सत्ता की आस में सक्रियता
कृष्ण कुमार
उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत पहले अपनी ‘आम पार्टियों’ को लेकर चर्चा में रहे तो इन दिनों उनकी ‘काफल पार्टियां’ सुर्खियों में हैं। काफल पार्टियों में जिस तरह सपा, बसपा और वामपंथी पार्टियों के नेताओं को आमंत्रित किया गया उसके राजनीतिक अर्थ निकाले जा रहे हैं। साफ है कि रावत राज्य में कांग्रेस की समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन बनाने में जुट चुके हैं। सूत्रों का तो यहां तक मानना है कि कांग्रेस आलाकमान ने रावत की इसी सक्रियता को देखते हुए उन्हें नैनीताल से आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए हरी झंडी दे दी है। वे यहां से भाजपा विरोआँाी गठबंधन के साझा उम्मीदवार हो सकते हैं
पर्वतीय क्षेत्र के ऊंचे इलाकों में पैदा होने वाले ‘काफल’ न सिर्फ खाने में स्वादिष्ट होते हैं, बल्कि इन्हें पहाड़वासियों के सामाजिक जीवन और उनकी जीवटता से जोड़कर भी देखा जाता है। दरसल, काफल ऐसा वृक्ष है जो बड़ी मुश्किल से उग पाता है। काफल के बीजों से इंसान सीधा पौधा नहीं उगा सकता है, बल्कि इसके लिए उसे पहले किसी पक्षी के पेट से होकर गुजरना पड़ता है। पक्षी की बीट के साथ जब यह जमीन पर गिरता है, तो तब अंकुरित होकर वृक्ष का रूप लेता है। इतनी कठिन प्रक्रिया से गुजरने के बावजूद काफल की ‘जीवटता’ ही कही जाएगी कि वह आज भी ऊंचे पहाड़ों में अपना अस्तित्व बनाए हुए है। सदियों से पर्वतीय समाज के लोगों के दिलों में रचा-बसा यह फल यहां की संस्कृति का अभिन्न अंग बना हुआ है। पर्वतीय समाज को जीवटता का संदेश देते आ रहे काफल के मर्म को राज्य के बहुत कम राजनेता समझ पाए हैं। जिसने यह समझ लिया वह तमाम विषम हालात में उठने की कोशिश करता है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का राजनीतिक जीवन भी कुछ ऐसा ही है। रावत के अतीत के राजनीतिक जीवन पर गौर करें तो वे एक ऐसे राजनेता हैं जिनका पूरा इतिहास उठकर गिरने और गिरकर उठने का रहा। वे लगातार चार बार लोकसभा चुनाव जीते और इसी तरह चार बार हारे भी। लेकिन हर स्थिति में वे चुप नहीं बैठे। पृथक राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड में कांग्रेस संगठन को मजबूत करने में उन्होंने जो भूमिका अदा की उसके चलते कांग्रेस २००२ के पहले विधानसभा चुनाव में सत्तासीन हुई। मगर रावत मुख्यमंत्री नहीं बनाए गए। इसके बावजूद रावत इस कदर सक्रिय रहे कि अल्मोड़ा में लगातार असफलता के बाद उन्होंने हरिद्वार में नई जमीन की तलाश की और २००९ में यहां से लोकसभा चुनाव जीतकर सबको चौंका दिया। वे केंद्र में मंत्री बने, लेकिन २०१२ में राज्य में कांग्रेस की वापसी हुई तो इस बार भी मुख्यमंत्री पद के लिए उनका नंबर काट दिया गया। इसका उनके समर्थकों ने तीव्र विरोध किया। २०१३ की आपदा के बाद अंततः कांग्रेस पार्टी को उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने आपदाग्रस्त केदारनाथ में पुनर्निर्माण कार्य करवाकर फिर से यात्रा सुचारू करवाने में खास दिलचस्पी दिखाई। अपनी विकास योजनाओं के जरिये लगातार संदेश दिया कि वे विकास चाहते हैं। लेकिन इसी बीच पार्टी के विधायक टूट गए। राज्य को राष्ट्रपति शासन देखना पड़ा। मगर रावत ने अपनी जीवटता बरकरार रखी तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उनकी सरकार विधानसभा में पुनः बहुमत हासिल कर गई। पार्टी की टूट के बाद विधानसभा चुनाव में उतरी कांग्रेस २०१७ में बुरी तरह हार गई। यहां तक कि खुद रावत दोनों सीटों से