विधानसभा चुनाव से पहले हुए गठबंधन में समाजवादी पार्टी और रालोद में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जीतने के दावे किए गए लोगों ने उनके इन दावों पर विश्वास भी किया। कारण भी था वह यह कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के चलते भाजपा के खिलाफ जनाक्रोश था। जिसे समाजवादी पार्टी और रालोद गठबंधन भुनाना चाहता था। लेकिन 10 मार्च को जब परिणाम सामने आए तो इसमें यह भी सामने आया कि वेस्ट यूपी में सपा और रालोद का जादू किसानों खासकर जाट मतदाताओं पर नहीं चला। पिछले साल कोरोना काल में रालोद के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह की मौत हो जाने के बाद पार्टी की कमान उनके बेटे जयंत चौधरी के हाथ में आ गई थी। तब से वह 2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे थे। उम्मीद की जा रही थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट मतदाताओं उन्हें बहुतायत में वोट देगा। वैसे भी उनके पिता अजीत सिंह की मृत्यु के बाद यह उनका पहला चुनाव था।
उन पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर पार्टी को फिर से पटरी पर लाकर खुद को साबित करने का मौका भी था। जिसके चलते ही उन्होंने चुनाव में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन उनके ही जाति के मतदाताओं ने आखिर यह मौका गवा दिया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट बेल्ट में बहुत कम सीटें सपा रालोद गठबंधन को मिली। जबकि आशा के विपरीत भाजपा उनसे कहीं ज्यादा बढ़कर सीटे ले गई। इसके पीछे का कारण जाट मतदाताओं में मुस्लिमों के प्रति एक भय बताया जा रहा है। जिसमें मुजफ्फरनगर दंगा और कैराना पलायन को लेकर भाजपा ने पहले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश जीतने की तैयारी कर ली थी। देश के गृहमंत्री अमित शाह ने कई रैलियां की। वह बार-बार मुजफ्फरनगर दंगे और कैराना पलायन की याद दिलाते रहे।
जिससे मतदाताओं में एक अनचाहा भय पैदा हो गया । कहा गया कि इस भय को ही भाजपा भुना गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के हिस्से में सिर्फ 8 सीटें ही आई। जिनमें थाना भवन, सिवालखास, शामली, पुरकाजी, सादाबाद, बुढाना, छपरोली और मीरापुर शामिल रही। चौंकाने वाली बात यह रही कि रालोद अपने गढ़ बागपत में ही भाजपा से हार गई। हालांकि समाजवादी पार्टी और रालोद गठबंधन की बात करें तो दोनों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 43 सीटों को जीता है। लेकिन उम्मीद इससे कहीं अधिक थी। किसान आंदोलन की जमीन रहा पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट मुस्लिम वोट को समेटने में भी सपा रालोद गठबंधन को सफलता नहीं मिली।