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  •     वृंदा यादव, प्रशिक्षु

हिंदी भाषा को लेकर देश के गृहमंत्री के एक बयान के बाद तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके, विपक्षी अन्नाद्रमुक, पीएमके, एमडीएमके और अन्य राजनीतिक दल केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान के खिलाफत में उतर आए हैं। डीएमके के ‘मुरासोली’ अखबार ने अपनी ओर से शाह के विचारों के खिलाफ एक लेख प्रकाशित किया है। डीएमके की सांसद कनिमोझी के मुताबिक ‘हिंदी भाषा देश को जोड़ने का नहीं बल्कि तोड़ने का काम करेगी।’ उन्होंने कहा कि ‘केंद्र सरकार और उसके मंत्रियों को हिंदी विरोधी आंदोलन के इतिहास और इसके लिए दी गई कई लोगों की कुर्बानी के बारे में पता होना चाहिए। राज्य के भाजपा नेताओं ने खुद कहा था कि पार्टी तमिलनाडु के लोगों पर हिंदी भाषा थोपने को स्वीकार नहीं करेगी।’

 

पूर्वोत्तर राज्यों में एक बार फिर भाषा को लेकर जंग छिड़ गई है। यह पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले भी भाषा लोगों के बीच बहस का मुद्दा बन चुकी है। हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्वोत्तर राज्यों के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन असम समेत कई राज्यों में उनके इस कदम का विरोध होने लगा है। हालांकि कई संगठनों ने कहा कि हिंदी को वैकल्पिक विषय के रूप में रखने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। दरअसल, हिंदी को ‘भारत की भाषा’ बताते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि पूर्वोत्तर के सभी आठ राज्यों ने दसवीं क्लास तक के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने पर सहमति जताई है। अमित शाह संसदीय राजभाषा समिति के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने कहा था कि उत्तर पूर्व के इन आठ राज्यों में हिंदी पढ़ाने के लिए 22 हजार शिक्षक बहाल किए गए हैं। शाह ने यह भी बताया था कि पूर्वोत्तर के नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपि को बदलकर देवनागरी कर लिया है। इससे पहले भी 2019 में अमित शाह ने ‘एक राष्ट्र दृ एक भाषा’ का बयान दिया था।

अब हिंदी भाषा को अनिवार्य बनाए जाने के विरोध में पूर्वोत्तर राज्यों का कहना है कि हिंदी भाषा को जबरदस्ती उन पर थोपा जा रहा है इससे उनकी भाषा की संस्कृति नष्ट हो सकती है। क्योंकि यहां कई भाषा बोलने वाले लोग निवास करते हैं।
हिंदी भाषा को लेकर देश के गृहमंत्री के एक बयान के बाद तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके, पीएमके, विपक्षी अन्नाद्रमुक, एमडीएमके और अन्य राजनीतिक दल केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान के खिलाफत में उतर आए हैं। डीएमके के ‘मुरासोली’ अखबार ने अपनी ओर से शाह के विचारों के खिलाफ एक लेख प्रकाशित किया है। डीएमके की सांसद कनिमोझी के मुताबिक, ‘हिंदी भाषा देश को जोड़ने का नहीं बल्कि तोड़ने का काम करेगी।’ उन्होंने कहा कि ‘केंद्र सरकार और उसके मंत्रियों को हिंदी विरोधी आंदोलन के इतिहास और इसके लिए दी गई कई लोगों की कुर्बानी के बारे में पता होना चाहिए। राज्य के भाजपा नेताओं ने खुद कहा था कि पार्टी तमिलनाडु के लोगों पर हिंदी भाषा थोपने को स्वीकार नहीं करेगी।’
तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में राजनीतिक दलों ने इसे उन पर हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में देखा और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू करने की अपनी मंशा की घोषणा की है। जैसे ही गृहमंत्री अमित शाह की टिप्पणी के खिलाफ नेताओं ने आवाज उठानी शुरू की तो शाह ने स्पष्ट किया, ‘उन्होंने कभी भी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर हिंदी थोपने की मांग नहीं की थी। हालांकि गृहमंत्री ने लोगों से सिर्फ अनुरोध किया था कि हिंदी को अपनी मातृभाषा के साथ दूसरी भाषा के रूप में सीखा जाना चाहिए।’ शाह ने क्षेत्रीय दलों को शांत करने के लिए कहा कि वह खुद गुजरात से आते हैं, जो एक गैर-हिंदी राज्य है।

