धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने के बाद क्षेत्र में राजनीतिक बदलाव की पहली बड़ी परीक्षा होगी। यहां तीन चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव में दिलचस्प मुकाबला होने के आसार हैं। भाजपा, कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सहित कई छोटे दल और दो दर्जन से अधिक स्वतंत्र उम्मीदवार मैदान में हैं। बारामूला के सांसद इंजीनियर रशीद ने तिहाड़ जेल से जमानत पर आकर सियासी खलबली मचा दी है। इंजीनियर का लोकसभा के बाद विधानसभा चुनाव में कूदना कई नेताओं की नींद उड़ा गया है। उनकी पार्टी को भाजपा की ‘टीम बी’ कहा जा रहा है। भले ही इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस शून्य बट्टा सन्नाटे में रह गई हो पर विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी के हौसले बुलंद हैं। वहीं इस चुनाव में यह पता चलेगा कि फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीतिक जमीन मजबूत हुई है या कमजोर? भाजपा का घाटी से दूर रहकर जम्मू तक सिमटने का फार्मूला क्या गुल खिलाएगा। देखना होगा कि महबूबा मुफ्ती की पीडीपी में अभी कितना दम-खम बाकी है?
जम्मू-कश्मीर 5 अगस्त 2019 के दिन केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने और अनुच्छेद 370 के हटने के बाद एक दशक में अपने पहले विधानसभा चुनाव के लिए तैयार है। 90 सीटों की विधानसभा के लिए 3 चरणों में जम्मू-कश्मीर की जनता मतदान कर पाएगी। सीटों का पुनर्सीमांकन होने के बाद जम्मू-कश्मीर में सीटों की संख्या 90 हो गई है जिसमें जम्मू में 43 तथा श्रीनगर में 47 सीटें हैं। याद रहे कि 2014 के विधानसभा चुनाव में यहां 65.52 प्रतिशत का रिकॉर्ड मतदान हुआ था। तब पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उस दौरान भाजपा को 23 सीटें मिली थीं जबकि फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 सीटें तो कांग्रेस को 12 सीटें मिली थीं। इसके बाद केंद्र द्वारा जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के साथ ही अनुच्छेद 370 खत्म करने की नीति लागू की गई थी। जिसका असर इन चुनावों में देखने को मिलेगा।
जम्मू-कश्मीर में अगर क्षेत्र-वार पार्टियों की स्थिति को देखें तो कई दिलचस्प बातें सामने आती है। यहां बीजेपी के लिए कश्मीर में सबसे कठिन स्थिति बताई जा रही है। पार्टी के अतीत को देखें तो पार्टी ने घाटी में कभी एक भी सीट नहीं जीती है। सियासी जानकारों की माने तो पार्टी का गढ़ या थोड़ी मजबूत सीटें जम्मू में हैं। हालांकि जम्मू में 11 सीटें ऐसी भी हैं जिन पर बीजेपी को पिछले तीन चुनावों में जीत नहीं मिली है।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए अधिकांश मुश्किल सीटें जम्मू क्षेत्र में हैं। जानकारी के अनुसार उसकी सभी मजबूत सीटें कश्मीर घाटी में हैं। हालांकि कश्मीर में 17 सीटें ऐसी हैं जिन पर वह पिछले तीन चुनावों में जीत नहीं पाई है। पीडीपी की बात करें तो उसके लिए अधिकांश कठिन सीटें 51 में से 33 जम्मू में हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस की तरह इसकी मजबूत सीटें कश्मीर में हैं। हालांकि कश्मीर में 14 सीटें ऐसी हैं जिन पर उसे पिछले तीन चुनावों में जीत नहीं मिली है।
अब बात करते हैं कांग्रेस पार्टी की जिसके लिए अधिकांश कठिन सीटें 52 में से 38 कश्मीर में हैं। इसकी थोड़ी मजबूत सीटें जम्मू में हैं। वैसे कांग्रेस जम्मू की 13 सीटों पर पिछले तीन चुनावों में जीत हासिल करने में विफल रही है। जम्मू-कश्मीर में हुए नए परिसीमन के अनुसार जम्मू की सीटें 37 से बढ़कर 43 हो गई हैं जबकि कश्मीर घाटी में सिर्फ एक सीट बढ़ी है जो सीट पहले 46 थी वह बढ़कर 47 हो गई हैं। फिलहाल नए परिसीमन से जम्मू कश्मीर में 90 सीटें हो गई हैं। यहां बहुमत के लिए 46 सीटें चाहिए। इस चलते भाजपा भले ही जम्मू में जीत हासिल कर ले, लेकिन वह अपने दम पर आधे के आंकड़े तक पहुंच जाए तो गनीमत है। दिलचस्प बात यह है कि पार्टी ने पहले चरण की 24 सीटों में से आठ पर भी उम्मीदवार नहीं उतारे हैं।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा कश्मीर घाटी में अभी भी बहुत कमजोर है। जम्मू की बात करें तो वहां इसकी 11 कमजोर सीटें हैं जिससे बहुमत पाना उसके लिए टेढ़ी खीर है। वैसे पार्टी कश्मीर में कुछ सीटें जीतने के लिए सज्जाद लोन की पार्टी, दलबदलुओं और निर्दलीय जैसे छोटे दलों पर भरोसा कर रही है, जिससे नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की रणनीति पर असर पड़ सकता है। हालांकि पार्टी को यह भी उम्मीद है कि पीडीपी घाटी में अपना प्रदर्शन काफी बेहतर करेगी। पीडीपी का आकलन करें तो पता चलता है कि 2019 और 2024 के आम चुनावों में वह एक भी सीट नहीं जीत सकी थी जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव में नौ फीसदी से कम वोट मिले थे। भाजपा को उम्मीद है कि घाटी की सीटें एनसी, पीडीपी और निर्दलीय, छोटी पार्टियों के बीच विभाजित हो जाएंगी। ऐसे में वह जम्मू क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेगी।
