देश में काॅलेजियम के जरिए जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों एक-दूसरे पर खुलकर बयानबाजी कर रहे हैं। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिटन फली नरीमन ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए काॅलेजियम प्रणाली के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए कानून मंत्री किरेन रिजिजू को आड़े हाथ लिया। जजशिप के लिए काॅलेजियम द्वारा अनुशंसित उम्मीदवारों के लिए केंद्र के बैठने पर, न्यायमूर्ति नरीमन ने इसे लोकतंत्र के लिए घातक करार दिया है
भारतीय लोकतंत्र के दो स्तंभ न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच जजों की नियुक्ति के मुद्दे पर टकराव बढ़ता ही जा रहा है। पिछले दिनों जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केंद्र सरकार का सिस्टम सही से काम नहीं कर रहा है। काॅलेजियम ने जजों की सिफारिश कर दी है, इसके बावजूद केंद्र सरकार ने अभी तक जजों की नियुक्ति नहीं की है।
इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश रोहिटन फली नरीमन ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए काॅलेजियम प्रणाली के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए कानून मंत्री किरेन रिजिजू को आड़े हाथ लिया। जजशिप के लिए काॅलेजियम द्वारा अनुशंसित उम्मीदवारों के लिए केंद्र के बैठने पर, न्यायमूर्ति नरीमन ने इसे लोकतंत्र के लिए घातक करार दिया। काॅलेजियम द्वारा भेजे गए नामों को केंद्र के लटकाने पर उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। क्योंकि आप जो कर रहे हैं वह यह है कि आप विशेष काॅलेजियम की प्रतीक्षा कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि अगला काॅलेजियम अपना मन बदल ले।
दरअसल, अगस्त 2021 में सेवानिवृत्त होने तक नरीमन सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम का हिस्सा थे। उन्होंने काॅलेजियम द्वारा की गई सिफारिशों का जवाब देने के लिए सरकार को 30 दिनों की समय सीमा का भी सुझाव दिया। पांच न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ के गठन का भी आह्नान किया और एक निर्णय पारित किया जाना चाहिए कि जब काॅलेजियम सरकार को नाम भेजता है, तो सरकार को जवाब देने के लिए 30 दिनों की समय-सीमा दी जाए। अगर सुझाव नहीं आएं तो उन्हें अपने आप मंजूर माना जाए।
बीते दिनों नरीमन ने मुंबई विश्वविद्यालय में सातवें मुख्य न्यायाधीश एमसी छागला स्मृति में व्याख्यान देते हुए कहा कि यदि इंडिपेंडेंट ज्यूडिशियरी का अंतिम गढ़ गिर गया तो देश अंधकार के रसातल में चला जाएगा, अगर नमक का स्वाद खत्म हो गया है तो वह नमकीन कहां से होगा? कानून मंत्री ने काॅलेजियम प्रणाली को संविधान से अलग करार दिया था और यह भी कहा था कि यह अपारदर्शी और जवाबदेह नहीं है। नरीमन ने कहा, हमने इस प्रक्रिया (न्यायाधीशों की नियुक्ति) के खिलाफ केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा एक निंदा सुनी है। मैं कानून मंत्री को आश्वस्त करता हूं कि बहुत बुनियादी संवैधानिक मूलभूत बातें हैं जिन्हें उन्हें जानना चाहिए।
गौरतलब है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका पिछले काफी समय से जजों की नियुक्ति पर आमने-सामने हैं। इसकी शुरुआत हुई 7 दिसंबर 2022, जब राज्यसभा के सभापति उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ पहले दिन संसद पहुंचते हैं। परंपरा के मुताबिक उनका स्वागत करते हैं देश के प्रधानमंत्री, राज्यसभा के उपसभापति, विपक्ष के नेता और सदन के नेता। इन सभी औपचारिकताओं के बाद धनखड़ अपना पहला भाषण शुरू करते हैं। ये घटना अगले दिन के अखबारों के पन्नों पर छपने योग्य तो थी ही लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा हुई उस दिन के भाषण की। हर तरफ चर्चा थी भाषण के उस हिस्से की जिसे न्यायपालिका पर एक हमले की तरह माना गया।
उपराष्ट्रपति के शब्दों में लोगों के जनादेश के बाद देश की संप्रभुता के लिए संसद द्वारा एक कानून बनाया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया। ये कानून हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ था। जिस घटना का जिक्र धनखड़ ने किया, वो 2015 की घटना है। लेकिन बीते कुछ दिनों से लगातार इस बात के जिक्र से सरकार और न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है।
हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित नेशनल ज्यूडिशियल अपाॅइंटमेंट्स
कमीशन के न बनने का दुख 4 नवंबर को इंडिया टुडे काॅन्क्लेव में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू के 25 नवंबर के एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम में बोलते हुए हुए भी झलका उन्होंने कहा, नेशनल ज्यूडिशियल अपाॅइंटमेंट्स कमीशन के अभाव में जजों की नियुक्तियां काॅलेजियम सिस्टम के तहत हो रही हैं। अगर आप सरकार से ये अपेक्षा करते हैं कि वो किसी जज के नाम को सिर्फ इसलिए स्वीकर कर ले क्योंकि काॅलेजियम द्वारा उसकी अनुशंसा की गई है, तो फिर सरकार की भूमिका कहां बचेगी? ये नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार (काॅलेजियम द्वारा भेजे गए नामों की) फाइल पर बैठी रहती है। आप फाइलें सरकार को भेज ही क्यों रहे हैं, आप खुद ही नियुक्ति कर लीजिए। सिस्टम इस तरह काम नहीं कर सकता है।
