कल्याण सिंह की याद है आपको? नई पीढ़ी की तो छोड़िए पुराने भी कल्याण सिंह को भूल चुक हैं। केंद्र और बहुतायत राज्यों की सत्ता में मजबूती से काबिज भाजपा भीतर भी शायद ही कोई उन्हें याद करता हो। कल्याण सिंह भले ही आज अतीत के पन्नों में कहीं गहरे दफन किए जा चुक हों, इतिहास उन्हें भूल नहीं सकता। जिन दो मुख्य मुद्दों चलते आज भाजपा सबसे कद्दावर राजनीतिक दल बन उभरी है उन कारणों, उन दो मुद्दों के नायक कल्याण सिंह ही थे। लालकृष्ण आडवाणी ने राममंदिर निर्माण रथ यात्रा के जरिए भाजपा को उत्तर भारत में विस्तार दिया तो छह दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद का ध्वस्त कर हिंदुवादी ताकतों को कल्याण सिंह ने बाहुबली बनाने का काम किया। उन्होंने ही सवर्ण जातियों की पार्टी कहलाई जाने वाली भाजपा को पिछड़ी जातियों से जोड़ने में सफलता दिलाई। आज इन्हीं दो कारणों के दम पर भाजपा इतनी शक्तिशाली बन पाई है। कल्याण सिंह लेकिन किसी को याद नहीं। जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश और भाजपा के भीतर कल्याण सिंह का कद बढ़ने लगा भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की निगाहों में वे उतनी ही तेजी से खटकने लगे थे। अटल-आडवाणी ने वही किया जो कांग्रेस करती आई थी। क्षत्रपों को कमजोर कर अपनी सत्ता को बचाए रखना। उन दिनों उत्तर प्रदेश भाजपा में चार बड़े नाम हुआ करते थे। राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, कलराज मिश्र और लालजी टंडन।
कल्याण सिंह की लोकप्रियता और बढ़ती महत्वाकांक्षा को थामने के लिए इन तीन नेताओं को आगे कर खेल खेला गया। कल्याण सिंह इस खेल को बखूबी समझ रहे थे। उनकी आत्ममुग्धता लेकिन चरम पर पहुंच चुकी थी। उन्होंने भी जमकर लाठी भांटी। अपने चिर प्रतिद्वंदी मुलायम सिंह यादव तक से गुप्त सौदेबाजी कर मध्यावधि चुनावों में भाजपा प्रत्याशियों को निपटा डाला। अटल बिहारी वाजपेयी तक को उन्होंने नहीं बख्शा। नतीजा पहले मुख्यमंत्री पद से उन्हें हटाया गया, बाद में भाजपा से भी निकाल बाहर किया। इन दिनों एक बार फिर से कल्याण सिंह की कहानी उत्तर प्रदेश में दोहराई जाने के संकेत मिल रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बढ़ता कद और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुत्व के पोस्टर ब्वाॅय की उनकी छवि से दिल्ली बेचैन तो अर्सा पहले से थी, अब उसकी यह बेचैनी बेकाबू होती स्पष्ट नजर आ रही है। 2017 के राज्य विधानसभा चुनाव नतीजे भाजपा के लिए अप्रत्याशित थे। मोदी फैक्टर का खुमार जनता पर इस कदर चढ़ा हुआ था कि समाजवादीनेता अखिलेश यादव की सरकार के सारे विकास कार्य नकार कर मोदी के नाम पर एकतरफा वोटिंग उसने कर डाली। योगी आदित्यनाथ भले ही आज मुगालते में हों, यह निश्चित समझिए कि यदि उनके नाम पर भाजपा चुनाव लड़ती तो शायद सरकार भी नहीं बना पाती, दो तिहाई बहुमत तो दूर की कौड़ी रहती। मुख्यमंत्री चुनते समय लेकिन भाजपा आलाकमान से भारी चूक हो गई। सभी जानते हैं प्रधानमंत्री मोदी अपने विश्वस्त मनोज सिन्हा को सीएम बनाने के पक्षधर थे। जनाधारविहीन सिन्हा उन्हें हर दृष्टि से सुहाते। 2014 के बाद से यह भाजपा की परिपाटी बन चुकी है कि ऐसों को राज्य की गद्दी सौंपी जाए जो उनकी अनुकंपा रहने तक ही गद्दी पर बने रह सके, अनुकंपा हटी, गद्दी गई। गुजरात, उत्तराखण्ड, हरियाणा, गोवा, हिमाचल प्रदेश आदि तमाम इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्तमान भाजपा आलाकमान को राजस्थान की वसुंधरा राजे सिंधिया, मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह, छत्तीसगढ़ के रमन सिंह सरीखे नेताओं से परहेज है। वसुंधरा चुनाव हार गईं, शिवराज और रमन सिं भी पैदल हो गए। केंद्रीय स्तर पर मौजूद दिग्गजों को जबरन रिटायर कर दिया गया। अब भाजपा पूरी तरह मोदी-शाह आश्रित पार्टी बन गई। उत्तर प्रदेश में लेकिन चूक हो गई। नाना प्रकार की गणित सुनने को मिलती है कि कैसे योगी सत्ता पाए, जो भी कारण रहा हो, योगी का सीएम बनना मोदी-शाह के समीकरण अनुसार नहीं रहा। उनका राजनीतिक ग्राफ तेजी से बढ़ा। इतना तेजी से कि ‘मोदी बाद योगी’ कहा जाने लगा। योगी मुदित हुए तो दिल्ली कुपित। दिल्ली लखनऊ से नाराज है, का पहला संकेत 2019 में मस्तिष्क ज्वर चलते गोरखपुर में बच्चों की बड़ी तादात में हुई मौत के दौरान देखने को मिला। भाजपा की गोदी मीडिया कहलाए जाने वाले न्यूज चैनलों ने जमकर योगी की लानत-मलानत कर डाली। उनकी छवि को ध्वस्त करे का खेल खेला गया। योगी मुझ नहीं, उन्होंने एग्रेसिव हिंदुवादी नेता की अपनी छवि को और मजबूती देना शुरू कर दिया। देशभर में जहां कहीं भी चुनाव हुए योगी की डिमांड सबसे ज्यादा बतौर स्टार प्रचारक बढ़ी। भाजपा आलाकमान चाहकर भी योगी को साइड लाइन नहीं कर पाया। कोरोना की दूसरी लहर ने उसे यह करने का मौका अब दे दिया है।
