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धरती का दो तिहाई हिस्सा पानी से डूबा है। केवल एक तिहाई हिस्से पर ही पूरी दुनिया की आबादी है। इसके बावजूद दुनिया में पानी की कमी की बात आती है। जब दुनिया के दो तिहाई हिस्से में पानी तो भला कमी कैसे होगी। यह सवाल बहुत से आम लोगों के दिमाग में कौंधता है। जिन्हें यह समझना जरूरी है कि मानव जीवन जिस पानी से चलता है उसकी मात्रा पूरी दुनिया में पांच से दस फीसदी ही है। शेष पानी इंसानों के उपयोग लायक नहीं है। समस्या यहां है और उपयोग लायक पानी तेजी से खत्म हो रहा है। यदि अभी इंसान नहीं चेता तो दुनिया संकट में आ जाएगी।
नदियां सूख रही हैं। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। झीलें और तालाब लुप्त हो चुके हैं। कुएं, कुंड और बावड़ियों का रखरखाव नहीं होता। भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से कम होता जा रहा है। आज इंसान धरती से जल को खत्म कर अपना ही नाश करने पर तुला है। भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों की अहमियत को समझने में वैज्ञानिक भी लेट लतीफ साबित हुए हैं।
उत्तराखण्ड में पर्यटकों की मशहूर नगरी नैनीताल है। नैनीताल में कभी पानी से लबालब नौ झीलें हुआ करती थीं। अब सिर्फ सात बची हैं और वह भी पानी की किल्लत से जूझ रही हैं। नैनी झील के ऊपर मौजूद एक तालाब को लंबे वक्त से सूखा ताल कहा जाता है, उसमें बरसात में भी पानी नहीं दिखता। नैनीताल की झील पर गिरने वाले कुछ धारे भी अब सूख चुके हैं। अब हर साल गर्मियों में नैनीताल और भीमताल की झीलें सूखकर विशाल मैदान जैसी दिखाई देने लगी हैं।
पहले इन झीलों से हमेशा नियमित अंतराल में पानी छोड़ा जाता था। वह पानी निचले इलाकों को सींचकर जैवविविधता की प्यास बुझाता था। लेकिन अब सूखी झील से पानी कैसे छोड़ा जाए, हमेशा यही सवाल कौंध रहता है। इतना ही बुरा हाल श्रीनगर की मशहूर डल झील का भी है। कभी 22 वर्गकिमी में फैली डल झील अब आठ वर्गकिलोमीटर में सिकुड़ चुकी है। रुड़की यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर हालात जस के तस रहे तो 355 साल के अंदर डल झील सूख जाएगी। सूखती नदियों या झीलों का यह सवाल सिर्फ भारत को ही परेशान नहीं कर रहा है। दुनिया भर में 1970 से लेकर 2015 के बीच 35 फीसदी भूमि पर मौजूद जलीय इलाके गायब हो चुके हैं। सैकड़ों नदियां और तालाब सूख चुके हैं। वैज्ञानिक भाषा में तालाबों, धारों, झीलों, नालों, नदियों, और दलदलों को भूमि पर मौजूद जलीय इलाके कहा जाता है। जमीन पर सूखते जल संसाधनों की वजह से भूजल का स्तर भी तेजी से गिर चुका है। भूक्षरण बहुत तेज होने लगा है और स्थानीय जलवायु भी बदल रही है।
रैमसार कन्वेंशन ऑफ वेटलैंड्स की प्रमुख मार्था रोखास यूरेगो इस बारे में कहती हैं, ‘हम संकट में हैं। हम भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों को जंगलों के मुकाबले तीन गुना ज्यादा तेजी से खो रहे हैं।’ उनकी 88 पन्नों की रिपोर्ट के मुताबिक आज दुनिया में 1 ़2 करोड़ वर्ग किलोमीटर भूमि पर मौजूद जलीय इलाका बचा है। सन 2000 के बाद इन इलाकों के गायब होने की रफ्तार तेज हुई है।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यही जलीय इलाके पृथ्वी पर मौजूद जीवन को 40 फीसदी ताजा पानी मुहैया कराते हैं। एक अरब से ज्यादा लोगों को भोजन, कच्चा माल और दवाएं भी इन्हें जलीय इलाकों के कारण मिलते हैं। रैमसार कन्वेंशन के मुताबिक धरती के मात्र तीन फीसदी भूभाग पर मौजूद इन जलीय इलाकों में जंगलों के मुताबिक दो गुना ज्यादा कार्बन संचित है। जब ये इलाके सूखते हैं तो यही कार्बन वायुमंडल में घुल जाता है और जलवायु परिवर्तन को और तेज करता है।
जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाले वैज्ञानिक अब तक प्रदूषण, वन कटाई और आर्कटिक से रिसती मीथेन गैस को ही जलवायु परिवर्तन का जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। अब भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों के शोध ने ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर नया आयाम सामने रखा है। तालाबों और नदियों के तटों पर मौजूद जमीन हमेशा पानी सोखती है। नमी की शक्ल में आगे फैलता यह पानी मिट्टी में तरावट बनाए रखता है। लेकिन भूमि पर मौजूद जलीय इलाकों के सूखने से बेहद सूक्ष्म स्तर होने वाला जल प्रवाह भी टूट रहा है। सूखी जमीन का क्षरण हो रहा है और उर्वरता भी घट रही है।
भारत में पानी की कमी को लेकर टकराव तो अभी से पैदा हो गया है। कई राज्यों में दशकों से विवाद जारी है। मसलन कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में टकराव, गोदावरी के जल को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में तनातनी और नर्मदा जल पर गुजरात और मध्यप्रदेश में टकराव की स्थिति। ये टकराव कभी राज्यों के बीच गुस्सा पैदा करते रहे हैं।

