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पानी को पीने लायक बनाने में विफल वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट !

पूरी दुनिया के डॉक्टरों द्वारा एंटीबायोटिक दवाओं को संक्रमण के इलाज में शुरुआती जरिया माना जाता है। लेकिन अब धीरे-धीरे इनका अंधाधुंध इस्तेमाल लोगों की मौत का कारण बनता जा रहा है। एक स्टडी के अनुसार दुनिया भर में एंटीबायोटिक दवाओं से वर्ष 2019 में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई है। जो बेहद चिंताजनक है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी वर्ष 2015 में इस विषय पर वैश्विक रणनीति की घोषणा की गई थी। जिसके चलते साल 2017 में इसपर एक नेशनल एक्शन प्लान बनाया गया। इस प्लान के मुताबिक राज्य सरकारों को प्रदेश स्तर पर एक रणनीति बनाने की सलाह दी गई। लेकिन एक निजी समाचार साइट डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, नवंबर 2022 तक मात्र तीन ही राज्य इस पर कार्य योजना बना पाए हैं।

दरअसल मौजूदा समय में भारत और चीन में ख़राब पानी को स्वच्छ पानी में बदलने की तकनीक पर तेजी से काम चल रहा है। लेकिन ट्रीटमेंट प्लांट लगाकर भी गंदे पानी को पीने लायक बनाने की योजनाओं से कहीं भी फायदा होता नजर नहीं आ रहा है। इसके विपरीत इससे मौतों में इजाफा जरूर होता दिख रहा है। ऐसा कई बड़े अंतरराष्ट्रीय मंचो की रिपोर्ट्स और आंकड़ों में नजर आता है।

हाल में में “दी लैंसेट प्लानेट्री” में छपे एक शोध के मुताबिक पानी और उसे साफ करके पीने के पानी में बदलने वाले ट्रीटमेंट प्लांट, एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) पैदा करने का एक अड्डा बनते जा रहे हैं। जिसका मुख्य कारण है पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी मिलना। इस रिसर्च के ऑथर नदा हाना, प्रोफेसर अशोक जे तामहंकर और प्रोफेसर सेसिलिया स्टाल्सबी लुंडबोर्ग हैं।

एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) क्या है ?

मेडिकल साइंस के मुताबिक एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस उस स्थिति को कहते हैं जब बैक्टीरिया उन दवाइयों के प्रति अनुकूलित हो जाते हैं जो उन्हें मारने के लिए बनाई गई हैं। इसका मतलब है कि बैक्टीरिया मरते नहीं है बल्कि लगातार बढ़ते जाते हैं।

एंटीमाइक्रोबॉयल रेजिस्टेंस होने के बाद उस संक्रमण का इलाज काफी दिक्कत भरा साबित होता है। यह वही स्थिति होती है जब मरीज के शरीर में मौजूद बैक्टीरिया, वायरस और पैरासाइट के सामने दवा असर करना बंद कर दे। किसी भी एंटीबायोटिक दवा के ज्यादा इस्तेमाल या बिना कारण एंटीबायोटिक दवा लेने से ये स्थिति बनती है। क्योंकि बैक्टीरिया, संक्रमण का इलाज करने वाली दवाओं से जीतने की ताकत विकसित कर लेते हैं।

रिसर्च के लिए चीन और भारत समेत कई जगहों से पानी के नमूने एकत्रित किए गए। जिसमें वेस्टवॉटर और ट्रीटमेंट प्लांट्स से लिए गए पानी के नमूने भी शामिल किए गए थे। इस जांच में कई जगहों के पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी अधिकतम सीमा से अधिक देखी गई। चीन में एएमआर की स्थिति पैदा करने का सबसे ज्यादा खतरा नल के पानी में पाया गया। इसमें सिप्रोफ्लोएक्सिन नामक एंटीबायोटिक की काफी मौजूदगी पाई गई है।

 

फायदेमंद नहीं है वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट

आमतौर पर नगर निगम और नगर पालिकाएं ही भारत जैसे देशों के शहरी इलाकों में लोगों के घरों के नल तक पानी की आपूर्ति का जिम्मा देखती है। घरों के नल तक पहुंचने से पहले इस पानी को ट्रीटमेंट प्लांट में साफ किया जाता है। प्लांट तक पहुंचने वाले पानी में अस्पताल, मवेशी पालन की जगहों, दवा बनाने वाली जगहों से निकलने वाला पानी शामिल होता है।