पिछले चुनावों की बात करें तो 1987 के चुनाव में 76 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने 29 प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें से दो को सफलता मिली थी। उसके बाद सीटों की संख्या बढ़ने के बावजूद पार्टी ने 1996 में 53, 2002 में 58, 2008 में 64 और 2014 में 75 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा था। 2014 में भाजपा को उस समय सफलता मिली थी जब उसने पहली बार सत्ता में आकर पीडीपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई। वह सरकार 2018 में गिर गई। इसके बाद केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में सीधे शासन लागू किया और अनुच्छेद 370 व 35ए को हटा दिया।
गत लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने घाटी की तीन सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस फैसले पर खेद जताया था और विधानसभा चुनाव के दौरान सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने का वादा किया था। इसके बाद से उम्मीद की जा रही है कि भले ही भाजपा को कश्मीर में जीत नहीं मिलती है लेकिन कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और देश को संदेश देने के लिए पार्टी उम्मीदवार उतार सकती है। मगर पार्टी ने अपना इरादा बदल दिया। भाजपा ने दक्षिण कश्मीर की 16 विधानसभा सीटों से आठ तो मध्य कश्मीर की 15 सीटों से छह और उत्तर कश्मीर की 16 सीटों से पांच पर ही उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा की घाटी में इतनी ताकत नहीं बढ़ी है जितना प्रचारित किया जा रहा है। कश्मीरी जनता भाजपा को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर रही है, जबकि जम्मू क्षेत्र में पार्टी का जनाधार मजबूत है। चिनाब वैली और पीर पंजाल क्षेत्रों में पार्टी को चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। चुनावी रणनीति के तहत, पार्टी को सत्ता में आने के लिए जम्मू क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करना होगा। लेकिन ऐसा होगा इसमें राजनीतिक पंडितों को संदेह है।
पिछले कुछ वर्षों की सियासी हवा को देखें तो इस दौरान महबूबा मुफ्ती की पीडीपी की राजनीतिक जमीन बहुत कमजोर हुई है। पीडीपी के ज्यादातर पहली और दूसरी लाइन के नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। उसमें से अल्ताफ बुखारी इंजीनियर की पार्टी के साथ जुड़ गए हैं तो कुछ सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के साथ खड़े दिख रहे हैं। महबूबा मुफ्ती के लिए ‘इधर कुआं – उधर खाई’ वाली स्थिति हो गई है। 2014 के जम्मू- कश्मीर विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 22.7 प्रतिशत वोट मिले थे। पार्टी के बेनर पर 28 उम्मीदवार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे, तब महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद पार्टी के सबसे बड़े नेता थे, लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं।
कौन है इंजीनियर रशीद, जिसने उड़ाई नेताओ की नींद
इंजीनियर रशीद का असली नाम अब्दुल रशीद शेख है। वह आतंकी फंडिंग मामले में 2019 से जेल में बंद थे। लंगेट सीट से दो बार के विधायक रह चुके हैं। फिलहाल वह उत्तरी कश्मीर की बारामूला सीट से सांसद हैं। अलगाववादी नेता रहे रशीद आम आदमी की छवि रखने और ऐसे मुद्दे उठाने के लिए जाने जाते हैं जो आमजन से जुड़े होते हैं। वे अक्सर पठानी सूट और फिरौन-कश्मीरी ऊनी गाउन पहने हुए दिखाई देते है। उन्होंने चुनावों के दौरान युवाओं के बीच अपनी खास जगह बनाई है। सांसद इंजीनियर रशीद गत 11 सितंबर को तिहाड़ जेल से जमानत पर आए है। दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें आतंकी फंडिंग मामले में 2 अक्टूबर तक अंतरिम जमानत दी है। फिलहाल रशीद जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में प्रचार कर रहे हैं। उनके साथ जुट रही जनता उनके बढ़ते जनाधार का परिचय दे रही है।
57 साल के रशीद लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान उस समय चर्चा में आए थे, जब उन्होंने उत्तरी कश्मीर की बारामूला सीट पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को दो लाख से अधिक मतों से हराया था। रशीद की यह जीत चौंकाने वाली थी, क्योंकि उन्होंने तिहाड़ जेल में रहकर चुनाव लड़ा था, जहां वे पिछले पांच सालों से जेल में थे। तब राशिद ने एक आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था। यही नहीं उन्हें विधानसभा चुनावों के विपरीत लोकसभा चुनावों के दौरान प्रचार करने की अनुमति नहीं मिली थी।
रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव में कुल 34 उम्मीदवार उतारे हैं। उनके छोटे भाई खुर्शीद अहमद शेख भी उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा जिले की लंगेट सीट से उम्मीदवार हैं। विधानसभा चुनाव प्रचार में रशीद के उतरने से उनकी पार्टी को बड़ी बढ़त मिलने की संभावना जताई जा रही है। इंजीनियर रशीद का चुनाव लड़ना और जेल से बाहर आ जाना उमर अब्दुल्ला के साथ-साथ पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रमुख महबूबा मुफ्ती के लिए भी चिंता का कारण बन गया है। महबूबा मुफ्ती ने अवामी इत्तेहाद पार्टी को बीजेपी की बी पार्टी कहा है। उन्होंने कहा है कि इंजीनियर रशीद भाजपा के इशारों पर काम कर रहे हैं। उधर दूसरी तरफ उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि रशीद को जमानत वोटों के लिए मिली है, न कि सांसद के रूप में जनता की सेवा करने के लिए।