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अपने साथ हुए शोषण के लिए पीड़िता ही दोषी !

दुनिया भर में कोरोना संक्रमण का संकट अभी भी टला नहीं हैं लेकिन इसको लेकर विचार-विमर्श के अनेक आधार जरूर तय हो गए हैं। इनमें सबसे अधिक जरुरी मुद्दा है महिलाओं के साथ व्यवहार और उनको लेकर समाज में संकुचित होती समझ। बड़ा ही अजीब है लेकिन दिलचस्प भी है कि इस कोरोना के कठिन संकट के दौरान भी अगर कुछ नहीं बदला है तो वो है महिलाओं की समाज में स्थिति। 

दुनियाभर में महिलाएं  यौन उत्पीड़न का खुलकर विरोध कर रही हैं। दरअसल, महिलाओं से जुड़ी इन सभी समस्याओं की एक ही जड़ दिखाई देती और वो है उनके वस्त्रों को लेकर समाज में फैली अनगिनत मानसिकता। उसके आगे महिलाओं की सुरक्षा, प्रतिभा और इच्छाएं सब बौनी नजर आती हैं। बात केवल कार्यस्थल या किसी सार्वजानिक स्थल तक सीमित नहीं रही है। संसद, घर, बाजार हर जगह यहां तक कि स्कूल भी लड़कियों के कपड़ों से उनके चरित्र का आकलन करता नजर आता है।

ताजा उदहारण है हाल ही में केरल के कोझीकोड जिला सत्र न्यायालय  का एक विवादास्पद फैसला । एक मामले में कोझिकोड जिला सत्र न्यायालय कहा, “अगर कोई महिला कामुक कपड़े पहनती है, तो उसके खिलाफ प्रथम दृष्टया यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है।”  ऐसा फैसला सुनाने वाले जज एस कृष्ण कुमार के द्वारा कहे गए शब्द जरूर उनके हैं, लेकिन इसमें शायद आवाज समाज के एक बड़े हिस्से की शामिल है। कोर्ट की इस राय से विवाद खड़ा हो गया है और केरल राज्य महिला आयोग ने इसकी कड़ी आलोचना की है।

भारत का संविधान पुरुष महिला में भेदभाव करता ही नहीं है तो पहली बात कपड़ों की बात कहां से आ गई। कानून में ये जरूर कहा जाता है कि प्रोवोकेशन जो है बाकी तरीको से होता है कई मामलों में। मैं ये नहीं कहूँगी कि आज के दौर में लड़कियां गलत फायदा नहीं उठाती हैं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि आप उसको जनरलाइज कर दें और ये कपड़ों पर बात आ रही है तो इससे पता चलता है कि प्रथम दृष्टि ही जज साहेब की गलत है हम कानून को नहीं कह सकते क्योंकि कानून भेदभाव नहीं करता है। छह महीने की बच्ची के साथ जब हॉस्पिटल में रेप होता है तो क्या पहनता है छह महीने का बच्चा इसका एक्सप्लनेशन दें जज साहेब मैं तो आज बोलती हूँ जितने लोग हैं जो इस बात का समर्थन करते हैं कि लड़कियों को ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए ईश्वर न करे कल को उनकी बेटी के साथ ऐसी दुर्घटना हो जाती है तो क्या वो सिर्फ अपनी बेटी से सवाल पूछेंगे ? क्या वो रेपिस्ट के खिलाफ , जिसने छेड़ने की हिमाकत की है कुछ नहीं करेंगे ? महिलाओं के कपड़ो पर बोलने वाले जरा सोचे अगर आपके घर की बेटी का साथ ऐसा हो तो बिलकिस बानो वाले रेपिस्ट अब खुलेआम घूम रहे हैं तो क्या अपनी किसी भी उम्र की बच्ची से बोलेंगे कैसे कपड़े पहनने हैं ? 

–सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता मासीवाल

 


पिछले हफ्ते अदालत ने यौन उत्पीड़न मामले में 74 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक सिविक चंद्रन को जमानत देते हुए यह राय व्यक्त की थी।  कोझीकोड सत्र अदालत ने 12 अगस्त को अपने आदेश में उल्लेख किया था कि आरोपी चंद्रन ने अपनी जमानत याचिका के साथ शिकायतकर्ता महिला की तस्वीर अदालत में पेश की थी। साफ है कि महिला ने खुद सेक्सी कपड़े पहने हैं। साथ ही अदालत ने कहा कि यह विश्वास करना असंभव है कि एक 74 वर्षीय विकलांग व्यक्ति ने शिकायतकर्ता को अपने पास बैठने के लिए मजबूर किया और उसका यौन उत्पीड़न किया। भारतीय दंड संहिता (यौन उत्पीड़न के लिए दंड की धारा) की धारा 354A के तहत शारीरिक संपर्क, मांग या संभोग और अश्लील टिप्पणियों की याचना दंडनीय है।

अदालत ने कहा कि चूंकि आरोपी द्वारा दायर जमानत याचिका के साथ शिकायतकर्ता महिला की तस्वीर कामुक कपड़े पहने वही महिला है, इसलिए इस मामले में धारा 354 ए के तहत आरोपी के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते हुए स्पष्ट किया कि इस मामले में आरोपी को जमानत दी जा सकती है। चंद्रन पर यौन शोषण के दो मामलों में आरोप हैं।


कोर्ट ने दूसरे मामले में जमानत देते हुए यह राय व्यक्त की। अनुसूचित जनजाति की एक लेखिका ने अप्रैल में एक पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान कथित यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया था। एक अन्य मामले में एक युवा लेखक ने फरवरी 2020 में एक सम्मेलन में कथित यौन उत्पीड़न के आरोप में आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज कराया था। पुलिस ने चंद्रन के खिलाफ मामला दर्ज किया था। लेकिन चूंकि पहला मामला दर्ज होने के बाद आरोपी फरार हो गया, इसलिए उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सका। चंद्रन को पहले मामले में 2 अगस्त को अग्रिम जमानत दी गई थी।

केरल महिला आयोग की अदालत की राय पर चिंता जताते हुए केरल महिला आयोग की अध्यक्ष पी. सतीदेवी ने कहा कि अदालत की यह राय दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। अदालत ने गवाहों की गवाही और मुकदमे से पहले टिप्पणी करके शिकायतकर्ता महिला के आरोपों को खारिज कर दिया। इससे रेप जैसे गंभीर अपराध के बारे में बहुत गलत संदेश जाता है।  

“लोकतंत्र के जो चार पिल्लर्स हैं उनमें से मेरा विश्वास जुडिशरी पर सबसे ज्यादा रहा है। जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं सरकार नहीं सुनती, मीडिया आवाज नहीं उठाती, तमाम ऐसे जब मुद्दे होते जब आप क्या करते हैं ? न्यायलय की शरण लेते हैं और लॉ ऑफ़ इंडिया में तो जो कंस्टीटूशन है बिफोर लॉ पुरुष महिला का में कोई भेदभाव नहीं है। कोई डिस्क्रिनाशन को लॉ नहीं करता तो आज के समय में जब सरकार तक बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ जैसी योजना चला रही है। हम फेमिनिज्म की बात कर रहे हैं। तो एकदम से जब ये मामला सामने आया साथ साथ बिलकिस बानो केस पर जजमेंट आया जिसमें आरोपियों को फ्री छोड़ दिया है फ्री हैंड दे दिया है इससे समाज में यही मैसेज जाता है कि अभी भी हमें आवाज उठाने की जरूरत है और मैं काफी हैरान भी हुई कि जज जो होते हैं काफी पढ़ें लिखें होते हैं, दुनिया देखी होती है यही बात अगर कोई गांव का ऐसा व्यक्ति कह रहा होता जो किसी और सदीं में जी रहा होता तो इतना हर्ट नहीं हो रहा होता लेकिन एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के द्वारा ऐसा कथन। मैं बहुत हैरान हूँ कि बहुत मेहनत से पढ़ने लिखने के बाद, आपने दुनिया देखी होगी फिर आप जज बनते हैं। आपने कानून में देखते होंगे कि न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बंधी होती है वो सच का साथ देती है वो भेदभाव नहीं करती है तो आप कैसे किसी के कपड़े से उसके चरित्र का अनुमान लगा सकते हैं। बहस को दूसरी तरफ ले जाना और इस तरह की प्रतिक्रिया देना कि जो विक्टिम है वहीं कल्प्रिट है ये कहीं से भी ठीक नहीं है। पुरुष खड़े हैं इसे पितृसतात्मक दिशा में ले जाने के लिए लेकिन आप और हम जैसी और महिलाएं जो आवाज उठा रही हैं और जो लोकतंत्र का चौथा पिलर मीडिया है वहां महिलाओं को मुखर होकर विरोध करना चाहिए। “

–सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता मासीवाल

 
 

महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़ो का इतिहास भी गवाही देता है कि समाज सदियों से महिलाओं के कपडे तय करता आया है। 1840 के आसपास की अवधि आधुनिक फैशन की मानी जाती है। तब से फैशन डिजाइनर महिलाओं के लिए उनकी सुविधा के बजाय उनके शरीर के अंगों को सुशोभित करने के लिए वस्त्र बना रहे हैं। समय बीतने के साथ, फैशन की इस परंपरा को इतना अपनाया गया कि आज इसके खिलाफ आवाज उठने लगी है। 

इन सबके बीच अगर देखा जाए तो दुनिया महिलाओं के कपड़ों को लेकर दो हिस्सों में बंट चुकी हैं। एक तरफ ऐसे परिधान की सिफारिश की जा रही है जिसमें केवल आंखे दिखाई दे और एक ओर ऐसे परिधान की जहां स्त्री काया के प्रत्येक कोण को नापा जा सके। इसका उदहारण भी हम सबके सामने है , फ्रांस में मुस्लिम औरतें शरीर को ढकने वाली तौराकी पोशाक पहनने के अधिकार से वंचित हैं तो वहीं ईरान में महिलाओं ने जबरदस्ती हिजाब पहनने के सरकारी नियमों के खिलाफ संघर्ष किया। 

जब पुरुष अर्धनग्न होकर नहाते हैं तो स्त्रियों में मन में यह भाव क्यों नहीं आता है कि वो नग्न है। सारा खेल दृष्टि का है। औरतों के लिए एक परंपरा बन गई है कि वो अपने शरीर को ढक कर रखें। केवल आकर्षण का केंद्र बना देना, उपभोग का केंद्र बना देना ये पितृसत्ता का दोष रहा है। इसके तहत ये मानसिकता बन गई है। दरअसल दोष कपड़े में नहीं दोष मानसिकता में है दोष दृष्टि में है औरतें नहीं उत्तेजित होती हैं पुरुष को कम कपड़ो में देख कर तो फिर पुरुष क्यों उत्तेजित हो जाता है स्त्रियों को छोटे कपड़ों में देखकर क्योंकि औरतों को न वो संस्कार दिया गया उनकी जो सरंचना है मानसिक गढ़न ऐसा नहीं है कि वो पुरुषों को देखकर उत्तेजित हो जाए स्त्रियों को उपभोग की वस्तु समझने की जो मानसिकता है उसको बदलने की जरूरत है कपड़े में कोई दोष नहीं है छोटी छह महीने की जो बच्ची है उसने कौनसा शरीर दिखाया उसने कैसे सेक्स अपील कर दी जो उसके साथ भी रेप हो जाता है। 
 
केरल के सेशन कोर्ट के जज के फैसले का समाज पर बहुत बुरा असर पड़ेगा क्योंकि वो बहुत ही महत्वपूर्ण पद है जहां से हम न्याय की उम्मीद करते हैं हम उम्मीद करते हैं कि हमारे साथ अगर कुछ गलत होता है तो हमारा पक्ष सुना जायेगा हमारी बात सुनी जाएगी और हमें न्याय मिलेगा। ऐसे व्यक्ति अगर न्यायधीश के पद पर होंगे तो हम कैसे न्याय की उम्मीद करेंगे। अजीब है कि आप चाहते हैं कि महिलाएं खुद को ढककर भी रखें और कदम से कदम मिलाकर भी चलें ये कैसे संभव है। औरतें कब तक चूल्हे चौंकें में अपनी प्रतिभा को झोंकती रहेंगी। कहा भी गया है कि भारतीय रसोई जो है कब्रगाह हैं। बड़े आराम से कह दिया जाता है कि तुम तो माँ हो आदर्श हो अन्नपूर्णा हो। कपड़ों के सामने औरतों की प्रतिभाएं बौनी नजर आती हैं। हम फिर से आदम युग की तरफ ढकलने के प्रयास है। केरल सेशन कोर्ट का ये बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है। ये उपभोक्तावादी संस्कृति है। 
__सोनी पांडेय, लेखिका
 

 

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