मोदी सरकार ने देश की कृषि क्षेत्र में तस्वीर बदलने और किसान की आय बढ़ाने के लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का कदम उठाया है। सरकार इसके लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर जोर भी दे रही है। लेकिन राज्य सरकार इसमें हाथ डालने से कतरा रही हैं।
हालात ये हैं कि बीजेपी शासित एक भी राज्य ने इस प्रोजेक्ट को अपने राज्य में लागू नहीं किया है। केवल दो राज्यों ने ही इस प्रोजेक्ट को लागू किया है। जिसमें पंजाब और तमिलनाडु शामिल है। लेकिन यहां भी ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है।
अनुबंध खेती का अंतिम मॉडल 22 मई, 2018 को जारी किया गया था। इस साल के बजट में भी सरकार ने कहा है कि वो कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट को लागू करने वाले राज्यों को प्रोत्साहन देगी।
इस सबके बावजूद सवाल यह है उठता है कि आखिर क्यों मोदी सरकार अपने राज्यों में काबिज होकर भी राज्य सरकारों को नहीं मना पा रही है। जबकि केंद्र सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि इस प्रोजेक्ट से किसानों की दिक्कत समाप्त हो जाएंगी। इस प्रोजेक्ट के लागू होने से किसानों की इनकम गारंटी हो जाएगी। किसान की खेती का दाम भी पहले ही निर्धारित हो जाएगा।
इस मॉडल पर राष्ट्रीय किसान महासंघ के संस्थापक सदस्य विनोद आनंद कहते हैं, “इस मॉडल को राज्य सरकारें इसलिए लागू नहीं कर पा रही हैं क्योंकि खेती में बड़े परिवर्तन के लिए बने मॉडल कांट्रैक्ट फार्मिंग गाइडलाइन को लेकर सरकार ने डेमोक्रेटिक तरीके से चर्चा नहीं की है। हर राज्य में किसानों और कृषि को लेकर अलग-अलग राजनीतिक मजबूरियां हैं। क्योंकि कहीं पर खेती का आकार बहुत छोटा है और कहीं पर किसान इसके लिए राजी नहीं दिखते।”
आनंद आगे कहते हैं, “उत्तराखंड में खेतों का आकार जैसा है उसमें कैसे कांट्रैक्ट फार्मिंग होगी इस पर कोई बातचीत नहीं हुई। कागज में तो यह अच्छा लगता है। लेकिन जमीन पर उतरना उतना ही कठिन है। वरना इसके लिए सबसे पहले बीजेपी शासन वाले ही राजी हो जाते। अच्छा होता कि अनुबंध खेती के लिए किसानों को ग्रामीण स्तर पर जानकारी दी जाती। उन्हें बताया जाता कि कंपनियां खेती करवाएंगी तो भी उनका हित कैसे सुरक्षित रहेगा। इसके बाद इसका मॉडल तैयार होता तो लोग इसे मानते। दिल्ली में बैठकर मॉडल बनाकर थोप दिया गया तो कोई राज्य कैसे अपनाएगा भले ही वो बीजेपी शासित ही क्यों न हो।”
दरअसल, भारत में बड़े किसानों को तो अपनी उपज का मार्किट पाना आसान होता है, लेकिन 86.2 फीसदी लघु एवं सीमांत किसानों (जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम खेती है) को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इनके उत्पाद का उचित दाम नहीं मिल पाता है। क्योंकि मार्किट की कमी है। गांवों-कस्बों के आसपास मंडी नहीं है। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने तय किया कि क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जिससे खरीददार और उपज का दाम पहले से निर्धारित हो जाए। गौरतलब है कि हर साल किसान आलू, प्याज और टमाटर जैसी चीजों के दाम को लेकर आवाज उठाते आए है।
इस प्रोजेक्ट को मंडी के मकड़जाल से पूरी बाहर से अलग रखा गया है प्रोजेक्ट के लागू होने पर मंडी कानून लागू नहीं होगा। इससे फायदा यह होगा किसान अपनी उपज बेचने के लिए मंडी फीस देने के लिए बाध्य नहीं रहेगा। इस समय अलग-अलग राज्यों में उपज की वैल्यू पर 0.5 से 2 फीसदी तक यह फीस लगती है और 7 फीसदी कमीशन एजेंट लेता है। एक्ट में आने वालों को इस पैसे की सीधी बचत होनी संभव है।
फामर्स इनकम डबलिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. अशोक दलवाई बताते हैं कि खेती-किसानी करने वाले लोग हमेशा इसी चिंता में डूबे रहते हैं कि वह जो फसल उगा रहे हैं उसका उनको सही दाम मिल पाएगा या नहीं। लेकिन कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट इस जोखिम को जीरो कर देता है। उनका कहना है की सभी राज्यों को इसे जल्द से जल्द लागू कर देना चाहिए क्योंकि इसमें सभी किसानों के हितों का ख्याल रखा गया है।
कांट्रैक्ट फार्मिंग की गाइडलाइन बनाने वाले डिप्टी एग्रीकल्चर मार्केटिंग एडवाइजर डॉ. एसके सिंह ने बताया कि जब किसी वस्तु के दाम 100 रुपये तय है और मार्किट में दाम 110 रुपये हो जाएगा तो ऐसे में किसान को ऑब्जेक्शन होना संभव है। इस स्थिति में सरकार ने तय किया है कि यदि किसी उपज का दाम 10 फीसदी तक बढ़ता है तो यह पैसा खरीददार किसान को उपलब्ध कराएगा। इसके बाद दाम 10 फीसदी से अधिक हुआ तो शेष खरीददार और किसान आपस में शेयर करेंगे। अगर उपज का दाम 100 रुपये तय हुआ है और मार्किट में 90 है तो भी किसान को 100 रुपये ही मिलेंगे।
एक्ट में क्या है?
इसके तहत फसल के खरीदार किसानों के समूह से ही सीधे कांट्रैक्ट करेगा। कोई किसान अगर नई तकनीक से खेती करने के इच्छुक है तो उनके लिए खरीद करने वाली कंपनी ही उन्हें तकनीक उपलब्ध कराएगी। जिससे कम लागत में भी अधिक उत्पादन हो पाएगा।
किसान के उत्पाद की मात्रा और दाम पहले से निर्धारित हो जाएगा। इसमें किसानों की हितों की सुरक्षा का भी दावा किया जाएगा। निजी कंपनियां बुवाई के समय ही किसानों से एग्रीमेंट कर लेंगी कि वह फसल किस रेट पर ले सकेंगी। रेट पहले ही तय हो जाएंगे। ऐसे में किसान फायदा देखकर दाम नहीं बताएगा।