[gtranslate]
Country

लेखक, प्रकाशक और रॉयल्टी

हिंदी साहित्य समाज में मचा घमासान

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। लेकिन इस दर्पण पर कितना धुंधलापन छाया है इसका अंदाजा हाल ही में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत मशहूर लेखक एवं कवि विनोद कुमार शुक्ल द्वारा प्रकाशकों पर कथित धोखाधड़ी और पत्रों का जवाब न देने जैसे आरोपों से लगाया जा सकता है। इस मामले के उजागर होने से अब लेखकों को प्रकाशकों से मिलने वाली रॉयल्टी पर कई सवाल खड़े हो गए हैं। मामले की शुरुआत लेखक और अभिनेता मानव कौल द्वारा सोशल मीडिया पर विनोद कुमार शुक्ल के साथ अपनी एक तस्वीर पोस्ट करने से हुई। तस्वीर के साथ उन्होंने इस बात का विशेष उल्लेख किया कि इतने बड़े लेखक जिनकी दर्जनों किताबें न सिर्फ प्रकाशित हैं बल्कि बेहद लोकप्रिय भी हैं, उन पुस्तकों की रॉयल्टी के तौर पर उन्हें केवल कुछ हजार रुपये मिलते हैं।

मानव कौल ने अपनी पोस्ट में लिखा, ‘पिछले एक साल में वाणी प्रकाशन से छपी तीन किताबों का इन्हें 6 हजार रुपये मात्र मिला है और राजकमल से पूरे साल का 8 हजार रुपये मात्र। मतलब देश का सबसे बड़ा लेखक साल के 14 हजार रुपये मात्र ही कमा रहा है। वाणी को लिखित में दिया है कि किताब न छापें पर इस पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई।’ वाणी प्रकाशन से विनोद कुमार शुक्ल की ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘कविता की किताब’ जैसी मशहूर किताबें और राजकमल से ‘नौकर की कमीज’, ‘सबकुछ होना बचा रहेगा’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी’ और ‘बौना पहाड़’ जैसी पुस्तकें प्रकाशित हैं।

लेखक विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव के रहने वाले हैं और उन्होंने कई बेहतरीन उपन्यास लिखे हैं। साल 1999 में उन्हें ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। उनके कई उपन्यासों और कहानियों पर फिल्में भी बन चुकी हैं। मानव कौल की सोशल मीडिया पर आई पोस्ट के बाद खुद विनोद कुमार शुक्ल ने एक वीडियो जारी करके इस बारे में अपनी पीड़ा अपने पाठकों से साझा की। विनोद कुमार शुक्ल का कहना है कि वो कई बार पत्र के जरिए प्रकाशकों से आग्रह कर चुके हैं कि उनकी पुस्तकें अब न प्रकाशित की जाएं, लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता है। विनोद कुमार शुक्ल का कहना था, ‘मुझे अब तक मालूम नहीं हुआ था कि मैं ठगा जा रहा हूं।

मेरी सबसे ज्यादा किताबें जो लोकप्रिय हैं वे राजकमल और वाणी से प्रकाशित हुई हैं। ‘नौकर की कमीज’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के समय तो ई-बुक और किंडल जैसी चीजें नहीं थीं, मगर ये दोनों किताबें किंडल पर हैं।’ वरिष्ठ लेखिका सुशीला टाकभौरे के वाणी प्रकाशन पर आरोपों की चिट्ठी भी वायरल हो रही है। जिसमें उन्होंने वाणी प्रकाशन पर अपने साथ हो रहे अन्याय का जिक्र किया है। उन्होंने चिट्ठी में बताया है कि उनकी पुस्तकों की रॉयल्टी का उन्हें अब तक कोई हिसाब नहीं दिया गया है। इस चिट्ठी की ‘दि संडे पोस्ट’ पुष्टि नहीं करता है।

प्रकाशकों का कथन
विवाद सामने आने के बाद राजकमल प्रकाशन ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके भी स्पष्टीकरण दिया था। इसमें कहा गया था, ‘नौकर की कमीज’ का पेपरबैक संस्करण राजकमल से छपा है। पिछले 10 वर्षों में इसके कुल पांच संस्करण प्रकाशित हुए हैं। हर संस्करण 1100 प्रतियों का रहा है जिसका ब्यौरा नियमित रूप से रॉयल्टी स्टेटमेंट में जाता रहा है। इसकी ई-बुक भी राजकमल ने किंडल पर जारी की है जिसकी रॉयल्टी विनोद जी को जाती रही है। विनोद जी हमारे लेखक परिवार के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित सदस्य हैं। उनकी इच्छा का सम्मान हमारे लिए हमेशा सर्वोपरि है। वे जो चाहते हैं, हम वही करेंगे।’ वाणी प्रकाशन ने भी प्रेस विज्ञप्ति जारी करके स्पष्टीकरण देने की कोशिश की है लेकिन यह सवाल काफी अहम हो गया है कि इतने बड़े लेखक जिनकी किताबें न सिर्फ लोकप्रिय हैं बल्कि तमाम हिंदी पाठकों के घरों में रखी मिलती हैं, पुस्तकालयों में जाती हैं, उन्हें क्या हर साल इन किताबों से सिर्फ इतने रुपये मिलते होंगे, जितने कि विनोद कुमार शुक्ल को मिल रहे हैं?

