दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने आम आदमी पार्टी के हक में फैसला सुनाते हुए कहा, निर्वाचित सरकार को प्रशासन पर नियंत्रण रखने की जरूरत है। दिल्ली भले ही पूर्ण राज्य न हो, लेकिन इसके पास कानून बनाने के अधिकार हैं। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि दिल्ली के कल्याण से जुड़ी योजनाओं पर दिल्ली सरकार निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है
देश की राजधानी दिल्ली के अधिकतर मुद्दों पर आम आदमी पार्टी और उपराज्यपाल में तनातनी की स्थिति बनी रहती है। कभी मुफ्त की सुविधाओं को लेकर तो कभी अधिकारों को लेकर देश की राजधानी सियासी अखाड़ा बनती आई है। नजीब जंग से लेकर वीके सक्सेना तक हर उपराज्यपाल के साथ अरविंद केजरीवाल सरकार का विवाद किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अब केंद्र सरकार अपनी ओर से मनचाही योजनाएं उपराज्यपाल के जरिए दिल्ली सरकार पर थोप नहीं पाएगी। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस फैसले के बाद उपराज्यपाल की ताकत सिमटकर रह जाएंगी और दिल्ली सरकार के लिए फैसले लेने की राह आसान हो जाएगी। दरअसल गत सप्ताह दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने आम आदमी पार्टी सरकार के हक में फैसला सुनाते हुए कहा निर्वाचित सरकार को प्रशासन पर नियंत्रण रखने की जरूरत है। दिल्ली भले ही पूर्ण राज्य न हो, लेकिन इसके पास कानून बनाने के अधिकार है। अदालत ने कहा, यह निश्चित करना होगा कि राज्य का शासन केंद्र के हाथ में न चला जाये। हम सभी जज इस बात से सहमत है कि ऐसा आगे कभी न हो। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि दिल्ली के कल्याण से जुड़ी योजनाओं पर दिल्ली सरकार निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। उसे राज्यपाल द्वारा रोका नहीं जा सकता हैं। कोर्ट के इस फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली के किंग केजरीवाल ही हैं।
गौरतलब है कि देश की राजधानी दिल्ली को लेकर कई सारे सवाल पैदा होते हैं कि आखिर दिल्ली पर नियंत्रण को लेकर इतनी खींचतान क्यों हैं? इसका जवाब है कि दिल्ली सिर्फ एक शहर, राजधानी और राज्य भर नहीं है बल्कि एक केंद्र शासित प्रदेश भी है। 12 दिसंबर 1931 को अंग्रेजों ने दिल्ली को ब्रिटिश इंडिया की राजधानी बनाया। आजादी के बाद भी भारत की राजधानी दिल्ली ही बनी थी। वर्ष 1956 तक दिल्ली की अपनी विधानसभा हुआ करती थी, लेकिन 1956 में आए राज्य पुनर्गठन कानून से राज्यों का बंटवारा हुआ। इस दौरान दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। विधानसभा भंग हुई और राष्ट्रपति का शासन लागू हो गया, करीब 35 साल तक यह सिलसिला जारी रहा।
एनसीटी एक्ट ने बदली कहानी
पूरी कहानी तब बदल गई जब वर्ष 1991 में नेशनल कैपिटल टेरिटरी (एनसीटी) एक्ट पास हुआ। इसके बाद दिल्ली को 1992 में गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी (एनसीटी) का दर्जा मिला। इससे 1993 में दिल्ली में फिर से विधानसभा का गठन हुआ। इस कानून के मुताबिक, यहां केंद्र और एनसीटी की सरकार, दोनों को मिलकर शासन करना होगा। इसके बाद से कुछ शक्तियां केंद्र और कुछ दिल्ली सरकार में बंटी। असली तनातनी और गतिरोध की वजह यही होती है।
इस एक्ट के पास होने के बाद से शुरू हुई नियंत्रण और अधिकारों को लेकर लड़ाई। एक्ट के मुताबिक दिल्ली की जमीन, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था पर केंद्र का अधिकार रहता है। बाकी दूसरे मसलों पर भी कानून लाने के लिए दिल्ली सरकार को केंद्र की मंजूरी लेनी आवश्यक होती है। तब से ही दिल्ली सरकार की शिकायत है कि यहां की पुलिस पर उसका नियंत्रण नहीं है और जब भी कोई अपराध होता है तो लोग दिल्ली सरकार को दोष देते हैं। इसके अलावा दिल्ली सरकार का यह भी आरोप है कि केंद्र उपराज्यपाल के जरिए उसके कामकाज में बाधा डालता है। वहीं, केंद्र सरकार का कहना है कि दिल्ली देश की राजधानी है, इसलिए इसे राज्य के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास, राष्ट्रपति आवास के अलावा संसद और दूतावास है, जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी केंद्र की है।
