देश के सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एक एतिहासिक फैसला सुनाया था। जिसके तहत जो व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार है या जिस व्यक्ति के ईलाज की संभावना खत्म हो चुकी है। वह इच्छा मृत्यु के लिए लिख सकता है। हालांकि इससे जुड़ी कुछ गाइडलाइन भी जारी की गई थी। 9 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने ईज्जत के साथ मरने के अधिकार को मूलभूत अधिकार का दर्जा दे दिया था। इसके बाद लिविंग विल बनाने की अनुमति दे दी गई थी। मुंबई की रहने वाली प्रोफेसर डॉ लोपा मेहता ने 2019 में लिविंग विल बना दी थी, लेकिन अभी तक उसे रजिस्टर्ड नही करवाया। जबकि इससे जुड़े दिशानिर्देंश 2018 के सुप्रीम कोर्ट के एतिहासिक फैसले का हिस्सा थे। अदालत ने यह फैसला इच्छा मृत्यु और लिविंग विल पर सुनाया था।
क्या है लिविंग विल?
जिस तरह कोई आम व्यक्ति मरने से पहले अपनी जमीन-जायदाद इत्यादि का क्या होगा। उसी तरह लिविंग विल में यह साफ कर देता है अगर भविष्य में उसे कोई गंभीर बीमारी हो जाती है तो उसे दवाओं पर जिंदा रखा जाए या नहीं। इसे इसलिए तैयार किया जाता है, ताकि गंभीर बीमारी की हालत में अगर व्यक्ति खुद फैसले लेने की हालत में नहीं रहे तो पहले से तैयार दस्तावेज के हिसाब से उसके बारे में फैसला लिया जा सके।
इसे लागू करने में काफी दिक्कत आ रही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का पालन करने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर स्टैंडर्ड प्रोसीजर नहीं है। इसी के कारण लोगों को लिविंग विल कराने में परेशानी आ रही है। व्यावहारिक दिक्कतों के चलते इच्छा मृत्यु के लिए मरीज की दवाएं रोकने पर व्यापक कानून की मांग उठी है।
क्या है एक्टिव और पैसिव यूथेनिशिया?
यूथेनिशिया दो प्रकार का होता है, पहला एक्टिव यूथेनिशिया, इसमें गंभीर बीमारी का सामना कर रहे मरीज को घातक पदार्थ देना शुरू कर दिया जाता है। जिसके कारण जल्द ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। वहीं पैसिंव यूथेनिशिया में मरीज को वे वस्तुएं देना बंद कर दिया जाता है जिससे वह जीवित रहता है।