[gtranslate]
Country Editorial

बोया पेड़ बबूल का आम कहां से होय!

राजस्थान में गहलोत सरकार का संकट टल चुका है। बगावत का झंडा बुलंद करने वाले सचिन पायलट अपने समर्थकों समेत वापसी कर चुके हैं। उनकी बगावत के दौरान मुख्यमंत्री अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों के तहत विधानसभा सत्र बुलाए जाने की मांग राज्यपाल से कर रहे थे। संविधान के अनुसार राज्य मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर राज्यपाल राज्य विधानसभा के सत्र को बुलाएगा। राज्यपाल के पास सत्र न बुलाने को लेकर कोई व्यवस्था संविधान में नहीं हैं। उसे मंत्रिमंडल की सलाह माननी ही होगी। अमूमन जब कभी भी किसी राज्य में सरकार अस्थिर होती है राज्यपाल सरकार की स्थिरता को विधानसभा में साबित करने का विकल्प चुनता है और राज्य सरकार को बहुमत साबित करने का आदेश दे सकता है। इसके अतिरिक्त विधानसभा का सत्र बुलाने की सरकार की इच्छा के विपरीत राज्यपाल नहीं जा सकता है। न ही संविधान विशेषज्ञों के अनुसार राज्यपाल सत्र बुलाए जाने के दौरान सरकार को अपना बहुमत सिद्ध करने से रोक सकता है। यह स्पीकर का अधिकार क्षेत्र है। सदन की कार्यवाही पूरी तरह स्पीकर के अधिकार में होती है। राजस्थान में लेकिन राज्यपाल राज्य मंत्रिमंडल की सलाह नहीं मान रहे थे। कांग्रेस और राज्य के मुख्यमंत्री इसे लोकतंत्र की हत्या कह रहे थे। केंद्र सरकार मूकदर्शक बनी हुई थी। अब जबकि राज्यपाल कलराज मिश्र 14 अगस्त को सत्र बुलाने के लिए हामी भर चुके हैं, भाजपा कांग्रेस को अतीत का स्मरण करा रही है। जब सत्ता में रहते कांग्रेस ने राज्यपालों के जरिए चुनी गई सरकारों के खिलाफ काम किया। विश्व के सबसे व्यापक लिखित संविधान वाले देश में ऐसा क्यों कर हुआ और हो रहा है समझने के लिए अतीत की यात्रा करनी पड़ेगी। तो चलिए थोड़ा संविधान सभा के दौर में चल समझा जाए कि हमारे संविधान निर्माता राज्यपाल से क्या अपेक्षा करते थे और बीते तिहत्तर बरसों में इस संस्था का क्षरण कैसे हुआ।

राज्यपाल या गवर्नर ब्रिटिश हुकुमत की देन हैं। 1935 में उनके द्वारा लाए गए ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट’ में विभिन्न राज्यों में राज्यपाल पद बनाया गया। जब हमारे संविधान का निर्माण शुरू हुआ तो इस पद की जरूरत और राज्यपालों के अधिकार आदि को लेकर खासी चर्चा हुई। संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य राज्यपाल की नियुक्ति और उसके अधिकारों को लेकर शंकित थे। तो कुछ ऐसे भी थे जिनका मानना था राज्यों में सक्षम नेतृत्व नहीं है इसलिए केंद्र प्रतिनिधि यानी गवर्नर को ज्यादा अधिकार होने चाहिए। कई सदस्यों को नाराजगी था कि ब्रिटिश एक्ट को हूबहू नकल कर रख दिया गया है।

 

विश्वनाथ दास

असम कांग्रेस के नेता रोहणी कुमार चौधरी ने 2 जुलाई 1949 को संविधान सभा की बैठक में आशंका जाहिर की कि राज्यपाल का पद दुरुपयोग जमकर होगा। ब्रिटिश भारत के समय में उड़ीसा के प्रधानमंत्री रहे विश्वनाथ दास इस संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने 1949 में ही आशंका जताई थी कि जब कभी देश में बहुदलीय सरकारें होंगी तब यदि केंद्र में सरकार अलग पार्टी और किसी राज्य में अलग दल की सरकार होगी तब राज्यपाल के पद का जमकर दुरुपयोग होगा। तब यह मांग भी उठाई गई कि राष्ट्रपति की तरह राज्यों के राज्यपाल का चुनाव होना चाहिए न कि उसे नामित कर केंद्र द्वारा भेजा जाना चाहिए। राज्यपालों के अधिकारों को लेकर अच्छी-खासी बहस के बाद सबसे अंत में डॉ. अम्बेडकर बोले। उन्होंने सदस्यों की सभी आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा कि ‘राज्यपाल का पद गरिमापूर्ण पद है। इसमें बैठे व्यक्ति से पूरी निष्पक्षता की उम्मीद है इसलिए इस प्रकार की आशंकाएं गलत हैं।’ डॉ. अम्बेडकर से यहां भारी चूक हो गई। राज्यपाल के पद का जमकर दुरुपयोग केंद्र की सरकारों ने इन 73 बरसों में किया। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस संविधान सभा में एक अच्छे राज्यपाल के गुण बताते हुए कहा- “The first thing I would like the House to bear in mind is this. The Governor under the Constitution has no functions which he can discharge by himself: no functions at all… Even under this article 167, the Governor is bound to accept the advice of the Ministery. Therefore the criticism that has been made the this article somehow enables the Governor to interfere or to upset the decision of the Cabinet is entirely beside the point, and completely mistaken”

