पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-97
जनता पार्टी की सरकार के ढाई वर्षों का कार्यकाल हर दृष्टि से बेहद निराशाजनक करार दिया जाता है। जे.पी. ने ‘इंदिरा हटाओ – देश बचाओ’ को सम्पूर्ण क्रांति का मुखौटा पहना जनता के सामने रखा था। मुखौटा इसलिए क्योंकि इसमें क्रांति ज्वार के मोती नदारत थे। इंदिरा गांधी से निजी खुन्नस रखने वाले सभी नेता इस सम्पूर्ण क्रांति की रेल में सवार हो सत्ता में भागीदारी और इंदिरा गांधी को हर कीमत पर राजनीतिक रूप से समाप्त करने की मंशा मात्र रखते थे। आपातकाल के दौरान लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण पर जार-जार आंसू बहाने वाले इनमें से कई आपातकाल के दौरान इंदिरा मंत्रिमंडल के सदस्य रहे थे। सत्ता मिलने के तुरंत बाद ही सम्पूर्ण क्रांति का नारा इनके एजेंडे का हिस्सा नहीं रहा और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति भी इनके विचार बदलने में देर नहीं लगी। 1971 में प्रचण्ड बहुमत पाने वाली इंदिरा गांधी ने एक के बाद एक विपक्षी दलों द्वारा शासित कई राज्यों में सरकार गिराने की जिस (कु) परम्परा को जन्म दिया था, जनता पार्टी ने ठीक वैसे ही केंद्र में सत्ता संभालने बाद किया। मोरारजी देसाई ने 23 मार्च, 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। 30 अप्रैल, 1977 को उन्होंने एक साथ आठ कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर डाला। संविधान का अनुच्छेद-356 कानून व्यवस्था खराब होने की स्थिात में राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर राज्य सरकार को बर्खास्त कर सकता है। इस अनुच्छेद को हथियार बना मोरारजी देसाई ने उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान और पंजाब की कांग्रेस सरकारों को हटा दिया था। यह उन सभी के लिए भारी आघात समान था जो जनता पार्टी की जीत को लोकतंत्र की जीत मानने की भूल कर बैठे थे। बकौल रामचंद्र गुहा ‘पहले ही दिन से जनता पार्टी ने अपनी साख गंवानी शुरू कर दी थी। केंद्र और राज्यों में जनता परिवार के मंत्रियों में सुंदर सरकारी बंगले पाने, शानदार पार्टियां आयोजित करने, किसी भी तरह से सरकारी खर्चे पर विदेश यात्राएं करने की होड़ लग गई थी। हालात इस कदर बिगड़े कि सामान्य तौर पर कांग्रेस विरोधी अखबारों ने भी जनता परिवार भीतर ‘आदर्शवाद की मृत्यु’ जैसी बातें लिखनी शुरू कर दी थी। यह कहा जाने लगा था कि कांग्रेस को अपने सिद्धांत त्यागने में तीस बरस लगे थे, जनता परिवार ने मात्र कुछ महीनों में ही ऐसा कर दिखाया।’
इंदिरा विरोध के सिवाय जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी द्वारा गढ़ी गई जनता पार्टी के नेताओं मध्य कुछ भी एक समान नहीं था। अलग-अलग विचारधाराओं वाले इस जमावड़े में इंदिरा विरोध के अलावा एक अन्य समानता बड़े नेताओं का अति महत्वाकांक्षी होना था। वैचारिक मतभेद, विभिन्न गुटों के मध्य तनाव, जातिगत विवाद और निज महत्वाकांक्षा के नाम समर्पित इन ढाई बरसों के दौरान देश के भीतर कई विषम समस्याओं ने अपनी पकड़ मजबूत करने का काम किया। आम वस्तुओं की कीमत आसमान छूने लगी थी, आर्थिक स्थिति तेजी से बिगड़ी, अपराध में भारी इजाफा हुआ और सामाजिक स्तर पर तनाव भी तेज गति से फैला। जनता राज में कानून व्यवस्था की बदहाली को 1978 में अंग्रेजी पत्रिका ‘इंडिया टुडे’ में प्रकाशित एक समाचार से समझा जा सकता है। इस समाचार में लिखा गया था- ‘गत वर्ष मार्च में जनता पार्टी के सत्ता संभालने बाद से देश भर में हिंसा की लहर नई दिल्ली के साउथ ब्लाॅक (प्रधानमंत्री कार्यालय) में गहरी चिंता पैदा कर रही है। बीते दो महीनों में जनता का ध्यान लगातार खराब हो रही कानून व्यवस्था पर जा टिका है। पिछड़े वर्ग के लिए नौकरियों में आरक्षण की बाबत बिहार के मुख्यमंत्री के निर्णय की खिलाफत में आंदोलन शुरू हो चला है, हैदराबाद और सिकंदराबाद हिंसा की चपेट में है, सम्भल में साम्प्रदायिक झड़प, अमृतसर में निहंगों और निरंकारियों के बीच धार्मिक टकराव, मदुरई में किसान आंदोलन, कांग्रेस (आई) का कलकत्ता में प्रदर्शन और पंतनगर में खेतीहर मजदूरों पर पुलिस फायरिंग ने जनता की चिंताओं को गहराने का काम किया है।’
अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की शुरुआत जनता पार्टी के इन्हीं ढाई बरस के दौरान बिहार से शुरू हुई। 1977 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को परास्त कर बिहार में जनता पार्टी की सरकार का गठन हुआ था। समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री चुने गए थे। ठाकुर ने 70 के दशक की शुरुआत में गठित मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का निर्णय ले राज्य में जातिगत तनाव को चरम् पर पहुंचाने का काम किया। इस रिपोर्ट में सरकारी नौकरियांे में पिछड़ी जातियों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की बात कही गई थी। ठाकुर द्वारा इस आयोग की रिपोर्ट को स्वीकारने के साथ ही बिहार में स्वर्ण जातियों के युवा सड़कों पर उतर आए थे। बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी चलते जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। ठाकुर के इस फैसले से केंद्र सरकार भी अछूती नहीं रह पाई। पिछड़ी जातियों के नेताओं ने मोरारजी देसाई पर केंद्र सरकार की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग को लेकर भारी दबाव बनाना शुरू कर दिया था। संविधान में पहले से ही 15 प्रतिशत आरक्षण अनुसूचित जातियों और 7.5 प्रतिशत आरक्षण अनुसूचित जनजातियों के लिए लागू था। अब मांग उठने लगी कि 26 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ा वर्ग के लिए भी लागू किया जाए। मोरारजी देसाई ने 1979 में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण की परिधि में लाने के लिए एक आयोग का गठन संसद सदस्य बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में कर दिया। मंडल आयोग जनता सरकार के पतन बाद ही अपनी रिपोर्ट तैयार कर पाया था। कालांतर में इस रिपोर्ट ने देश भर में आरक्षण विरोधी आंदोलन को जन्म देने का काम किया, उस पर चर्चा लेकिन बाद में। उत्तर प्रदेश के ख्याति प्राप्त पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय अप्रैल, 1978 में भारी हिंसा की चपेट में आ गया। यहां बहुत अर्से से बेहतर वेतनमान को लेकर कर्मचारी आंदोलन कर रहे थे। यह आंदोलन अप्रैल में बेहद हिंसक हो गया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी जिसमें कई लोग मारे गए।
कैथरीन फ्रैंक के अनुसार पुलिस फायरिंग में 81 प्रदर्शनकारी हताहत हुए थे, सागरिका घोष इस संख्या को 16 बताती हैं। एक विश्वविद्यालय में हुई इस हिंसा ने देश को स्तब्ध करने का काम तब किया था। अपने राजनीतिक वनवास से बेलछी कांड बाद उबरने लगी इंदिरा गांधी ने पंतनगर विश्वविद्यालय का दौरा कर मामले को राजनीतिक रंग दे डाला। इस घटना ने जनता सरकार की छवि और शासन चलाने की उनकी क्षमता को भारी आघात पहुंचाया था। 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट न देने वाली जनता का मन अब जनता परिवार से हटने लगा। उसने 1978 में आजमगढ़ संसदीय सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी मोहसिना किदवई को भारी मतों से विजयी बना दिया। यह हिंदी पट्टी के सबसे महत्वपूर्ण राज्य में मटियामेट हो चुकी कांग्रेस के लिए बड़ी सफलता समान था।
अप्रैल माह में ही पंतनगर से कोसों दूर दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु में भी कानून-व्यवस्था का भारी खतरा किसान आंदोलन के चलते उठ खड़ा हुआ। यहां किसान काफी अर्से से सस्ती दरों में बिजली, रियायती दरों में बैंकों से फसल ऋण और अपनी उपज का सही मूल्य की मांग राज्य सरकार से कर रहे थे। प्रदेश में कई वर्षों से कमजोर मानसून चलते खेती के लिए समुचित पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। 1977 में पहले बाढ़ और फिर समुद्री तूफान ने किसानों को बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया था। 9 अप्रैल 1978 को किसान आंदोलनरत हिंसक हो उठा। पुलिस ने आंदोलनरत किसानों पर गोली चला स्थिति बिगाड़ने का काम कर डाला। इस गोलीबारी में दर्जन भर किसान मारे गए और कई सौ घायल हो गए। हालात इस कदर बिगड़े कि राज्य के कई अन्य जिले भी इस आंदोलन की चपेट में आ गए थे। राज्य सरकार को केंद्र से सेना तैनात तक करने का आग्रह करना पड़ा। ‘द न्यूयाॅर्क टाइम्स’ ने 2 जून, 1978 को प्रकाशित एक समाचार में इस किसान आंदोलन को ‘उग्रवादी संघवाद’ की संज्ञा देते हुए लिखा था- ‘तमिलनाडु के किसानों ने सरकार से रियायतें हासिल करने के लिए उग्र ट्रेड यूनियनवाद को अपना लिया है जो लीक से हटकर है। बीते कुछ हफ्तों में किसान संघ के प्रदर्शनों पर पुलिस फायरिंग चलते 14 लोग मारे जा चुके हैं।’
