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Editorial

गांधी तुम बहुत याद आते हो

मुझको मंदिर-मस्जिद बहुत डराते हैं,
ईद-दिवाली भी डर-डर कर आते हैं
मेरे कर में है प्याला हाला का,
मैं वंशज हूं दिनकर और निराला का
मैं बोलूंगा चाकू और त्रिशूलों पर
मैं बोलूंगा मंदिर-मस्जिद की भूलों पर
… स्वयं सवारों को खाती है गलत सवारी मजहब की
ऐसा ना हो देश जला दे यह चिंगारी मजहब की

                                                       -हरिओम पवार

नब्बे के दशक में लिखी गई यह कविता आज के भारत का सच बन चुकी है। एक ऐसा भारत जो अपनी आत्मा की परछाइयों से डरता है, अपने ही नागरिकों पर शक करता है, और जहां त्योहार अब उल्लास नहीं, भय के साए में मनाए जाते हैं। यह वही भारत है जो एक समय विविधता में एकता का उदाहरण था, लेकिन आज सत्ता, मीडिया और भीड़ की संगठित ताकतें उसे वैमनस्य की खाई में धकेल रही हैं। पहलगाम की त्रासदी जिसमें कश्मीर में हुए आतंकी हमले में भारतीय  नागरिक मारे गए, ने देशभर को झकझोर दिया। लेकिन इस झटके के साथ जो दूसरी लहर आई जो कहीं अधिक जहरीली है, मुसलमानों पर संदेह, कश्मीरियों को शंका की दृष्टि से देखना और सरकार तथा मीडिया की खामोशी या उन्माद।