‘जरूरी है जल संरक्षण’

उत्तराखण्ड में जल संरक्षण पर काम कर रहे वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता सचिदानंद भारती से बातचीत
हम जल और जंगल को खत्म करने की प्रतियोगिता कर रहे हैं। कौन जीतेगा?
हम इंसान बड़े लोभी और स्वार्थी होते हैं। किन्हीं से अगर कुछ लेते हैं तो लौटाते नहीं हैं। प्रकृति के साथ यह हर इंसान कर रहा है। जंगल से लकड़ी लेते हैं। पानी निकालते हैं। मगर उन्हें वापस नहीं करते। नतीजा तालाब और झीलें लुप्त हो चुके हैं। कुएं, कुंड और बावड़ियों सूख गए हैं, क्योंकि भूजल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। पानी हर किसी की आवश्यकता है। निकालेंगे ही। पर यदि हम प्रकøति को उतना वापस नहीं करेंगे तो धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। फिर इंसान क्या करेगा। जंगल से पेड़ कटता है तो वह दिखता है। हमारे जैसे कुछ लोगों के आवाज उठाने से उस पर थोड़ा बहुत अंकुश लगता है। मगर जमीन से पानी निकालने से कौन, किसको रोक रहा है। कोई नहीं। इसलिए पानी सबसे तेजी से खत्म हो रहा है। यदि हम इस पर गंभीर नहीं हुए तो खत्म होने की प्रतियोगिता में पानी ही जीतेगा। इसके साथ एक सच्चाई यह भी है कि प्रतियोगिता का नतीजा देखने के लिए शायद ही कोई इंसान बचे।
हाल में ही एक अंतरराष्टीय शोध संस्था की रिपोर्ट भी यही कहती है। खत्म होते पानी को हम कैसे रोक सकते हैं?
मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि मानवजनित समस्या को मानव आसानी से दूर कर सकता है। पानी का तेजी से खत्म होने का कारण हम हैं। इसलिए हम इसे रोक सकते हैं। इसके लिए बहुत छोटे-छोटे उपाय हर आम इंसान कर सकता है। मसलन, सबसे पहले पानी की बर्बादी को रोकना होगा। हम ब्रश करते हैं या हाथ धोते हैं तो मग में पानी लेकर पानी का उपयोग करें। सीधे नल से नहीं। घर से निकलने वाले वेस्ट वाटर को हार्वेस्टिंग कर सकते हैं। बड़े स्तर पर पानी संरक्षण अनिर्वाय होना चाहिए। बारिश के पानी को भी बचा कर उसे जमीन के अंदर भेजना चाहिए। तब जाकर हम पानी बचा सकेंगे।
सरकार के स्तर पर इसको लेकर क्या हो रहा है?
ईमानदारी से कहूं तो कुछ नहीं। सिर्फ कानून बनाने से कुछ नहीं होगा। नियम तो हजारों बने हुए हैं। उसका पालन कौन कर रहा है। ग्राउंड वाटर निकालने पर पाबंदी है। फिर दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो सिटी में हर कॉलोनी में बोरिंग से पानी निकाला जा रहा है। पानी माफिया वहां काम कर रहा है। सरकार को इन सब पर रोक लगानी चाहिए और उन्हें पानी संरक्षण के लिए अभियान चलाना चाहिए।