चुनाव हार गए। इसके बावजूद रावत किसी हारे हुए खिलाड़ी की तरह मायूस होकर चुपचाप द्घर नहीं बैठे। वे मन से हार स्वीकार नहीं कर पाए। यही वजह है कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा करने के लिए निरंतर कार्यक्रम देते रहे। सत्ता में रहते हुए उन्होंने पहाड़ की। परंपरागत फसलों की ब्रांडिंग की तो अब सड़क पर आने के बाद उन्होंने ‘काफल पार्टियों’ का आयोजन कर मैदान के लोगों को पहाड़ के इस फल से परिचित कराने में भूमिका निभाई है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पुण्य तिथि पर हरीश रावत द्वारा देहरादून में ‘काफल पार्टी’ के आयोजन से एक बात तो साफ हो गई कि रावत उन पहलुओं को छूने का काम करते हैं जिनको कोई अन्य राजनेता सोच भी नहीं सकता। सरकार पीपीपी मोड़ की बात करती रही है, लेकिन हरीश रावत के लिए पीपीपी मोड़ का मतलब पहाड़, परंपरा और पलायन के तौर पर रहा है। यही वजह है कि रावत चाहे अपने जन्म दिन का अवसर हो या फिर किसी राष्ट्रीय नेता की जयंती या पुण्यतिथि, हर अवसर पर उत्तराखण्ड के परंपरागत पकवानों, अनाजों और फलों के जरिये कार्यक्रम करके एक साथ कई संदेश देने का काम करते रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक रावत की इन काफल पार्टियों को उनकी नई संभावनाओं के तौर पर देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि रावत की सक्रियता को देखते हुए पार्टी उन्हें नैनीताल से अगला लोकसभा चुनाव लड़वाने का मन बना चुकी है। राजनीतिक तौर पर देखा जाये तो हरीश रावत आज भी एक राजनीतिक पाठशाला की तरह अपनी प्रासंगिकता बनाये हुये हैं। पूर्व में अपने जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने पहाड़ी पकवानों से अपने प्रसंशकों का परिचय करवाया। जिसमें उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनजीवन में रचे-बचे पकवान जैसे अरसा, भांग के बीजों की चटनी, झंगोरे की खीर, कंडाली की पत्तियों से बनी चाय का परिचय देहरादून के निवासियों से करवा चुके हैं। पहले ‘आम पार्टियों’ और अब ‘काफल पार्टियां’ के जरिए रावत कांग्रेस में अपने विरोधियों को भी यह संदेश देने में कामयाब हैं कि आज भी उत्तराखण्ड की जड़ों से जुड़ने वाले एक मात्र कांग्रेसी नेता वही हैं। काफल पार्टी में हरीश रावत ने जिस तरह से सपा, बसपा और वामपंथी पार्टियों के नेताओं को बुलाया उसके स्पष्ट संदेश हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव के लिए रावत राज्य में कांग्रेस की समान विचारधारा वाले दलों का गठबंधन बनाने मंें जुटे हुए हैं। रावत नैनीताल में गठबंधन के साझा प्रत्याशी भी होंगे। सूत्रों के मुताबिक विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ता बुरी तरह हताश हो गए थे। ऐसे में प्रदेश कांग्रेस संगठन को चहिए था कि वह कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा उठाने के लिए ठोस कार्यक्रम देता। लेकिन संगठन ऐसा कर पाने में असफल रहा। ऐसे में हरीश रावत अकेले यात्राओं और कार्यक्रमों के जरिये राज्य सरकार को अहसास कराते रहे कि कांग्रेस में अब भी काफी ऊर्जा बाकी है। सरकार की नीतियों पर रावत जमकर प्रहार करते आ रहे हैं। अब थराली में पार्टी उम्मीदवार को जितवाने के लिए गाड-गदेरों और दुर्गम रास्तों को पार कर, वे लोगों के बीच जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस आज भी उनके बूते जीवित है। उनकी इसी जीवटता को देखकर ही आलाकमान आज भी उनमें भविष्य की संभावनाएं देख रहा है। नैनीताल से उनका लोकसभा चुनाव लड़ना तय है।