देश एक ओर जहां ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं की जिस बेहतर स्थिति की अपेक्षा की गई थी उसमें आज तक सफलता नहीं मिल पाई है। तमाम कानूनों के बाद भी महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले कम होने के बजाय बढ़ते जा रहे हैं। कई रिपोट्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर तीसरी महिला के साथ गर्भावस्था के दौरान घरेलू हिंसा होती है। जिसने महिलाओं की भागीदारी को लेकर चिंता बढ़ा दी है
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः अर्थात् जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है। लेकिन महिलाओं को पूजनीय मानने वाले देश में तमाम कानूनों के बाद भी महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले कम होने के बजाए बढ़ते जा रहे हैं। जबकि इनको रोकने के लिए प्रावधान मौजूद हैं। बावजूद इसके महिलाओं के साथ हिंसा एक बड़ी चिंता बन गई है। हाल ही में जारी कई रिपोर्ट्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में गर्भवती महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा की सबसे अधिक वारदातें देखने को मिलती हैं। इन हिंसाओं के कारण ही गर्भवती महिलाओं, नवजात शिशुओं की अत्यधिक मौतों के आंकड़े दर्ज किए गए हैं। इतना ही नहीं इन मामलों में महिलाओं की हड्डियां चूर होने, दांत टूटने, कान के पर्दे फटने और आंखें फूटने के मामले लगातार सामने आते रहे हैं। दुनिया भर में हर 4 में से एक और भारत में हर तीसरी महिला गर्भावस्था के दौरान मारपीट झेलती है। जिसका उनके नर्वस सिस्टम से लेकर प्राइवेट पार्ट्स तक पर बहुत बुरा असर पड़ता है। कई मामलों में पेट पर लात, घूंसे मारने से गर्भवती महिला और गर्भ में पल रहे बच्चे की तुरंत मौत भी हो जाती है। यूनाइटेड नेशंस के मुताबिक नाइजीरिया के बाद भारत दुनिया का दूसरा ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा गर्भवती महिलाओं या शिशुओं की जन्म के एक महीने के भीतर जान (मैटरनल डेथ) जाती है। कुछ समय पहले आईआईटी पटना की रिपोर्ट बताती है कि डोमेस्टिक वॉयलेंस की शिकार 74 फीसदी गर्भवती महिलाओं को उम्र भर गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
गर्भावस्था के दौरान घरेलू हिंसा के परिणाम मिसकैरेज और अबॉर्शन
नानावटी मैक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल में गायनेकोलॉजिस्ट डॉ ़सुरुचि देसाई बताती हैं कि मारपीट के दौरान पेट के बल गिरने या फिर सीधे पेट में चोट लगने से मिसकैरेज हो जाता है। कई बार अंदरूनी चोट का पता नहीं चलता और इंटरनल ब्लीडिंग होती रहती है, जो गर्भ में पल रहे बच्चे के साथ मां के लिए भी जानलेवा साबित होती है। ऐसे मामलों में या तो गर्भ गिर जाता है या फिर मां की जान बचाने के लिए अबॉर्शन करना पड़ता है। आईआईटी की रिसर्च के अनुसार गर्भवती की पिटाई से गर्भ गिरने का खतरा 29 फीसदी बढ़ जाता है, जबकि 89 फीसदी मामलों में उन्हें गर्भपात कराना पड़ता है।
स्टिलबर्थ
घरेलू हिंसा से स्टिलबर्थ की आशंका 3 गुना बढ़ जाती है। 20 हफ्ते की प्रेगनेंसी के बाद गर्भ में या फिर डिलीवरी के दौरान मृत बच्चे के जन्म को स्टिलबर्थ कहा जाता है। मां की पिटाई के दौरान लगी चोट से गर्भाशय में बच्चे को सुरक्षा देने वाली एम्नियोटिक फ्लूइड की थैली फट जाती है। जिससे पानी बाहर बहने लगता है और गर्भाशय सिकुड़ने लगता है। प्लेसेंटा गर्भाशय से अलग हो जाता है, जिसे ‘प्लेसेंटल अबार्शन’ कहते हैं। इस स्थिति में बच्चे तक ऑक्सीजन की सप्लाई बंद हो जाती है। कई स्थितियों में ‘प्लेसेंटल अबॉर्शन’ का पता नहीं चल पाता, इसके 20 से 27 हफ्ते के दौरान भ्रूण की मौत हो जाती है जिसको ‘अर्ली स्टिलबथ’ कहते हैं। 28 से 36 हफ्ते के दौरान ऐसा होने पर प्रेगनेंसी काम्प्लिकेटेड हो जाती है। 37वें हफ्ते में ‘प्लेसेंटल एबरप्शन’ के खतरनाक परिणाम भी देखे गए हैं। समय पर इलाज न शुरू होने से बच्चे के साथ मां की भी जान का खतरा बढ़ जाता है। डॉ ़सुरुचि बताती हैं कि लगातार लंबे समय तक हिंसा झेलने वाली माएं हाई ब्लड प्रेशर की चपेट में आ जाती हैं। हाई बीपी से भी ‘प्लेसेंटल अबॉर्शन’ का खतरा अधिक होता है।