इससे पहले, केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति (एनईपी) के मसौदे में स्कूलों में तीन भाषा के फॉर्मूले के तहत हिंदी के अनिवार्य शिक्षण के प्रस्ताव पर भी विवाद खड़ा हो गया था। जब तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल राज्यों ने इसका विरोध करना शुरू किया तो इसे संशोधित कर दिया गया। रेल मंत्रालय ने भी सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी में भर्ती परीक्षा आयोजित करने का निर्णय लिया था, लेकिन विरोध के बाद इसे भी वापस ले लिया गया। इसी तरह दक्षिण रेलवे ने संभागीय नियंत्रण कार्यालय और स्टेशन मास्टरों को निर्देश जारी किया था कि वे हिंदी या अंग्रेजी में बोलें और गलतफहमी को रोकने के लिए क्षेत्रीय भाषा से बचें, इसे भी विरोध के बाद वापस ले लिया गया।

वर्ष 1930 से जारी है हिंदी भाषा का विरोध
हिंदी विरोधी आंदोलन की जड़ें तमिलनाडु में भारत की आजादी से पहले से 1930 के दशक से जारी हैं। तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में आंदोलन देखा गया था जब स्कूलों में हिंदी को एक विषय के रूप में पेश करने की मांग की गई थी, जब स्वर्गीय
सी. राजगोपालाचारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे। इस कदम का ई.वी. रामासामी और जस्टिस पार्टी ने विरोध किया और तीन साल तक आंदोलन चला। इस आंदोलन के दौरान दो प्रदर्शनकारियों की जान चली गई और 1 हजार से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया था। हालांकि 1939 में जर्मनी के खिलाफ युद्ध में भारत को एक पक्ष बनाने के ब्रिटेन के फैसले का विरोध करते हुए कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने हिंदी शिक्षण आदेश वापस ले लिया। रामासामी और डीके के नेतृत्व में फिर से हिंदी विरोधी आंदोलन का दूसरा चरण 1946-50 के दौरान आया था, जब भी सरकार ने स्कूलों में हिंदी को वापस लाने की कोशिश की थी। इसके बाद में 1953 में डीएमके ने कल्लुकुडी शहर का नाम बदलकर डालमियापुरम (उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया के नाम पर) करने का विरोध इस आधार पर किया कि यह उत्तर द्वारा दक्षिण के शोषण को दर्शाता है।

आधिकारिक भाषा अधिनियम के पारित होने के विरोध में 1963 में अन्नादुरई के नेतृत्व में द्रमुक ने एक विरोध शुरू किया। आशंकाओं को बढ़ाते हुए कांग्रेस के मुख्यमंत्री एम. भक्तवचलम ने तीन भाषाओं अंग्रेजी, तमिल और हिंदी का फॉमूर्ला लाए। हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनने के खिलाफ 1965 में तमिलनाडु में फिर से प्रमुख हिंदी विरोधी विरोध शुरू हो गया। आंदोलन का प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में दो मंत्रियों पर प्रभाव पड़ा जिसके कारण सी सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था। द्रमुक और छात्रों के नेतृत्व में आंदोलन, 1967 में द्रविड़ पार्टी के राज्य में सत्ता में आने के प्रमुख कारणों में से एक था, जिसने कांग्रेस को विस्थापित किया। उस चुनाव ने आज तक के लिए तमिलनाडु में कांग्रेस के शासन को समाप्त कर दिया।

भारतः विविधता में एकता का देश
गौरतलब है कि भारत गणराज्य विविधताओं का देश है। जहां अलग-अलग संस्कृति, परंपरा, भाषा आदि को मानने वाले लोग रहते हैं। अगर भाषा की बात करें तो इन्हीं भाषाई विविधताओं के कारण भारत में किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा स्वीकार नहीं किया गया है। संविधान की आठवीं अनुसूची के अनुसार देश में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है, पहले इनकी संख्या 14 थी। लेकिन अब इन 22 भाषाओं में असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, उर्दू, सिंधी, नेपाली, मणिपुर, कुफरी, बोडो, मैथिली, डोगरी, और संताली शामिल है। साथ ही भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न बोलियां बोली जाती हैं। हाल ही में आए एक आंकड़े के अनुसार भारत में लगभग 1 लाख 9 हजार 500 बोलियां मातृभाषा के रूप में बोली जाती है। इतनी विक्रेताओं के कारण ही भारत को अनेकता में एकता का देश कहा जाता है परंतु इसका एक नकारात्मक प्रभाव यह है इतनी विविधताओं के कारण यहां विवाद की स्थिति भी बनी रहती है। इन्हीं विवादों को खत्म करने के लिए भारत में राज्यों के विभाजन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई थी।