जानकारों का कहना है कि अगर ट्रीटमेंट प्लांट से होकर गुजरने के बाद भी इस पानी में मौजूद एंटीबायोटिक जस का तस बना रहता है, तो सप्लाई होने वाले पानी में भी एंटीबायोटिक मौजूद रहेगा। लोगों द्वारा यही पानी पिया जाएगा और भी कई जरूरत के कामों में इस्तेमाल किया जाएगा। जिससे लोगों में एमएमआर का खतरा बढ़ेगा। इस रिसर्च से यह भी पता चलता है कि ट्रीटमेंट प्लांट की मौजूदा व्यवस्थाएं ऐसे तत्वों को हटाने में बेअसर साबित हो रही हैं।

दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए एएमआर बेहद गंभीर खतरा बनता जा रहा है। इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर उपलब्ध दवाएं बेअसर साबित होगी और स्थापित इलाज प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकेगी।

एंटीबायोटिक दवाओं के नुकसान

इन दवाओं के ज्यादा सेवन से संक्रमण पैदा करने वाले कुछ बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं और कुछ उस दवा से लड़ने की शक्ति विकसित कर लेते हैं।
एंटीबायोटिक का बेरोकटोक इस्तेमाल इम्यून हो जाने वाले बैक्टीरिया की संख्या को बढ़ा देता है।
एंटीबायोटिक का जितना ज्यादा इस्तेमाल किया जाए, बैक्टीरिया के इम्यून होने की संभावना भी उतनी ज्यादा बढ़ती जाती है।

पशुपालन में भी सख्त नियमों की जरूरत

एएमआर का एक बड़ा जरिया मवेशी पालन भी बन रहा है। गौरतलब है कि गाय, मुर्गा और सूअर जैसे मांस और दूध के लिए पाले जाने वाले जानवरों को बड़े स्तर पर एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का सेवन कराया जाता है। इससे निपटने के लिए यूरोप के कई देशों में सख्त कानून लाए गए हैं। साल 2021 में यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी (ईएफएसए) द्वारा अपनी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि मवेशियों को एंटीबायोटिक दिए जाने में कमी आई है।

यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 से 2018 के बीच मांस और डेयरी के लिए पाले जाने वाले जानवरों में पॉलीमिक्सिन श्रेणी के एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करीब 50 फीसदी तक कम देखा गया है। लेकिन भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में अभी भी स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2019 में साइंस जर्नल में एएमआर से जुड़ी एक रिसर्च में सिफारिश की गई थी कि ये देश मवेशी पालन में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए जल्द से जल्द प्रभावी कदम उठाए।

भारत की स्थिति गंभीर

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021 में केवल 43 फीसदी न्यूमोनिया के मामलों को ही शुरुआती स्तर (फर्स्ट लाइन) के एंटीबायोटिक्स से ठीक किया जा सका। 2016 में यह आंकड़ा 65 फीसदी था। इस क्षेत्र के कई जानकारों का कहना है कि भारत एएमआर से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में शामिल है।

भारत एंटीबायोटिक का बड़ा उत्पादक है। भारत में एंटीबायोटिक दवाएं बिना डॉक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के ही मिल जाती हैं। जागरूकता और अस्पताल जाने से बचने के लिए लोग सर्दी-खांसी जैसे संक्रमणों में भी इन दवाओं का सेवन कर लेते हैं। जबकि एंटीबायोटिक केवल बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमणों में ही प्रभावी होती हैं।

दुनिया की पहली एंटीबायोटिक दवा का आविष्कार अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में किया था। जिसका नाम पेनिसिलिन था। इससे पहले न्यूमोनिया जैसे मामूली संक्रमणों के लिए भी कोई प्रभावी इलाज मौजूद नहीं था। इस खोज के लिए फ्लेमिंग को 1945 में चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। पेनिसिलिन की खोज के साथ ही ऐंटीबायोटिक दवाओं का दौर शुरू हुआ और कई तरह के संक्रमणों में प्रभावी इलाज में मदद मिली। इनके कारण अनगिनत लोगों को मौत के मुंह से बचाया जा सका लेकिन अब ये मौत का कारण बन रहा है।

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