“A University stands for humanism, for tolerance, for reason, for the adventure of ideas and for the search of truth. It stands for the onward march of the human race towards even higher objectives. If universities discharge their duties adequately, then it is well with the nation and the people.” ‘विश्वविद्यालय मानवतावाद, सहिष्णुता, तर्क, विचारों के साहसिक अन्वेषण और सत्य की खोज के लिए खड़े होते हैं। वे मानवता की उच्चतर लक्ष्यों की ओर निरंतर यात्रा के प्रतीक हैं। यदि विश्वविद्यालय अपने कर्तव्यों को सही ढंग से निभाते हैं तो देश और जनता की स्थिति भी अच्छी होगी।’)
-पंडित जवाहरलाल नेहरू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 13 दिसम्बर 1947
इन दिनों मुझे महात्मा गांधी और नेहरू बार-बार, कई बार याद आने लगे हैं। कारण है वर्तमान दौर जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों मानवीय गरिमा और सामाजिक समरसता लगातार सिकुड़ती जा रही है। बहुसंख्यक हिंदू समाज कट्टरपंथ की राह पर निकल पड़ा है, धर्म उसके विवेक पर हावी हो गया है। गांधी की सर्व धर्म प्रार्थना सभा में कुरान, बाइबल, गीता, बौद्ध, जैन, सिख इत्यादि धर्म का पालन होता था। आज के भारत में इसकी कल्पना तक करना आपको राष्ट्रद्रोही करार कर सकता है। पंडित नेहरू समावेशी समाज की बात करते थे, वे जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करते थे और उन मूल्यों का सम्मान करते थे वह आज के भारत में सम्भव नजर नहीं आता है। नेहरू एक ऐसा लोकतंत्र चाहते थे जिसमें विश्वविद्यालयों की भूमिका केवल ज्ञान देने तक सीमित नहीं, बल्कि नए विचारों को जन्म देने, असहमति को संरक्षित रखने और सत्ता से सवाल पूछने की रही है। अब लेकिन विश्वविद्यालय एक एजेंडा विशेष के तहत संचालित किए जाने लगे हैं और ऐसी शिक्षण संस्थाएं जहां आज भी लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्य की बात कही जाती है उन्हें सत्ता के क्रोध का शिकार होना पड़ रहा है। ताजा उदाहरण है निजी विश्वविद्यालय अशोका यूनिवर्सिटी जिसकी स्थापना नेहरूवादी मूल्यों को सहेजने के लिए हुई थी तो आज लेकिन अशोका यूनिवर्सिटी, राजनीतिक और वैचारिक हमलों के निशाने पर है। जेएनयू की तरह अशोका को भी राष्ट्र-विरोधी मानसिकता का अड्डा कहा जा रहा है। अली खान महमूदाबाद प्रकरण के माध्यम से जिस संगठित आक्रमण की शुरुआत हुई, उसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग, महिला आयोग, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ और हरियाणा सरकार, सभी किसी न किसी रूप में शामिल हैं। इससे पहले भी कई बार अशोका के शिक्षकों को सत्ता की असहजता का सामना करना पड़ा है। प्रो. प्रताप भानु मेहता, अरविंद सुब्रमणियन और प्रो. सव्यसाची दास, सभी को उनके विचारों के कारण संस्थान छोड़ना पड़ा। विश्वविद्यालय प्रशासन की नीति स्पष्ट रही है, सत्ता को असहज करने वाले शिक्षकों की बलि देकर संस्थान की ‘सुरक्षा’ सुनिश्चित करना। लेकिन यही ‘सुरक्षा नीति’ अंततः उस विचार की हत्या करती है जिसकी रक्षा करने का दावा ये संस्थान करते हैं।
यह स्थिति केवल अशोका या जेएनयू तक सीमित नहीं है। थोड़ा पीछे जाकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में विश्वविद्यालयों की भूमिका को समझिए। इलाहाबाद, कोलकाता और अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालय ही वे स्थान थे जहां से आधुनिक भारत के विचार, नेतृत्व और असहमति के बीज अंकुरित हुए। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी हों या महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित छात्र नेता, सबका आधार शिक्षा और आलोचना की यही जमीन थी। इन्हीं विश्वविद्यालयों में से कई को ब्रिटिश राज ने ‘राजद्रोही गतिविधियों के केंद्र’ के रूप में देखा और शिक्षकों-छात्रों को दंडित किया गया। उस दौर में विश्वविद्यालयों ने सत्ता के सामने झुकने से इनकार किया। आज जब लोकतंत्र को 75 वर्ष से अधिक हो चुके हैं, वही संस्थाएं यदि झुकने लगे तो यह हमारे सामाजिक विवेक के पतन की ओर इशारा है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य देखें तो तुर्की में राष्ट्रपति एर्दोआन ने 2016 के बाद हजारों शिक्षकों को बर्खास्त किया, यूनिवर्सिटी बोर्ड को सीधा सरकार के अधीन किया और कैम्पस में असहमति को देशद्रोह घोषित किया। हंगरी में विक्टर ओरबन की सरकार ने सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी को जबरन देश से बाहर कर दिया क्योंकि वह ‘लिबरल विचारों’ को बढ़ावा देती थी। चीन में तो विचारों की स्वतंत्रता का संकट और भी घना है जहां कम्युनिस्ट पार्टी से असहमत कोई भी अकादमिक शोध राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता है। भारत में भी ट्रेंड यही बन रहा है, जब सत्ता के अनुकूल विचार ही शिक्षकों की नियुक्ति और छात्रों की विचारधारा तय करें तो विश्वविद्यालय का स्वायत्त होना एक भ्रम बन जाता है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में शोध को ‘राष्ट्रीय प्राथमिकताओं’ से जोड़ने का दबाव भी इस ओर संकेत करता है कि अब शिक्षा भी शासन की विचारधारा के अनुरूप ढलने को बाध्य है। जेएनयू और अशोका में समानता केवल वैचारिक नहीं, प्रतीकात्मक भी है। दोनों संस्थानों में बहुलता, उदारता और असहमति की परम्परा रही है। जेएनयू में योगेंद्र यादव, नंदिनी सुंदर और आनंद तेलतुंबड़े जैसे विद्वानों ने वैचारिक बहस को आकार दिया तो अशोका ने भी अरविंद सुब्रमणियन, मेहता और दास जैसे विद्वानों के जरिए
अकादमिक उत्कृष्टता की एक नई परम्परा शुरू की और यही बात सत्ता को असहज करती है। जेएनयू और इलाहाबाद सरीखे विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलनों की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। चाहे वह 1974 का बिहार आंदोलन हो या 2016 का जेएनयू आंदोलन, छात्रों ने हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़े होकर विश्वविद्यालयों की आत्मा को जीवित रखा है। लेकिन आज छात्र आंदोलन भी खतरे में हैं। कैम्पस में राजनीतिक संगठनों के कब्जे और प्रशासनिक दमन के चलते स्वतंत्र विचारों की आवाज दब रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और एनएसयूआई जैसे संगठन अब विचारों की लड़ाई कम और सत्ता की अभिलाषा ज्यादा बन गए हैं। ऐसे में अली खान महमूदाबाद के समर्थन में उठे छात्रों की आवाज आशा की किरण बन जाती है जो लोकतंत्र की आत्मा को बचाए रखने का प्रयास है।
अकादमिक उत्कृष्टता की एक नई परम्परा शुरू की और यही बात सत्ता को असहज करती है। जेएनयू और इलाहाबाद सरीखे विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलनों की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। चाहे वह 1974 का बिहार आंदोलन हो या 2016 का जेएनयू आंदोलन, छात्रों ने हमेशा सत्ता के विरुद्ध खड़े होकर विश्वविद्यालयों की आत्मा को जीवित रखा है। लेकिन आज छात्र आंदोलन भी खतरे में हैं। कैम्पस में राजनीतिक संगठनों के कब्जे और प्रशासनिक दमन के चलते स्वतंत्र विचारों की आवाज दब रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और एनएसयूआई जैसे संगठन अब विचारों की लड़ाई कम और सत्ता की अभिलाषा ज्यादा बन गए हैं। ऐसे में अली खान महमूदाबाद के समर्थन में उठे छात्रों की आवाज आशा की किरण बन जाती है जो लोकतंत्र की आत्मा को बचाए रखने का प्रयास है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक ओर भारत के शिक्षा ढांचे को आधुनिक बनाने का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ इससे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर भी गम्भीर प्रश्न उठते हैं। ‘राष्ट्रीय विचारधारा’ से जुड़ी शोध की प्राथमिकता, शैक्षणिक संस्थाओं