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा था कि जमीन, पुलिस और लोक व्यवस्था को छोड़कर बाकी सभी मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास है। काफी समीक्षा और व्याख्या के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एलजी अपने दम पर नहीं चल सकते। उन्हें दिल्ली सरकार के साथ मिलकर, उसकी सलाह और सहयोग से काम करना होगा। समीक्षा के बाद मामला दो न्यायाधीशों की नियमित पीठ को सौंप दिया गया। ताकि यह तय किया जा सके कि दिल्ली के कामकाज, अधिकारियों और सेवाओं के ट्रांसफर- पोसि्ंटग से जुड़े अधिकार जैसे मामलों पर किसका कितना नियंत्रण होगा।
2019 में कोर्ट ने क्या कहा था
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का फैसला 14 फरवरी 2019 को आया। लेकिन अधिकारियों के ट्रांसफर-पोसि्ंटग और सर्विस कंट्रोल पर दोनों जज जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की राय अलग-अलग थी। जस्टिस सीकरी ने कहा कि संयुक्त सचिव रैंक और उससे ऊपर के अधिकारियों के ट्रांसफर का अधिकार उपराज्यपाल के पास होगा। इससे नीचे के अधिकारी दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आएंगे। लेकिन अगर ऐसे मामलों में दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच मतभेद होता है तो उपराज्यपाल की राय ऊपर मानी जाएगी। जस्टिस भूषण की राय अलग थी। चूंकि बेंच में सिर्फ दो जज थे और दोनों इस मामले पर एकमत नहीं हो सके, इसलिए इस मामले को तीन जजों की बेंच को रेफर कर दिया गया। मई 2022 में तीन जजों की बेंच ने इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजने के लिए याचिका दायर की थी। जुलाई 2022 में चीफ जस्टिस ने इसे संविधान पीठ को भेज दिया। जिसका फैसला 11 मई, 2023 को आ गया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने इस केस में कहा कि लोकतंत्र, संघीय ढांचा संविधान की मूलभूत संरचना का हिस्सा है। चीफ जस्टिस ने कहा कि जस्टिस अशोक भूषण के 2019 के फैसले से हम सहमत नहीं हैं कि दिल्ली सरकार के पास सेवाओं पर कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। निर्वाचित सरकार का प्रशासन पर नियंत्रण आवश्यक है। इस बार कोर्ट ने यह फैसला सर्वसम्मति से दिया है।
- कोर्ट ने क्या कहा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली सरकार के पास विधायी और कार्यकारी शक्तियां हैं।संविधान का अनुच्छेद 239 ए(3)(ए) यह नहीं कहता है कि गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल ऑफ दिल्ली की विधायिका के पास लिस्ट 1, 2 और 8 से डील करने की क्षमता नहीं है।सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि जैसे विषयों के अलावा सभी सेवाओं पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण है।
अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी चुनी हुई सरकार की व्यवस्था है।
केंद्र की शक्ति का कोई और विस्तार संवैधानिक योजना के प्रतिकूल होगा।
भले ही दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है, लेकिन इसके पास लिस्ट 2 और 3 के तहत विधायी शक्तियां हैं। संविधान का अनुच्छेद 239ए (ए) देश में एक संघीय ढांचे की वकालत करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर सेवाओं को विधायी, कार्यकारी अधिकार क्षेत्र से बाहर किया जाता है तो मंत्रियों को सरकारी अधिकारियों पर नियंत्रण से बाहर रखा जाएगा।
अगर अधिकारियों को मंत्रियों को रिपोर्ट करने से रोका जाता है तो सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत पर असर पड़ता है।
लोकतांत्रिक स्वरूप में प्रशासन की वास्तविक शक्ति निर्वाचित सरकार के पास होनी चाहिए।