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रतनलाल को शहीद का दर्जा दिलाने की मांग पर अड़े ग्रामीण, शव लेने से किया इंकार

रतनलाल को शहीद का दर्जा दिलाने की मांग पर अड़े ग्रामीण, शव लेने से किया इंकार

दिल्ली के दंगे में मारे गए दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतनलाल को शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग देशभर से उठ रही है। दो दिन पूर्व दिल्ली के गोकुलपुरी में दंगे में स्वर्ग सिधारे रतनलाल का अंतिम संस्कार करने के लिए उनकी पार्थिव राजस्थान के सीकर फतेहपुर स्थित गांव तिहावली में ले जाया जा रहा है। जहां उन्हें शहीद का दर्जा दिलाने की मांग को लेकर ग्रामीणों ने नेशनल हाईवे 11 को पूरी तरह जाम कर दिया है। जबकि फतेहपुर के विधायक हाकम अली ने इस मामले पर लोगों को आश्वस्त किया कि वह मुख्यमंत्री से बात कर रतनलाल को शहीद का दर्जा दिलाने की मांग करेंगे। लेकिन लोग उनकी बात को मानने को तैयार नहीं है। रतन लाल के गांव के लोगों ने शव लेने से इंकार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि जब तक उन्हें शहीद का दर्जा नहीं दिया जाता तब तक वे सड़क पर ही धरने पर बैठे रहेंगे। रतनलाल के पार्थिव देह को फिलहाल मंडावा थाने में रखा गया है।

फिलहाल दिल्ली दंगे में स्वर्ग सिधार गए दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतनलाल को शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग जोरों पर है। सोशल मीडिया पर बकायदा एक मुहिम शुरू की गई है जिसमें रतनलाल को शहीद का दर्जा दिए जाने के लिए कहा जा रहा है। हालांकि, वर्ष 2008 में बाटला हाउस कांड में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में मारे गए दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को भी शहीद का दर्जा नहीं दिया गया था। ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि दिल्ली पुलिस में पूर्व में आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान स्वर्ग सिधारे इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा को जब शहीद का दर्जा नहीं दिया जा सका है तो हेड कांस्टेबल रतनलाल को कैसे दिया जाएगा?

दिल्ली के एक आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद ने केंद्र सरकार से कुछ दिनों पहले आरटीआई के जरिए जवाब मांगा था कि सरकार शहीद किसे मानती हैं। जिस पर चौंकाने वाला जवाब यह आया था कि गृह मंत्रालय ने शहीद को कहीं भी परिभाषित नहीं किया है। इसी के साथ गोपाल प्रसाद ने गृह मंत्रालय से यह भी पूछा कि एक जैसा काम कर रहे सेना और अर्धसैनिक बलों की मौत के हालात में क्या सिर्फ सेना के जवानों को ही शहीद कहलाए जाने का हक है। उन्होंने कहा कि अर्धसैनिक बलों के ऐसे जवानों को सिर्फ मृतक करार दिया जाता है। देश में सैनिक और अर्धसैनिक बलों को सीमा पर दुश्मन आतंकी कार्रवाई दंगों, नक्सलवाद, उग्रवाद जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। इसके मद्देनजर होने वाली मौत शहीद कहलाई जाती है।

यह भी बताना जरूरी है कि बीते लंबे समय से पैरामिलिट्री फोर्स के जवानों को पेंशन नहीं दी जाती है और न ही उन्हें आतंकवादी कार्रवाई के दौरान जान गवाने पर शहीद का दर्जा दिया जाता है। वर्ष 2013 में राज्यसभा के तत्कालीन सांसद किरणमय नंदा ने इसी सिलसिले में सरकार से पूछा था कि अर्धसैनिक बल के जवान जिनकी मौत अपना फर्ज निभाने के दौरान होती है उन्हें सरकार शहीद का दर्जा क्यों नहीं देती? क्या वह सेना, वायु सेना, नौसेना से नहीं होते हैं इसलिए या और कोई वजह है।

हालांकि, तब जवाब में कहा गया था कि सरकार किसी जवान के साथ भेदभाव नहीं करती। साथ ही यह भी माना गया कि रक्षा मंत्रालय के पास कहीं भी शहीद शब्द की परिभाषा नहीं है। याद रहे कि दो साल पूर्व सीआरपीएफ के जवान अजीत सिंह ने एक वीडियो वायरल किया था। जिसमें उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अर्धसैनिक बलों को मिलने वाली सुविधाओं को लेकर सवाल किया था। वीडियो में जवान में सेना और अर्धसैनिक बलों को मिलने वाली सुविधाओं में बहुत गहरे अंतर की भी बात कही थी।

यही नहीं बल्कि 14 मार्च 2017 को लोकसभा मे एक सवाल के जवाब में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने यह साफ किया था कि किसी कार्रवाई या अभियान में मारे गए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और असम राइफल्स के कर्मियों के संदर्भ में शहीद शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है। लड़ाई के दौरान जान गवाने पर शहीद का दर्जा सिर्फ सेना के जवानों को ही मिलता है। उन्हें ही शहीद के दर्जे का असली हकदार माना जाता है। याद रहे कि शहीद के दर्जे का हक पाने के लिए आज भी पैरामिलिट्री फोर्स के जवान कोर्ट में अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। पैरामिलिट्री फोर्स के जवानों का यहां तक कहना है कि शहादत पुलवामा में दी जाए या फिर सुकमा में उसका दर्जा बराबर होना चाहिए।

वहीं दूसरी ओर आम जनता के बीच से भी अब दंगों के दौरान मारे जाने वाले पुलिस कर्मियों के लिए शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग बराबर उठने लगी है। जब भी कोई फुलिसकर्मी किसी दंगे या आतंकी हमले में मारे जाते है तो उन्हें शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग उठती रही है। यह मांग 2008 में तब भी उठी थी जब बाटला कांड में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा मुठभेड़ के दौरान मारे गए थे। फिलहाल यह मांग फिर से जोर-शोर से उठाई जा रही है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब भी दिल्ली में कोई पुलिसकर्मी दंगों में या किसी आतंकी हमलों में मारा जाता है तो दिल्ली सरकार उसे उसके परिवार को एक करोड़ रुपये देती है। केजरीवाल सरकार एक करोड रूपये देने के साथ ही और भी कई सुविधाएं मृतक के परिजनों को देती है। लेकिन अगर शहीद का दर्जा मिलता है तो केंद्र सरकार शहीद के परिजनों को पेट्रोल पंप के साथ ही जमीन आदि देती है। देखा जाए तो आतंकी गतिविधियां दंगे, फसाद में मारे जाने वाले पुलिसकर्मी को मौखिक रूप से शहीद कहकर ही श्रद्धांजलि दी जाती है। उत्तराखंड के मासी निवासी दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर रहे मोहन चंद शर्मा की मौत के बाद आज भी उनका नाम शहीद के तौर पर सम्मान के साथ लिया जाता है।

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