वरिष्ठ साहित्यकार जयनंदन इस पूरे प्रकरण में पारदर्शिता का अभाव होने को स्वीकारते हुए कहते हैं कि प्रकाशन के क्षेत्र में पारदर्शिता की बहुत कमी है क्योंकि वो कितनी किताबें छापते हैं कितनी बेचते हैं ये ईमानदारी से कभी नहीं बताते हैं, पूछने पर भी नहीं बताते। मान लीजिए 100 किताबें बिकी हैं तो लेखक को नहीं बताया जाता है कितनी बिकी हैं। ऐसे में लेखक के पास कोई माध्यम नहीं है जिससे कि वो संपूर्ण जानकारी ले सके उसकी कितनी किताबें बिकी तो कई बार जो प्रकाशक लेखकों का मानदेय नहीं देना चाहते हैं तो वो इसी तरह का बहाना करते हैं। कुछ प्रकाशक हिसाब देते हैं लेकिन 90 प्रतिशत कोई हिसाब नहीं देते हैं। लेखक जब कई बार सवाल करता है और पत्रों के जरिए मांग करता है जब जाकर उसे कुछ हासिल होता है। कई बड़े लेखक रॉयल्टी विवाद पर इसलिए मौन हैं कि उसके पीछे उनका यही स्वार्थ है कि आने वाले दिनों में इन्हीं प्रकाशकों से उन्हें अपनी किताबें छपवानी हैं नहीं तो उनके साथ भी अन्याय हो रहा है।’

रॉयल्टी विवाद पर कई और लेखकों ने भी प्रकाशकों की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं। मशहूर लेखक असगर वजाहत सोशल मीडिया पर लिखते हैं, ‘मैं भी लंबे अरसे से सोच रहा हूं कि विधिवत तरीके से राजकमल प्रकाशन, दिल्ली को अपनी लगभग आठ किताबों के भार से मुक्त कर देना चाहिए। जिन मित्रों ने राजकमल के लिए मेरी किताबों को संपादित किया है उन्हें छोड़ दिया जाना चाहिए।’

सुशीला टाकभौरे के साथ जो वाणी प्रकाशन ने किया उनके पक्ष में तो मैंने कई बार अपनी राय रखी है। अमूमन जो प्रकाशक हैं वो अक्सर लेखकों से साथ छल करते हैं। हो सकता है कि कुछ बड़े प्रकाशक जैसे ‘ज्ञानपीठ’ वो कभी बेईमानी नहीं करता इसलिए कि वो एक ट्रस्ट है लेकिन जो व्यक्तिगत रूप से प्रकाशन चला रहे हैं उनमें ‘राजकमल’ को कुछ हद तक सही ठहराया जा सकता है क्योंकि जो लेखक चर्चित हो गए हैं उनको वो पैसे देते हैं, उसमें भी उनका गणित है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी लेखकों को एक समान पैसा देते हैं। उसी तरह से नेशनल बुक ट्रस्ट है, वो सरकारी है इसलिए उसमें कोई बेईमानी नहीं है। उसमें मेरी भी किताबें छपी हैं। उनके द्वारा रॉयल्टी समय पर मिल जाती है। कुछ हद तक राजपाल एंड संस भी ठीक है लेकिन और सब प्रकाशक लेखकों के साथ अन्याय कर रहे हैं।
जयनंदन, वरिष्ठ साहित्यकार

लेखकों द्वारा लगाए गए सभी आरोप सही है और मैं लेखकों के साथ खड़ा हूं। उनके हक के लिए आवाज उठाता रहूंगा। प्रकाशक कोई हिसाब नहीं देते हैं कि कितनी किताबें बिकी कितनी नहीं? लेकिन ‘प्रलेक प्रकाशन’ लेखकों से रॉयल्टी के मामले में पूरी ईमानदारी रखता है। सुशीला टाकभौरे के साथ गलत हुआ है और मैं जब लेखकों की आवाज बुलंद कर रहा हूं तो मुझे धमकियां दी जा रही हैं। लेकिन मैं फिर भी लेखकों के साथ हूं और निरन्तर उनके साथ खड़ा रहूंगा। रॉयल्टी को लेकर प्रकाशन के क्षेत्र में पारदर्शिता नहीं दिखाई जाती है।
जितेंद्र पात्रो, एमडी एवं सीईओ

 

 

लेखक-प्रकाशक विवाद में मेरा स्पष्ट मानना है कि अब वक्त आ गया है जब लेखक अपने प्रकाशक से खुल कर बात करे। अपनी किताबों का हिसाब-किताब मांगे। अब तक लेखक भी लापरवाह रहे और प्रकाशकों ने भी इसका फायदा उठाया। एक किताब छप जाने के बाद लेखक इतना मस्त मगन हो जाता है कि वह रॉयल्टी की बात भूल जाता है, जबकि रॉयल्टी उनका हक है। हर साल किताबों का हिसाब-किताब मिलना चाहिए। हालांकि कोई प्रकाशक इसमें ईमानदारी नहीं बरतते। लेकिन उन पर भरोसा करने के सिवा कोई चारा नहीं। कुछ बड़े प्रकाशन हाउस को छोड़ दें तो कम ही प्रकाशक हिसाब-किताब में पारदर्शिता रखते हैं। कुछ लेखकों को तो आज तक हिसाब ही नहीं मिला। अगर लेखक सचेत नहीं होगा तो उनकी किताबें उन्हें गरीब बनाए रखेंगी और प्रकाशन हाउस परवान चढ़ता रहेगा। अच्छा है कि इस विवाद के बहाने लेखक सचेत हुए हैं और रॉयल्टी की मांग करने लगे हैं।
गीताश्री, पत्रकार एवं साहित्यकार

You may also like

MERA DDDD DDD DD