 

  • 30 साल में दो गुना से ज्यादा हो जाएगी दुनिया भर में पीने के पानी की मांग

 

  • संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 2050 तक पानी की मांग आज के मुकाबले 55 फीसदी ज्यादा हो जाएगी। जमीन में पानी का स्तर हर साल 3.2 प्रतिशत तक घट रहा है। 2025 तक भारत पानी की भीषण कमी से जूझने वाले देशों में शामिल हो जाएगा।

 

  • 10 लाख लीटर सालाना प्रति व्यक्ति है भारत में पानी की उपलब्धता। 1951 में यह 30 से 40 लाख लीटर थी। यानी पिछले 67 साल में चार गुना कम हो गई है।

 

  • भारत में 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है।

 

  • हर एक मिनट में दुनिया में 48 फुटबॉल मैदानों के बराबर जंगल काटे जा रहे हैं।

 

  • भारत में हर साल 1.3 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र काटे या जलाए जा रहे हैं। ईको सिस्टम को बनाए रखने में पेड़ों की अहम भूमिका है। इनसे भोजन मिलता है। पानी फिल्टर होता है और ये कार्बन को सोख लेते हैं।

 

  • भारत में उपलब्ध पानी में से 85 फीसदी कृषि क्षेत्र, 10 फीसदी उद्योगों और पांच फीसदी ही घरेलू उपयोग में लाया जाता है।

 

  • सिंचाई का 70 फीसदी और घरेलू जल आपूर्ति का 80 फीसदी पानी ग्राउंडवाटर के जरिए आता है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और नई दिल्ली में 2002 से 2008 के बीच 28 क्यूबिक माइल्स पानी नदारद हो गया। इतने पानी से दुनिया की सबसे बड़ी झील को तीन बार भरा जा सकता है।

 

  • पंजाब का अस्सी फीसदी इलाका डार्क जोन या ग्रे जोन में बदल चुका है। यानि जमीन के नीचे का पानी या तो खत्म हो चुका है या खत्म होने जा रहा है।

 

  • वर्ष 1986 में पंजाब में ट्यूबवैलों की संख्या  55 हजार थी। जो अब पचीस लाख के ऊपर पहुंच चुकी है। अब तो ये पंप भी जवाब देने लगे हैं। एक तरह से कहें कि पिछले हजारों सालों से जो पानी धरती के अंदर जमा था, उसको हमने 35-40 सालों में अंदर से निकाल बाहर कर दिया है।

 

  • पंजाब में 12 हजार गांव हैं, जिसमें 11,858 गांवों में पानी की समस्या है।

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