पिछले हफ्ते हरियाणा में पांच साल पुराना भाजपा-जजपा गठबंधन टूट गया। कहा जा रहा है कि हरियाणा की राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी ने वही प्रयोग किया है, जो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किया गया था। इन तीनों राज्यों में भाजपा ने मुख्यमंत्री पद पर नए चेहरों को मौका दिया था। इस प्रयोग को अब हरियाणा में भी दोहराया गया है। भाजपा ने सुबह जजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया तो दोपहर बाद नायब सैनी को मुख्यमंत्री बना दिया गया है जो पिछड़े समुदाय से आते हैं। भाजपा नेतृत्व के इस फैसले को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि आम चुनाव से ठीक पहले उसने गठबंधन क्यों तोडा? ऐसा करके भाजपा क्या हासिल करना चाहती है? ऐसा करके क्या एक तीर से कई निशाने साधने की
कोशिश कर डाली है।
हरियाणा में जो बहुत पहले होना था वो अब हो गया है। सीधी सी बात है कि अगर भाजपा आज बिना दुष्यंत चौटाला के अपना बहुमत साबित कर सकती है तो ऐसा पहले क्यों नहीं किया? निर्दलीय विधायक तो पहले भी बीजेपी के साथ रहे। हां, इसी बहाने भाजपा ने मनोहर लाल खट्टर से जरूर छुटकारा पा लिया है। 11 मार्च को द्वारका एक्सप्रेसवे के उद्घाटन के मौके पर पीएम नरेंद्र मोदी खट्टर की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे। तभी बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों को इसका अहसास होने लगा था कि कुछ तो अलग होने वाला है। पीएम मोदी यूं ही नहीं इस तरह सार्वजनिक तारीफ करते हैं इसके दूसरे ही दिन मनोहर लाल के जाने की तैयारी हो गई। सवाल यह उठता है कि भाजपा चुनाव से ठीक पहले सीएम और साथी बदलकर हरियाणा में क्या हासिल कर लेगी?
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा ने नायब सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर कई निशाने साध दिए हैं। पहला यह कि अब मनोहर लाल खट्टर को लोकसभा का चुनाव लड़ाया जा सके और उन्हें करनाल से उम्मीदवार भी घोषित कर दिया गया है। हालांकि खट्टर को सीएम बनाकर भाजपा ने गैर जाट वोटों को साधने का प्रयास किया था। इसमें काफी हद तक कामयाबी भी मिली। खट्टर, पंजाबी समुदाय से आते हैं। शहरी क्षेत्र में पंजाबी समुदाय की अच्छी-खासी तादाद है। अब सैनी को सीएम बना पिछड़े समुदाय को साधने का प्रयास किया है। भले ही हरियाणा में सैनी समुदाय की संख्या ज्यादा नहीं है, लेकिन वे गैर जाट वोटों का हिस्सा है। प्रदेश में भाजपा का फोकस, गैर जाट वोटों पर ही रहा है। पार्टी नेताओं की सोच है कि पंजाबी, दलित, पिछड़े, ब्राह्माण, बनिया व राजपूत समुदाय का सियासी फायदा, भाजपा को मिलेगा।
हरियाणा में लगभग 22 फीसदी आबादी जाटों की है। पहले जाटों का झुकाव चौ. देवीलाल की पार्टी की तरफ रहा था। उसके बाद जाटों की आबादी का एक हिस्सा बंसीलाल के साथ चला गया। इस बीच जाटों ने ओमप्रकाश चौटाला का साथ दिया और वे मुख्यमंत्री बन गए। 2004 के बाद कांग्रेस के भूपेंद्र हुड्डा ने जाट वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाई। वे दो बार मुख्यमंत्री बने। मौजूदा समय में भी जाट वोट बैंक पर हुड्डा की मजबूत पकड़ है। ऐसे में भाजपा ने अब मुख्यमंत्री बदलकर और जजपा से गठबंधन तोड़कर, गैर जाटों में अपनी पैठ मजबूत करने की कोशिश की है। भाजपा की यह रणनीति है कि कांग्रेस, इनेलो और जजपा अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं तो जाटों के वोट तीन जगहों पर बंट जाएंगे। दूसरी तरफ गैर जाट वोटर, जिन्हें भाजपा अपने पक्ष में मानकर चल रही है, लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उसका फायदा लेने का प्रयास करेगी।
सीधी सी बात है कि हरियाणा में जब जाट वोट विभाजित होगा तभी बीजेपी को फायदा होगा। पिछले चुनावों में भी जाटों का वोट बीजेपी को नहीं मिला था। बीजेपी भी एंटी जाट वोट के लिए रणनीति पर काम कर रही है। हरियाणा में जाट कांग्रेस के साथ हैं और कुछ वोट इनेलो भी ले जा सकती है अगर जाट वोटों का एक और दावेदार आ जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं कि बीजेपी का काम आसान हो जाएगा। दूसरी बात ये कि जजपा के साथ होने से बीजेपी को कोई फायदा नहीं होने वाला था। जजपा अगर बीजेपी से अलग चुनाव लड़ती है तो पार्टी को ज्यादा फायदा हो सकता है। यह बात जितनी बीजेपी के लिए सही है उतना ही जजपा के लिए भी सही है।