मुझे इन दिनों महात्मा गांधी बहुत याद आते हैं। भले ही आज के भारत में गांधी को समझने वालों की तादाद कमतर होती जा रही है और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के प्रशंसकों की संख्या बढ़ रही है, गांधी के योगदान को भले ही मूर्खों की जमात ना समझ पाए, उसका मूल्य कम नहीं हो सकता। मैं स्वयं से प्रश्न इन दिनों करता हूं कि क्या यह वही भारत है, जिसके लिए गांधी ने गोली खाई थी? हर बार जब कोई आतंकी हमला होता है, चाहे वह उरी हो, पुलवामा या अब पहलगाम बदले की मांग की जाती है। लेकिन यह बदला आतंकवादियों से नहीं, मुसलमानों से लिया जाता है। ऐसा लगता है कि पूरा देश सजा देने की मानसिकता में बदल जाता है – बगैर यह सोचे कि कौन दोषी है, कौन निर्दोष? मध्य प्रदेश के एक बद जुबान मंत्री द्वारा सेना की अफसर कर्नल सोफिया कुरैशी पर की गई टिप्पणी इस मानसिकता का घिनौना चेहरा है। यह किसी महिला सैनिक का नहीं, पूरी भारतीय सेना के उसूलों का अपमान है। क्या अब देशभक्ति भी धर्म देखकर तय होगी? इसी मानसिकता का शिकार हुईं हिमांशी नरवाल, जिन्होंने अपने पति की पहलगाम में हत्या के बाद भी खुद संयम रखा और देशवासियों को भी संयम बरतने की सलाह दी। उन्हें सोशल मीडिया पर धमकियां दी गईं, ट्रोल किया गया और गद्दार करार दिया गया। इस देश में अब प्रतिरोध करना देशद्रोह माना जाता है – खासकर अगर वह किसी अल्पसंख्यक के हक में हो।
बीते दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने काॅलेजों को निर्देश दिया कि वे अपने कश्मीरी छात्रों की सूची भेजें। यह वह कदम है जो हमें हिटलर के नाजी जर्मनी की याद दिलाता है, जहां यहूदियों को चिह्नित कर उन्हें समाज से काट दिया गया था। क्या हम उस ओर बढ़ रहे हैं? तेलंगाना की कराची बेकरी पर हमला हुआ क्योंकि उसके नाम में ‘कराची’ था, जबकि वह बेकरी एक हिंदू द्वारा चलाई जा रही थी। महाराष्ट्र में मंत्री नितेश राणे ने मुसलमानों की पहचान के लिए उन्हें हनुमान चालीसा पढ़ने को कहने का सुझाव दिया और फिर उनके बहिष्कार की बात कही। राजस्थान में सैकड़ों मुसलमानों को ‘बांग्लादेशी’ बताकर गिरफ्तार किया गया। यह सब कोई छिटपुट घटनाएं नहीं हैं, यह एक राज्य-प्रायोजित नफरत का सुनियोजित विस्तार है। यह वह लोकतंत्र नहीं है जो हमने संविधान सभा में गढ़ा था।
मेरा यह मत है कि आज भारत को सबसे बड़ा खतरा मीडिया से है, क्योंकि उसने सच्चाई के बजाय उन्माद और तर्क के बजाय शोर को चुना है। अर्नब गोस्वामी, अंजना ओम कश्यप, नविका कुमार, रुबिका लियाकत और उन जैसे बहुत सारे अन्य चेहरे अब समाचार प्रस्तुतकर्ता नहीं, युद्ध के ढोलची बन चुके हैं। उन्होंने जो नैरेटिव गढ़ा है – वह यही है कि मुसलमान, कश्मीरी, या कोई भी असहमति रखने वाला  देशद्रोही है। टेलीविजन स्टूडियोज में ‘डिबेट’ अब न्याय का माध्यम नहीं, अपमान का अखाड़ा बन चुकी हैं। ये कार्यक्रम उस भीड़ का समर्थन करते हैं जो सड़कों पर लिंचिंग करती है। यही वह ‘नया भारत’ है  जिसमें संविधान अब सिर्फ किताबों में रह गया है। 7 मई 2025 को, भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में नौ आतंकवादी ठिकानों पर हवाई हमले किए। सरकार का दावा था कि सौ से अधिक आतंकी मारे गए, लेकिन एक भी नागरिक नहीं। अगले ही दिन पाकिस्तान ने जवाबी कार्रवाई में भारत के 15 नागरिकों को मार डाला। अंतरराष्ट्रीय मीडिया की रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत के हमलों में महिलाएं और बच्चे भी मारे गए। इस विषय पर देश के प्रधानमंत्री चुप रहे। न कोई संवेदना, न कोई शांति की अपील। केवल राष्ट्रवाद की लहर और युद्ध की हुंकार। क्यों नहीं पूछा गया कि हमने क्या हासिल किया? क्या हमने आतंकवाद खत्म कर दिया? पीओके वापस ले लिया? पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया? जवाब है नहीं।
यह वह वक्त है जब हमें यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद का अर्थ उन्माद नहीं होता। मैकियावेली का कथन है कि ‘अगर किसी को चोट पहुंचाओ तो इतनी गहरी हो कि वह बदला लेने की स्थिति में ही न रहे।’ लेकिन आज की राजनीति इस विचारधारा का सतही उपयोग करती है अपनी ही जनता को बांटने के लिए। हम यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति है, जिसे चीन का समर्थन प्राप्त है। युद्ध में दोनों ओर सिर्फ नुकसान है और जीत की कोई स्थायी गारंटी नहीं।
आज महात्मा गांधी की जरूरत पहले से कहीं अधिक मैं महसूसता हूं।  दुख की बात यह है कि अब गांधी को भी ‘देशद्रोही’ कह दिया जाता है। अगर आज गांधी जीवित होते तो उन्हें भीड़ पीट-पीटकर मार देती जैसे उन्होंने पहले भी किया था। हमने गांधी की उस सीख को भुला दिया है जिसमें वे कहते थे – ‘आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।’ अब हमें यह तय करना होगा कि हम किस ओर जाना चाहते हैं। क्या हम पाकिस्तान से बात करेंगे और आतंकवाद को एक साझा खतरा मानकर मिलकर लड़ेंगे? या फिर एक ऐसी अनंत लड़ाई की तैयारी करेंगे, जो दोनों देशों को खून से रंग देगी? आज विकल्प दो ही हैं या तो हम शांति की ओर बढ़ें या फिर इतिहास हमें उन सभ्यताओं की तरह याद रखेगा जो अपने ही जहर में डूब गईं।
स्मरण रहे मात्र 77 बरस पहले मिली आजादी हमें धर्म आधारित विभाजन के बाद मिली थी। हम आजाद जरूर हुए लेकिन आधी रात आई इस आजादी ने हमें भौगोलिक दृष्टि से दो टुकड़ों में तो बांटा ही, हमारे समाज को भी दो टुकड़ों में विभाजित करने का काम किया। हम इन दो टुकड़ों को बीते 77 बरसों में एक कर पाने में सर्वथा विफल रहे और अब हम न केवल धर्म आधारित दो टुकड़ों में बंटा हुआ समाज हैं, बल्कि जाति और आर्थिक असमानता नया संकट बन मुंह बाए खड़ी है। अखंड भारत की बात करने वाले खुद इसे खंड-खंड बांटने का पाखंड पूरी शिद्दत से कर रहे हैं। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अब जाति केवल सामाजिक पहचान नहीं बल्कि राजनीतिक हथियार, सामाजिक भेदभाव और अवसरवाद का जरिया बन चुकी है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण से लेकर आरक्षण की राजनीतिक तक, हर जगह जातिगत वर्गीकरण ने योग्यता, समरसता और समान अवसर के सिद्धांत को प्रभावित करने का काम कर दिखाया है। इसलिए मैं आशंकित हूं कि आने वाले समय में या तो आर्थिक असमानता अथवा जाति का मुद्दा इस पहल से ही विभक्त समाज को और बांटने का विध्वंसकारी काम करेगा ही करेगा।
हरिओम पवार की पंक्तियों से इस लेख की शुरुआत मैंने की है। यह पंक्तियां इस लेख की आत्मा भी हैं। ‘मैं वंशज हूं दिनकर और निराला का’। यह केवल कविता नहीं, एक चेतावनी है। अगर इस देश के साहित्य, विचार और चेतना की परम्परा को जीवित रखना है तो हमें उस भारत की रक्षा करनी होगी जिसमें सभी विचार, धर्म, पहचान और प्रश्न पूछने की आजादी हो वरना हम केवल भय, विभाजन और बारूद की विरासत आने वाली पीढ़ी को सौंपेंगे।

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