राज्य पुनर्गठन आयोग
राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करने का प्रमुख कारण यह था की पहले भारत 21 प्रशासनिक क्षेत्रों में बंटा हुआ था पर ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद अंग्रेजों ने भारत को कई रियासतों में बांट दिया। जिसके कारण राज्यों का पुनर्गठन करना भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आई। सन 1920 में जब कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया तब उन्होंने क्षेत्रों की भाषाई अस्मिता पर जोर दिया। स्वतंत्रता के बाद आजाद भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि 562 देसी रियासतों का गठन राज्य के रूप में किस आधार पर किया जाय। राज्यों के विभाजन के लिए भाषा को आधार बनाया गया।

इस भाषाई विभाजन के लिए सन् 1953 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ को स्थापना की गई। जिसमें तीन सदस्य थे, न्यायमूर्ति फजल अली की अध्यक्षता में हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर थे। इसके फलस्वरूप 1953 में आंध्र प्रदेश भाषाई आधार पर सबसे पहला तेलुगु भाषी राज्य बना। आंध्र प्रदेश के गठन के पीछे एक बड़े समाज सुधारक ‘पोट्टी श्रीरामलू’ का हाथ था जिन्होंने 58 दिनों तक मद्रास से आंध्र प्रदेश को अलग करने के अनसन किया और अंत में उनकी मृत्यु हो गई। जिसके बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग का अधिनियम पास हो गया जिसके अंतर्गत 14 राज्यों और 6 केंद्र प्रशासित राज्यों का गठन किया गया। इसके बाद अन्य कई राज्यों का गठन भी इसी प्रकार हुआ सन् 1960 में भाषाई आधार पर महाराष्ट्र से गुजरात को विभाजित कर दिया गया, 1962 में नागालैंड को असम राज्य से विभाजित किया गया, इसके बाद पंजाब और हरियाणा अलग राज्य बने, 1971 में मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय राज्यों का गठन हुआ, 1986 में अरुणाचल प्रदेश और 1987 में गोवा को राज्य बना दिया गया इनमें से कुछ राज्यों के गठन का आधार संस्कृतिक, राजनीतिक एवं प्रशासनिक भी है। वर्तमान में भारत में कुल 29 राज्य और 7 केंद्र प्रशासित राज्य हैं।

अमित शाह के बयान विरोधी तर्क
अमित शाह के बयान के बाद उनके विरोध में स्वर गूंज उठे है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री ‘सिद्धारमैया’ ने कहा कि एक कन्नड़ के रूप में, मैं गृहमंत्री अमित शाह की आधिकारिक भाषा और संचार के माध्यम पर टिप्पणी के लिए कड़ी निंदा करता हूं। हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं है और हम इसे कभी नहीं होने देंगे।’ तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि ‘हम हिंदी का सम्मान करते हैं लेकिन हम हिंदी थोपने का विरोध करते हैं। अमित शाह को अपनी बातों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।’
वहीं शिवसेना की नेता मनीषा कायंडे का कहना है कि ‘अमित शाह ने जो कहा है, उसमें क्षेत्रीय भाषाओं और पार्टियों के मूल्य को कम करने का एक एजेंडा है।’ केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने भी इसका विरोध करते हुए कहा कि ‘भारत विविधता में एकता का देश के रूप में पहचाना जाता है। भाषाएं हर समाज की संस्कृति और जीवन का आधार हैं और अगर भाषा की हत्या कर दी जाएगी तो ये विविधता नष्ट हो जाएगी।

हिंदी भाषा का समर्थन
जहां विरोधी पार्टी व संगठन अमित शाह के विरोध में विरोध में दिख रहे हैं वहीं पूर्वोत्तर का ही एक राज्य मेघालय के मुख्यमंत्री ‘कोनराड के संगमा’ ने कहा कि ‘नई भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है और स्थानीय भाषाओं के लिए शिक्षण या शोध संस्थानों की स्थापना पर समान रूप से जोर दिया जाना चाहिए।’

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