प्रीमैच्योर बर्थ
एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर साल 1.29 करोड़ बच्चों का जन्म समय से पहले हो जाता है। 37वें हफ्ते से पहले होने वाली इस डिलीवरी को प्रीमेच्योर बर्थ और प्री-टर्मबर्थ कहते हैं। जर्नल प्लास के आंकड़े बताते हैं कि प्री-टर्म बर्थ के एक तिहाई से ज्यादा मामले अफ्रीका और एशिया में आते हैं, जिसमें भारत भी शामिल है। प्रेग्नेंसी के दौरान मारपीट से समय से पहले बच्चे के जन्म का खतरा 3 गुना बढ़ जाता है।
लो बर्थ वेट
मार खाने वाली गर्भवतियों के बच्चों का वजन जन्म के वक्त कम रहने का जोखिम 4 गुना ज्यादा होता है। जन्म के समय नवजात का वजन 2 .5 किलो होना चाहिए। इससे कम वजन होने पर इसके लिए ‘लो बर्थ वेट’ टर्म का इस्तेमाल होता है। आईआईटी पटना की रिसर्च के मुताबिक मारपीट की शिकार 8 फीसदी महिलाएं कम वजन वाले बच्चों को जन्म देती हैं।
फिजिकल-मेंटल प्रॉब्लम्स
अगर गर्भ में पल रहा शिशु बच भी जाए, तो जन्म के बाद उसे तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं। मां की आपबीती का असर गर्भ में पल रहे बच्चे की मानसिक और शारीरिक सेहत पर पड़ता है। बच्चे के हेल्दी होने के लिए प्रेग्नेंसी के वक्त मां को हिंसा और डर से बचाना जरूरी है। गर्भावस्था के दौरान घरेलू हिंसा झेलने वाली महिलाओं के बच्चों के बीमार होने का खतरा दोगुना होता है। ये बच्चे ट्रामा, इटिंग प्रॉब्लम्स और नींद से जुड़ी समस्याओं के शिकार हो जाते हैं। उनके विकास पर भी इसका बुरा असर दिखता है।
मैटरनल डेथ
लंदन में हेल्थ रिसर्चर दिव्या विनाकोटा की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में 80 फीसदी मैटरनल डेथ का संबंध प्रेगनेंसी के दौरान होने वाली परेशानियों से है। इसमें डोमेस्टिक वॉयलेंस की वजह से होने वाले अबॉर्शन जैसे कारण भी शामिल हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में हर साल अबॉर्शन के करीब 5 .6 करोड़ केस सामने आते हैं। इनमें से करीब सवा 2 करोड़ अबॉर्शन अवैध और असुरक्षित तरीके से अंजाम दिए जाते हैं। असुरक्षित गर्भपात से जान जाने का खतरा भारत जैसे देशों में सबसे ज्यादा है। गर्भावस्था में घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं की जान जाने का खतरा 3 गुना बढ़ जाता है।
असुरक्षित अबॉर्शन क्यों?
शादी के बाद महिलाओं को पति की जोर-जबरदस्ती झेलनी पड़ती है। वे सजा के तौर पर बिना कंडोम संबंध बनाने का दबाव बनाते हैं। ‘द इंटरनेशनल जर्नल ऑफ गायनोकोलॉजी एंड ऑब्स्टेट्रिक्स’ के मुताबिक 13 में से 4 महिलाएं न चाहते हुए भी प्रेग्नेंट होती हैं, जिन्हें पति बर्थ कंट्रोल के लिए पहले तो कोई गर्भ निरोधक यूज नहीं करने देते और गर्भ ठहरने के बाद अबॉर्शन कराने का दबाव भी बनाते हैं। ऐसे में अक्सर अबॉर्शन के लिए असुरक्षित तरीके अपनाए जाते हैं।
डायबिटीज, अस्थमा, माइग्रेन और एचआईवी
प्रेग्नेंसी के दौरान भी महिलाएं इमोशनल और सेक्शुअल एब्यूज झेलती हैं। बात-बेबात उन्हें अपमानित किया जाता है, डराया-धमकाया जाता है। बिना मर्जी के फिजिकल रिलेशन बनाने को मजबूर किया जाता है। डॉ सुरुचि के मुताबिक इससे हार्मोनल इनबैलेंस, डायबिटीज, अस्थमा, माइग्रेन और एचआईवी जैसे इन्फेक्शन का खतरा भी उनके लिए बढ़ जाता है।