नेहरू ने राज्यपाल पद के लिए कुछ विशेष बातें भी कहीं :

  1. राज्यपाल को राज्य की राजनीति से जुड़ा नहीं होना चाहिए।
  2. राज्य सरकार की सहमति से राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिए।

    विद्वान पुरुष, ऐसा व्यक्ति जो राजनीति से दूर रहा हो, राज्यपाल बनाया जाना चाहिए।

    राजनेता चूंकि राजनीति में दखल देंगे इसलिए शिक्षाविदों एवं अन्य क्षेत्रों के विद्वान लोगों को यह पद मिलना चाहिए।

 

बुरगुला रामकृष्णन्

धरातल पर लेकिन ठीक उलट हुआ। नेहरू सरकार के समय से ही राज्यों में राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों को नियुक्त किया गया। 1959 में केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार को तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के दबाव में राज्यपाल से रिपोर्ट मंगाकर नेहरू ने बर्खास्त किया। तब केरल में राज्यपाल थे सुरगुला रामकृष्णनन् और मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद थे। रामकृष्णनन् खांटी राजनेता थे। 1968 में प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल की ज्योति बसु सरकार को ठीक ऐसे ही राज्यपाल के जरिए बर्खास्त कर डाला था। इंदिरा गांधी के शासनकाल में राज्यपाल के पदों पर ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की गई जो उनके इशारे पर कुछ भी कर सकते थे।

 

राज्यपाल रामलाल
राज्यपाल धर्मवीर

जब धर्मवीर की नियुक्ति पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पद पर की गई तब राज्य सरकार ने ‘इंदिरा का आदमी’ कह उनका विरोध किया था। बसु सरकार की आशंका सही साबित हुई जब बगैर ठोस आधार के उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। 1984 में नंदमुरिक तारक रामाराव की आंध्र प्रदेश में सरकार का तख्तापलट किया गया। तब वहां हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे ठेठ कांग्रेसी रामलाल राज्यपाल थे जिन्होंने तमाम संवैधानिक मर्यादाओं और परंपराओं की धज्जियां उड़ाते हुए पूर्ण बहुमत वाली एनटीआरटी सरकार को बर्खास्त किया था।

 

1991 में कांग्रेस के रहमोकरम पर चल रही चंद्रशेखर सरकार ने कांग्रेस के दबाव में राज्यपाल से रिपोर्ट मंगवा डीएमके सरकार को विदा कर डाला था। संविधान का अनुच्छेद 163 स्प्ष्ट तौर पर राज्यपालों को कोई ऐसी शक्ति नहीं देता जिसके अंतर्गत वे एक चुनी हुई सरकार के मंत्रिमंडल द्वारा भेजी गई किसी भी सिफारिश को ठुकरा सकें। लेकिन एक पेच इसमें ऐसा है जो राज्यपाल को राष्ट्रपति से ज्यादा शक्ति दे देता है। अनुच्छेद 163 के अनुसार राज्यपाल मंत्रिमंडल की सिफारिश मानने को बाध्य तो है लेकिन वह ऐसे किसी भी मामले में अपनी Discritionary Power का इस्तेमाल कर सकता है। यह Discritionary Power को संविधान में स्प्ष्ट नहीं किया गय है। संविधान का अनुच्छेद 53 राष्ट्रपति के अधिकारों को व्याखित स्पष्ट रूप से करता है और राष्ट्रपति को ऐसी कोई Discritionary Power नहीं देता है।

 

राज्यपालों की भूमिका को लेकर कांग्रेस ही नहीं जब कभी विपक्षी दल सत्ता में आए, उन्होंने भी दुरुपयोग किया। जनता पार्टी ने 1977 में सत्ता पाने के बाद 10 कांग्रेस शासित राज्यों में दोबारा चुनाव करवा डाले। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 12 दलितों की बिहार में निर्मम हत्या होने के बाद कानून व्यवस्था के नाम पर राज्यपाल से रिपोर्ट मंगा राबड़ी देवी सरकार को बर्खास्त कर डाला था। तब तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायण इस निर्णय से सहमत नहीं थे। उनको संतुष्ट करने की नीयत से राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने कानून व्यवस्था खत्म होने की एक रिपोर्ट भेज दी।

 

वर्तमान सरकार के द्वारा नियुक्ति राज्यपाल जमकर अपने संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर विपक्षी दलों की सरकारों को अस्थिर करने में जुटे हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, मिजोरम, गोवा, पुदुचेरी आदि इसके उदाहरण हैं। जाहिर है कांग्रेस ने पेड़ तो बबूल का बोया लेकिन उम्मीद आम के फल की कर रही है।

You may also like

MERA DDDD DDD DD