्रोश का कारण बना। 30 जुलाई 2024 को रुद्रपुर में एक निजी अस्पताल में कार्यरत नर्स लापता हो गईं। 8 अगस्त को उनका शव उत्तर प्रदेश के बिलासपुर जिले में मिला। जांच में पाया गया कि आरोपी धर्मेंद्र ने नर्स के साथ बलात्कार किया और फिर उसकी हत्या कर दी। पुलिस ने आरोपी को राजस्थान से गिरफ्तार किया। अल्मोड़ा जिले में भाजपा के एक नेता भगवत सिंह बोरा को 14 वर्षीय नाबालिग लड़की से छेड़छाड़ के आरोप में फरवरी 2025 गिरफ्तार किया गया। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि ‘देवभूमि’ के रूप में प्रसिद्ध उत्तराखण्ड में भी अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है। यह समाज के नैतिक पतन की ओर संकेत करता है।
उत्तराखण्ड में प्राकृतिक संसाधनों का अवैध दोहन, विशेष रूप से गंगा नदी और बागेश्वर जिले में खनन गतिविधियां, एक गम्भीर चिंता का विषय रही हैं। इन गतिविधियों से पर्यावरणीय असंतुलन, स्थानीय निवासियों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव और कानूनी विवाद उत्पन्न हुए हैं। हरिद्वार और उसके आस-पास के क्षेत्रों में गंगा नदी में अवैध खनन की घटनाएं हर सरकार के कार्यकाल दौरान लगातार सामने आई हैं। न्यायालय के आदेशों के बावजूद रात्रिकालीन खनन गतिविधियां जारी रहती है, जिससे गंगा की पवित्रता और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
इन दिनों बागेश्वर जिले के कांडा तहसील में खड़िया खनन (सोपस्टोन) चलते स्थानीय निवासियों के मकानों में दरारें और भू-स्खलन जैसी समस्याएं राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनी हुई हैं। उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए खनन गतिविधियों पर रोक लगाई है। अवैध खनन पर्यावरण और स्थानीय समुदायों के लिए गम्भीर खतरा है। न्यायालय और सामाजिक संगठनों के प्रयासों से इन पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया गया है, लेकिन स्थायी समाधान के लिए सख्त निगरानी, प्रभावी प्रशासनिक कार्रवाई और जन जागरूकता आवश्यक है।
राष्ट्रीय राजमार्ग 74 मुआवजा घोटाला उत्तराखण्ड के सबसे चर्चित भ्रष्टाचार मामलों में से एक है, जो राज्य गठन के बाद सामने आया। इस घोटाले में भूमि अधिग्रहण के दौरान कृषि भूमि को अकृषि दिखाकर मुआवजे की राशि में हेराफेरी की गई, जिससे सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ। ऊधमसिंह नगर के तत्कालीन जिलाधिकारी डाॅ. पंकज पांडेय समेत कई वरिष्ठ अधिकारियों को इस घोटाले में संलिप्तता के आरोप में निलम्बित किया गया था। हालांकि बाद में अधिकांश को बहाल कर दिया गया।
बीते 25 बरस के दौरान हर सरकार विकास का दावा करती रही है। सच यह है कि पहाड़ों की बनिस्पत राज्य के तराई और मैदानी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक विकास हुआ है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र अभी भी बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं। सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सुविधाओं में भारी अंतर देखा जाता है। जब राज्य के वित्त मंत्री जैसे उच्च पदस्थ नेता पहाड़ की जनता के प्रति असंवेदनशील भाषा का प्रयोग करते हैं तो यह राज्य आंदोलन की भावना के प्रति असम्मान जैसा प्रतीत होता है। नेताओं का यह रवैया आंदोलनकारियों के बलिदान और संघर्ष पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। उत्तराखण्ड की नदियां, जंगल और जल स्रोत लगातार संकट में हैं। अनियंत्रित पर्यटन, अवैध खनन और जलविद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ रहा है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह पहाड़ के लोगों की अस्मिता, संस्कृति और भविष्य को सुरक्षित करने की लड़ाई थी। आज जब राज्य की सत्ता में बैठे लोग असंवेदनशील भाषा का उपयोग करते हैं तो यह आंदोलन की भावना के प्रति गम्भीर अनादर दर्शाता है। ऐसे में जनता को फिर से संगठित होकर अपने अधिकारों और राज्य के मूल लक्ष्यों के लिए आवाज उठानी होगी, ताकि उत्तराखण्ड सही मायनों में उस सपने को साकार कर सके जिसके लिए यह राज्य बनाया गया था। मुझे अब लगने लगा है कि महाराष्ट्र में जिस तरह बाला साहेब ठाकरे ने मराठी अस्मिता को सशक्त करने के लिए एक मजबूत क्षेत्रीय आंदोलन खड़ा किया था, देवभूमि को भी ऐसे ही एक ठाकरे की जरूरत आन पड़ी है जो पहाड़ी अस्मिता के प्रश्न को आगे बढ़ा मृतप्राय हो चले पहाड़ी समाज को उसकी कुम्भकर्णी नींद से जगा सके।
क्रमशः