साइकेट्रिस्ट डॉ राजीव मेहता कहते हैं कि बार-बार अबार्शन से महिलाओं की सेक्शुअल और रिप्रोडक्टिव लाइफ पर भी बुरा असर पड़ता है। वे पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी), डिप्रेशन, एंग्जाइटी जैसी मानसिक बीमारियों की शिकार हो जाती हैं। ये हालात भी मिसकैरेज, अबॉर्शन, स्टिलबर्थ और प्रिमैच्योर बर्थ का खतरा बढ़ाते हैं और नवजात की सेहत पर बुरा असर डालते हैं।
कामकाजी गर्भवती महिलाओं से मारपीट
गर्भवती महिला के वर्किंग होने और पैसे कमाने से भी हालात ज्यादा नहीं बदलते। डोमेस्टिक वॉयलेंस की शिकार महिलाओं के लिए काम करने वाली सोशल वर्कर शालिनी महाजन बताती हैं कि ‘ससुराल वाले या तो बहू की नौकरी छुड़वा देते हैं या फिर उसके पैसे खुद रख लेते हैं। नौकरी करने के बावजूद ये महिलाएं अपनी सेहत पर कुछ खर्च नहीं कर पातीं। आईआईटी पटना की रिसर्च कामकाजी महिलाओं से मारपीट की पुष्टि करती है। ऐसे मामलों में गर्भवती कामकाजी महिलाओं का गर्भ गिरने की आशंका 29 फीसदी बढ़ जाती है। 56 फीसदी मामलों में वे गर्भपात कराने के लिए मजबूर होती हैं।’
ग्रामीण महिलाओं में गर्भपात कम
गांवों में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं में शहरी महिलाओं के मुकाबले गर्भपात के मामले 31 फीसदी तक कम होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि ये महिलाएं ज्यादा सुरक्षित हैं। बल्कि, इनके पास सुरक्षित तरीके से अबॉर्शन कराने की सुविधा और अबॉर्शन का फैसला लेने की क्षमता ही नहीं होती। इसलिए गांवों में समय से पहले डिलीवरी, प्रसव के दौरान बच्चे की मौत और कम वजन वाले बच्चों के जन्म लेने के केस ज्यादा आते हैं। आईआईटी पटना की रिसर्च से पता चलता है कि मां जितनी ज्यादा पढ़ी-लिखी होगी, प्रेग्नेंसी से जुड़े खतरों की आशंका उतनी ही घटेगी। सिर्फ सेकेंडरी लेवल तक पढ़ाई से ही स्टिलबर्थ का खतरा 40 फीसदी तक कम हो जाता है। जबकि प्रीमैच्योर बर्थ की आशंका में 46 फीसदी और शिशु का वजन कम होने के चांस में 25 फीसदी तक कमी आती है। पढ़ी-लिखी होने के साथ ही अगर महिला नौकरी भी कर रही हो तो उसके गर्भपात के चांस 56 फीसदी तक और शिशु का वजन कम होने की आशंका 81 फीसदी तक घट जाती है। अनचाही प्रेग्नेंसी, गर्भपात जैसी समस्याओं का खतरा 43 फीसदी तक कम हो जाता है।
(‘दैनिक भास्कर’ में प्रकाशित खबर के आधार पर)
गर्भावस्था में मारपीट की सजा
गर्भावस्था के दौरान मारपीट पर डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट, दहेज एक्ट और आईपीसी के तहत कार्रवाई की जाती है। यदि पत्नी की किसी भी वजह से शादी के 7 सालों के अंतर्गत मृत्यु हो जाती है तो उसका सीधा दोषी पति को समझा जाता है। जब तक की वह यह साबित न कर दें कि उसकी पत्नी की मृत्यु किसी अन्य कारण से हुई है। इसी तरह पत्नी के प्रग्नेंट होने का पति को मालूम हो उसके बावजूद भी वह उसे प्रताड़ित करे तो उसे दो सेक्शन 319, 320 के अनुसार दंड का प्रावधान है। ‘कल्पेबल होमीसाइड’ के तहत अगर प्रेग्नेंट महिला के साथ किसी हरकत से गर्भ में पल रहे बच्चे की जान चली जाती है तो उसे मानव वध माना जाता है। ऐसे मामलों में आईपीसी की धारा 313 से लेकर 316 तक के प्रावधानों के तहत कार्रवाई होती है। इसमें कम से कम 10 साल की सजा होती है। ‘ग्रीवियस हर्ट’ के तहत अगर मारपीट से गंभीर चोट पहुंचती है, जिसमें बच्चे या मां की जान को खतरा पैदा होता है, परमानेंट डिसेबिलिटी हो जाती है, गर्भाशय को नुकसान पहुंचता है और प्रेगनेंसी टर्मिनेट होती है तो पति को उम्रकैद भी हो सकती है। मारपीट के दौरान प्रेग्नेंट महिला की मौत होने पर सीधा मर्डर का चार्ज लगता है, जिसमें धारा-302 के तहत कार्रवाई होती है। इसमें दहेज हत्या का केस भी लग सकता है। अगर बच्चे की भी मौत हुई है तो धारा 313 या 316 के तहत भी कार्रवाई होगी।
महिंद्र प्रताप सिंह, ग्रेटर नोएडा जिला अदालत में एडवोकेट