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पुलिस हिरासत में मौत के मामले में पहले पायदान पर यूपी

भारतीय संसद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पेश की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में हर दिन 6 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हो रही है। इस मामले में पिछले 2 साल से उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। देश में पुलिस सुधार को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है और हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा इस ओर अक्सर ध्यान खींचता है।गृह मंत्रालय की ओर से 26 जुलाई को लोकसभा में पेश किए गए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट परेशान करने वाले हैं।इस आकड़े के मुताबिक, देश 2 वर्षो में हिरासत में होने वाली कुल मौतों की संख्या 4484 जिनमें सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश और फिर पश्चिम बंगाल में हुई हैं।

इतना ही नहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने यह भी बतया है कि अकेले उत्तर प्रदेश में वर्ष 2021-20 22 में हिरासत में कुल 501 मौतें हुईं जबकि इससे पहले यानी वर्ष 2020-21 में हिरासत में मौत के 451 मामले दर्ज किए गए है। उत्तर प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल और फिर मध्य प्रदेश का नंबर आता है। वहीं देश भर में वर्ष 2021-22 में हिरासत में हुई मौतों का आंकड़ा 2544 है जबकि वर्ष 2020-21 में यह संख्या 1940 थी। 1 अप्रैल 2020 से लेकर 31 मार्च 2022 तक के आंकड़ों की जानकारी देते हुए गृह राज्य मंत्री ने बताया है कि पुलिस और ‘पब्लिक ऑर्डर’ राज्य के विषय हैं और लोगों के मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार ही प्राथमिक रूप से जिम्मेदार है, लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार समय-समय पर एडवाइजरी जारी करती है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक,भारत में वर्ष 2021-22 में न्यायिक हिरासत में लगभग 2,152 लोगों की मौत हुई जबकि 155 लोगों की मौत पुलिस हिरासत के दौरान हुई है। इसका मतलब यह है कि पुलिस हिरासत में हर रोज 6 लोगों की मौत हो रही है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांसद अब्दुस्समद समदानी के एक सवाल के जवाब में संसद में इन आंकड़ों को पेश किया है।

पुलिस हिरासत में मौत के ये आंकड़े उस वक्त आए हैं जब एक दिन पहले ही उच्चतम न्यायालय ने जेल में बंद अंडरट्रायल कैदियों के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। 25 जुलाई को दस वर्ष से भी ज्यादा से हिरासत में बंद 853 कैदियों के मामलों की सुनवाई के दौरान उचतम न्यायालय ने प्रदेश सरकार से कहा कि यदि वह इनकी रिहाई का फैसला नहीं लेती तो न्यायालय एक साथ सबकी जमानत के आदेश जारी कर देगी। इतना ही न्यायालय ने इस मामले में इन कैदियों का पूरा ब्यौरा और दो हफ्ते के अंदर मांगा है।

पुलिस हिरासत में मौत के मामले में प्रदेश सरकार और राज्य की पुलिस अक्सर सवालों के घेरे में रहती है। पिछले साल नवंबर में कासगंज में अल्ताफ नाम के एक व्यक्ति की हिरासत में मौत हुई थी। पुलिस ने पहले तो इस मौत को आत्महत्या बताने की कोशिश की लेकिन अल्ताफ के परिजनों ने कासगंज पुलिस पर हत्या का आरोप लगाया आरोप सही पाए जाने पर पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया गया था। मामले की जांच अभी भी चल रही है। कुछ ऐसा ही मामला में बुलंदशहर में भी हुआ था। ऐसे मामलों में पुलिस पहले आत्महत्या की थ्योरी गढ़ती है लेकिन अक्सर उसकी यह थ्योरी न्यायालय तक पहुंचते-पहुंचते तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर फेल हो जाती है।

अभी एक हफ्ते पहले ही उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पुलिस हिरासत में एक युवक की मौत हो गई थी जिसके बाद काफी हंगामा हुआ युवक के परिजनों का आरोप था कि युवक के साथ मामूली विवाद होने पर पुलिसकर्मियों ने चौकी पर ले जाकर उसे इतना मारा-पीटा कि उसकी मौत हो गई। इस मामले में अमरोहा रेलवे स्टेशन स्थित आरपीएफ पुलिस चौकी के 7 पुलिसर्मियों को निलंबित कर दिया गया और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।

इस मामले पर रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉक्टर वीएन राय का कहना है कि न्याय व्यवस्था का आम लोगों से दूर होना और उसमें खामियों की वजह से भी हिरासत में मौत के मामलों में बढ़ोत्तरी हो रही है। उनके मुताबिक,न्याय प्रणाली आम नागरिकों के लिए सुलभ नहीं है। संविधान में चाहे जितनी व्यवस्था हो और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हों लेकिन आम आदमी अब भी उसकी पहुंच से दूर है। हिरासत में मौत के मामलों में ज्यादातर गरीब,पिछड़े और शोषित वर्ग के लोग ही शिकार होते हैं। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि अमीर लोगों से पुलिस आमतौर पर इस स्तर पर पूछताछ नहीं करती है क्योंकि उसे कानून का डर रहता है। ऊंची पहुंच वालों व्यक्ति को पुलिस वाले ना तो मार-पीट पाते हैं और ना ही उन्हें लंबे समय तक पुलिस हिरासत में रख सकते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह गैर-कानूनी है और अदालत के पचड़े में आ जाएंगे गरीब और कम पढ़ा-लिखा आदमी यह नहीं जानता गिरफ्तारी के संबंध में संविधान में पर्याप्त सुरक्षा उपाय दिए गए हैं लेकिन पुलिस व्यवस्था की घिसी-पिटी परंपरा आज भी देश की जनता के अनुकूल नहीं बन पाई। व्यापक तौर पर पुलिस सुधार की जरूरत है अन्यथा देश एक पुलिस राज्य में तब्दील हो जाएगा क्योंकि राज्य सरकारों का अक्सर पुलिस को समर्थन रहता है और सरकार पुलिस को बचाती भी है।

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