कानून मंत्री के इस बयान के बाद विवाद इतना बढ़ गया कि किसी व्यक्ति के बयान पर टिप्पणी न करने वाले जज तक ने आपत्ति जाहिर कर दी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट में 28 नवंबर 2022 को एडवोकेट एसोसिएशन बेंगलुरु की तरफ से लगाई गई एक कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई चल रही थी। इस याचिका में अवमानना की कार्रवाई की मांग की गई थी। अवमानना थी सुप्रीम कोर्ट के हुक्म की और आरोप था भारत सरकार पर। इस याचिका में कहा गया कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम द्वारा भेजे गए 11 नामों को स्वीकार न करके सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश की अवहेलना की है, जिसमें कहा गया था कि सरकार को काॅलेजियम द्वारा भेजे गए नामों पर 3 से 4 हफ्तों के भीतर कार्यवाही पूरी करनी होगी तभी से विवाद जारी है।
जजों की नियुक्ति का इतिहास
भारत के संविधान का एक बेहद महत्वपूर्ण अनुच्छेद 124 है। इसकी अनुच्छेद के तहत देश की सर्वोच्च अदालत का गठन किया गया और इसी के एक प्रावधान के अनुसार जजों की नियुक्ति की जाती है। अनुच्छेद 124(2) के मुताबिक राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के साथ सलाह-मशविरा करने के बाद सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति होगी। जितनी आसान पढ़ने में ये प्रक्रिया लग रही है उतनी आसान ये है नहीं। इस प्रावधान में एक शब्द है ‘कंसलटेशन’ ये कोई मामूली शब्द नहीं है। क्योंकि यही वो शब्द है जिसको लेकर सरकार और न्यायपालिका आमने सामने हैं। इस शब्द से ही काॅलेजियम का भी जन्म हुआ है।
हिंदी में इस शब्द का अर्थ है परामर्श, विचार-विमर्श, मशविरा, मंत्रणा, मशवरा, आदि। लेकिन इस शब्द का सही अर्थ क्या है? हमारे संविधान के अनुरूप है या संविधान निर्माताओं ने किस मकसद से इस शब्द को इस अनुच्छेद में सम्मिलित किया इसे लेकर अब तक असमंजस और विवाद की स्थिति है।
कब-कब आमने-सामने आए कार्यपालिका-न्यायपालिका
‘यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर टकराव हो रहा है। इससे पहले भी न्यायिक नियुक्ति आयोग और जस्टिस केएम जोसेफ की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका आमने-सामने आ चुके हैं।
‘पिछले साल बेंगलुरु एडवोकेट एसोसिएशन ने एक याचिका दाखिल करते हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम की सिफारिशों के बावजूद 11 नामों को केंद्र सरकार ने जानबूझकर मंजूरी नहीं दी है। इस याचिका में केंद्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की ‘जानबूझकर अवज्ञा’ करने का आरोप लगाया गया था।
‘इसी तरह साल 2018 में काॅलेजियम ने इंदू मल्होत्रा और केएम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने की सिफारिश की थी। केंद्र सरकार ने इनके नाम पर भी दोबारा विचार करने को कहा था। कुछ दिन बाद केंद्र सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को तो मंजूरी दे दी, लेकिन जस्टिस जोसेफ के नाम पर फिर सोचने को कहा था। हालांकि बाद में सरकार ने जस्टिस केएम जोसेफ के नाम को भी मंजूर कर दिया था।
‘साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट के काॅलेजियम ने 74 जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश की थी, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा समय बीतने के बाद भी केंद्र सरकार ने इन्हें मंजूरी नहीं दी थी।’
‘वर्ष 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया था कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उससे टकराव लेने से नहीं हिचकेगी।’
‘पिछले साल 25 नवंबर को केंद्र सरकार ने काॅलेजियम से हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ी 20 फाइलों पर दोबारा विचार करने को कहा है। इनमें 11 नए मामले हैं और 9 मामलों को दोहराया गया है। इन मामलों में एक नाम एडवोकेट सौरभ किरपाल का भी है, उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश की गई है।’
क्या है काॅलेजियम
देश में काॅलेजियम का गठन वर्ष 1993 में हुआ था। इसमें पांच जजों की एक कमेटी होती है। इसके अध्यक्ष चीफ जस्टिस आॅफ इंडिया होते हैं। काॅलेजियम जजों की नियुक्ति और प्रमोशन से जुड़े मामलों पर फैसला लेती है। इनके ही सिफारिस पर जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में होती है। इसके लिए काॅलेजियम केंद्र सरकार को नाम भेजती है, जिसे सरकार राष्ट्रपति के पास भेजती है। राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद ही जज की नियुक्ति होती है।
क्या है एनजेएसी
देश में काॅलेजियम सिस्टम को केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 में निरस्त कर दिया था। जिसका काम जजों की नियुक्ति करना था। इस कानून के तहत, इस आयोग के अध्यक्ष देश के चीफ जस्टिस होते थे। इसके अलावा इसमें सुप्रीम कोर्ट के दो सीनियर जज, कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का होना जरूरी था। इन दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन तीन सदस्यों की समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और लोकसभा में नेता विपक्ष शामिल थे। इसमें दिलचस्प बात यह थी कि किसी जज के नाम की सिफारिश तभी की जा सकती थी, जब आयोग के 5 सदस्य इस पर सहमत हों, अगर दो सदस्य किसी की नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो फिर उस नाम की सिफारिश नहीं हो सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साल 2015 में इस कानून को रद्द कर दिया था और न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक बताया था।