कोरोना संकट के दौरान राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को लेकर योगी सरकार की भारी छिछालेदर हो रही है। गंगा नदी में बहती लाशों से लेकर आॅक्सीजन, दवा, वेंटीलेटर आदि की कमी को आगे कर योगी सरकार पर जमकर प्रहार हो रहे हैं। खास बात यह कि सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों में भाजपा सांसद, विधायक शामिल हैं। केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार हों या फिर राज्य के विधायकगण, सभी ने यकायक अपनी ही सरकार के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है। राज्य विधानसभा के चुनाव मात्र सात माह दूर हैं। ऐसे में यकायक ही भाजपा आलाकमान सक्रिय हो उठा है।
दिल्ली से लेकर लखनऊ और नागपुर तक में बैठकों का दौर जारी है। मुख्यमंत्री की राज्यपाल संग लंबी बैठक हो या फिर संघ के सह सरकार्यवाहक दत्तात्रेय होसबोले का लखनऊ पहुंचना, सीएम संग मुलाकात करना या फिर पार्टी के केंद्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष का लखनऊ दौरा, सभी ने राजनीतिक माहौल को खासा गर्मा दियाहै। लखनऊ के सत्ता गलियारों में बड़ी चर्चा है कि योगी आदित्यनाथ केंद्र से भेजे गए, विधानसभा सदस्य बनाए गए पूर्व आईएएस अरविंद कुमार शर्मा को मंत्री बनाने के लिए हामी नहीं भर रहे हैं। कहा-सुना जा रहा है कि भाजपा आलाकमान शर्मा को गृह एवं कार्मिक मंत्री बनाना चाहता है।
यह भी चर्चा है कि मुख्यमंत्री के बजाय सीधे राज्यपाल आनंदीबेन पटेल को ऐसा करने के लिए कहा गया है। यदि इसमें रचमात्र सच्चाई है तो यह अभूतपूर्व है। मंत्री परिषद में कौन रहे या न रहे मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है। राज्यपाल की इसमें किसी प्रकार का कोई भूमिका नहीं होती है। लेकिन राजनीति में सब कुछ संविधान प्रदत्त तो होता नहीं। चर्चा जोरों पर है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों राज्यपाल संग अपनी बैठक के दौरान ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है।
यह भी खबर है कि दत्तात्रेय होसबोले और बीएल संतोष की लखनऊ यात्रा भी योगी के तेवरों को नर्म कर पाने में विफल रही है। यहां तक कहा जा रहा है कि योगी ने अपनी ‘हिंदुवाहिनी सेना’ को सक्रिय होने के लिए कह डाला है। स्मरण रहे हिंदुत्व के इस नए नायक का भाजपा संग रिश्ता गर्मनाल वाला कभी नहीं रहा है। 2002 के विधानसभा चुनावों में जब योगी के पसंदीदा कैंडिडेट को भाजपा ने टिकट नहीं दिया था तब उन्होंने पार्टी उम्मीदवार के खिलाफ अपने कैंडिडेट को गोरखपुर सीट से चुनाव लड़वाया और जितवाया था। योगी के राजनीतिक प्रतिद्वंदी रहे भाजपा नेता शिवप्रसाद शुक्ला को मोदी मंत्रिमंडल में 2017 में शामिल कर भाजपा आलाकमान ने स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि योगी का बढ़ता कद उसे कत्तई नहीं सुहा रहा है। यह तय लगता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पूर्व राज्य सरकार और संगठन में फेरबदल होने जा रहा है। यह भी मजबूत संकेत है कि यह फेरबदल योगी के मनमाफिक नहीं होगा।
ऐसे में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की कहानी दोहराए जाने की प्रबल संभावना नजर आ रही है। कल्याण सिंह भाजपा से निकल जीरो हो गए थे तो इसका एक बड़ा कारण उनके पास खुद का मजबूत संगठन न होना रहा। वे भाजपा में पैदा हुए, पले-बढ़े, सफलता पाई। महत्वाकांक्षा बढ़ी तो पार्टी से बाहर हो अकेले पड़ गए। योगी संग ऐसा नहीं है। वे हमेशा से ही स्वतंत्र, स्वछंद रहे हैं। उनके पास अपना मजबूत समानांतर संगठन है। उनकी यही ताकत भाजपा नेतृत्व को डरा रही है और कोई सख्त कदम उठाने से रोक रही है। राजनीति में सब कुछ संभव है। इसलिए 2022 के विधानसभा चुनावों से पूर्व यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ बड़ा खेला हुआ तो आश्चर्य नहीं।