के निजीकरण की राह और मूल्यांकन प्रक्रियाओं में केंद्रीकरण जैसे प्रावधान शिक्षा को अधिक नियंत्रण और कम स्वतंत्रता की दिशा में ले जाते हैं। अशोका जैसे संस्थान यदि स्वतंत्र शोध के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं तो उन्हें इस नीति के साथ टकराव से बचना असम्भव है। निजी विश्वविद्यालयों के सामने एक संकट उनके संस्थापकों के आर्थिक हितों का भी है। अशोका यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान प्रमुख उद्योगपतियों और परोपकारी पूंजीपतियों द्वारा स्थापित और वित्तपोषित हैं। यह माॅडल एक ओर उच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराता है, लेकिन दूसरी तरफ इससे एक खतरा भी जुड़ा है कि क्या शिक्षा भी अब दानदाता की पसंद के अनुरूप ढलेगी? जब सरकार और पूंजी दोनों मिलकर किसी संस्थान की विचारधारा तय करने लगें तो फिर शिक्षकों और छात्रों की स्वतंत्रता कहां बचेगी? अशोका को इस बात की सावधानी रखनी होगी कि वह केवल पूंजी से संचालित न हो जाए।
इतिहास हमें सिखाता है कि सत्ता का चरित्र बदल सकता है, लेकिन उसकी आलोचना का स्वर यदि दब गया तो लोकतंत्र खोखला हो जाता है। आपातकाल के दौरान विश्वविद्यालयों और शिक्षकों को सबसे पहले निशाना बनाया गया था। दिल्ली विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और जेएनयू में कई शिक्षकों को बर्खास्त किया गया, कई छात्रों को जेल भेजा गया। आज यही सब लोकतांत्रिक सत्ता के नाम पर दोहराया जा रहा है। फर्क बस इतना है कि अब यह ‘राष्ट्रवाद’, ‘धार्मिक पहचान’ और ‘शांति व्यवस्था’ के नाम पर हो रहा है।
आज का युवा सबसे अधिक भ्रमित है। एक तरफ उससे राष्ट्र निर्माण में भागीदारी की उम्मीद की जाती है, दूसरी ओर उसे चेतावनी दी जाती है कि ‘गलत विषय’ चुनने पर उसकी शोधवृत्ति, नौकरी या संस्थान से निष्कासन हो सकता है। यह भय एक ‘चिलिंग इफेक्ट’ पैदा करता है, जहां लोग स्वेच्छा से चुप रहना बेहतर समझते हैं। यह आत्म-सेंसरशिप लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका के उदाहरण यहां हमें स्वतंत्र शिक्षण संस्थानों का महत्व समझाते हैं। कोरिया ने 1980 के दशक में सैनिक तानाशाही के विरुद्ध छात्रों और शिक्षकों की एकजुटता के बल पर लोकतंत्र बहाल किया था। वहां विश्वविद्यालय लोकतांत्रिक चेतना के स्तम्भ बने। दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के बाद विश्वविद्यालयों ने अपने पाठ्यक्रम, प्रतिनिधित्व और शोध को समावेशी और न्यायप्रिय बनाने की कोशिश की।
भारत में भी हमें शिक्षा को केवल नौकरी नहीं, सामाजिक न्याय और विवेक का माध्यम बनाना होगा। एक लोकतंत्र तभी टिक सकता है जब उसमें विचारों की विविधता बनी रहे। संविधान निर्माता डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर ने बार-बार चेताया था कि ‘संविधान केवल कागज का दस्तावेज नहीं है, वह तभी जीवित रहेगा जब उसमें उल्लेखित मूल्य सामाजिक व्यवहार में भी उतरे।’ अगर हम विश्वविद्यालयों को डर, चुप्पी और नियंत्रण की प्रयोगशाला बना देंगे तो लोकतंत्र की आत्मा सूख जाएगी।
आज जरूरत है कि शिक्षक, छात्र, अभिभावक और समाज मिलकर उस शिक्षा व्यवस्था की रक्षा करें जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना को सहेजे। अगर अशोका यूनिवर्सिटी और उसके जैसे संस्थानों को सत्ता या पूंजी के हितों के अनुसार चलाना शुरू कर दिया गया तो यह केवल एक संस्थान की मृत्यु नहीं होगी, यह एक विचार की हत्या होगी। अंततः जब कोई भी विश्वविद्यालय नेहरू के उस कथन को साकार करता है- “If Universities discharge their duties adequately, then it is well with the nation”, तो वह न केवल शिक्षा दे रहा होता है, बल्कि लोकतंत्र का भविष्य भी गढ़ रहा होता है। इसलिए यह जिम्मेदारी अब हम सबकी है कि हम बोलें, सोचें और सत्य की ओर बढ़ते रहें, चाहे सत्ता को यह असुविधाजनक क्यों न लगे।