दक्षिण भारत के ही एक अन्य राज्य आंध्र प्रदेश में भी कानून- व्यवस्था नक्सलवाद चलते इस दौरान दरकने लगी थी। 31 मार्च, 1978 के दिन उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बाहुल्य मुरादाबाद जनपद के संभल शहर में कौमी दंगे भड़क उठे जिनमें 19 लोगों की मृत्यु हो गई थी। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य सरकार के रिजर्व पुलिस बल पीएसी ने दंगों पर काबू पाने के नाम पर 30 मुसलमानों को यहां मार डाला था। इसी समय मध्य प्रदेश में भी पुलिस फायरिंग में एक महिला एवं एक बच्चे सहित 11 लोग मारे गए थे। यह घटना बस्तर जिले में स्थित बैलाडीला आयरन और खदान में अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर रहे मजदूरों के हिंसक हो जाने दौरान 7 अप्रैल, 1978 को हुई थी। रामचंद्र गुहा के अनुसार जनता शासनकाल के प्रथम वर्ष में दस हजार से अधिक जातीय हिंसा की घटनाएं सामने आई थी। 1979 में भी कानून-व्यवस्था का हाल बदहाल ही रहा। जून माह में सेना और पुलिस बलों के मध्य टकराव की कई घटनाओं ने जनता शासन की विफलता को सामने ला दिया था। पुलिस एवं अर्धसैनिक बल जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), केंद्रीय औद्योगिक पुलिस बल (सीआईएसएफ) और राज्यों के पुलिसकर्मी शामिल थे, लम्बे अर्से से बेहतर वेतन व सुविधाओं की मांग कर रहे थे। सरकार द्वारा इनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिए जाने का असर इन सुरक्षा बलों द्वारा हड़ताल की राह पकड़ना और आदेशों की अवहेलना के रूप में सामने आने लगा। स्थितियां इस कदर बिगड़ी कि कई स्थानों पर सुरक्षा बल खुली बगावत पर उतर आए थे। अहमदाबाद में पुलिस की ऐसी ही एक बगावत को रोकने के लिए सेना को मैदान में उतारना पड़ा। 1 जून, 1979 को सेना संग राज्य पुलिसकर्मियों की झड़प ने माहौल को ज्यादा तनावपूर्ण बनाने का काम किया। 25 जून, 1979 को यह तनाव बिहार के बोकारो शहर में विस्फोटक रूप ले बैठा। यहां के सरकारी उपक्रम बोकारो स्टील लिमिटेड की सुरक्षा में तैनात केंद्रीय औद्योगिक पुलिस बल के जवानों ने धरना-प्रदर्शन और भूख हड़ताल का ऐलान कर स्टील प्लांट को घेर लिया था। केंद्रीय अर्धसैनिक बल के ये जवान बगावती तेवर अपना ‘इनकलाब जिंदाबाद’, ‘वर्दी-वर्दी भाई-भाई, लड़कर लेंगे पाई- पाई’ सरीखे नारे लगा सरकार को खुली चुनौती देने लगे। केंद्र सरकार ने इस बगावत को थामने के लिए सेना की मदद लेने का निर्णय ले इन पुलिसकर्मियों को पूरी तरह विद्रोही बना डाला था। 25 जून, 1979 को सैन्य टुकड़ी और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के बागियों के मध्य जमकर गोली-बारी हुई जिसमें एक मेजर व दो अन्य सैन्य कर्मी मारे गए। विद्रोही पुलिसकर्मी भी बड़ी तादात में सेना द्वारा मार दिए गए। इस घटना ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के झरौदाकंला, दिल्ली स्थित कैंप में भी बगावत को अंजाम दे दिया। यहां भी सेना की कार्रवाई में तीन सीआरपीएफ के जवान मारे गए थे। 9 जुलाई, 1979 को त्रिवेंद्रम, केरल में सीआरपीएफ के जवान बगावत पर उतर आए। सशस्त्र सुरक्षा बलों का इस प्रकार हड़ताल करना और अपने देश की सेना के खिलाफ शस्त्र उठा लेना तत्कालीन सरकार की ऐसी विफलता रही जिसने आम जनता का जनता परिवार के प्रति पूरी तरह मोह भंग होने का मार्ग प्रशस्त कर डाला। 31 जुलाई, 1979 को ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका में इस बाबत दिलीप बाॅब और प्रभु चावला की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमें इसे चरण सिंह सरकार का निकम्मापन कह पुकारा गया था- ‘बीते पखवाड़े भारतीय अर्धसैनिक बलों और सेना के मध्य महीने भर तक चली झड़पें समाप्त होती दिख रही हैं, लेकिन इनसे जो संकेत मिले वे बेहद भयावह थे। यह जनता पार्टी के दयनीय शासन पर एक दुखद टिप्पणी थी और चेतावनी भी कि देश की राजनीतिक और प्रशासनिक मशीनरी धीरे-धीरे ठप्प हो रही है…अभी तक जनता सरकार में जिस एक चीज को लेकर निरंतरता दिखी है, वह है उसका निकम्मापन। इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि वह इतना कुछ कर चुकी है जिसे संभाल पाना अब उसके वश में नहीं है।’