हमारा देश भारत अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है। भारतीय नृत्य हमारी संस्कृति की सबसे प्रतिष्ठित पहचानों में से एक है। इन्हीं में से एक नृत्य है ‘लावणी’ जो महाराष्ट्र का लोकप्रिय नृत्य है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लावणी नृत्य का प्रयोग हिंदी फिल्मों में भी किया जाता है। यह नृत्य विशेष पारंपरिक परिधान में किया जाता है लेकिन अब धीरे-धीरे यह नृत्य अय्याशी का अड्डा बनता जा रहा है। आलम यह है कि लावणी करने वाली इन महिलाओं और उनकी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं आम हो गई हैं। इसी के चलते ये महिलाएं अपनी बेटियों को इस दलदल से बचाना चाहती हैं। उन्हें बेहतर शिक्षा दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं
पौराणिक काल से ही भारतीय समाज में बेटियों का पैदा होना किसी अभिशाप से कम नहीं समझा जाता रहा है। इन कुपरंपराओं के चलते भारतीय समाज में ‘बेटी भ्रूण हत्या’ का जन्म हुआ जो आज तक भी कायम है। इन सबके बीच हमारे देश में एक ऐसा स्थान भी है जहां लड़की पैदा होने पर लोगों द्वारा जश्न मनाया जाता है, लेकिन इस जश्न के पीछे छिपे नरक का दुःख केवल जन्म लेने वाली बेटियों की माएं जानती हैं। ये आपबीती है उन माताओं की, जो पेशे से संगीत बाड़ी में काम करती हैं। ये अपने और अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए दिन-रात मेहनत करती हैं लेकिन इन्हें समाज में इज्जत की नजरों से नहीं देखा जाता। अपनी कला का प्रदर्शन कर ये अपनी आबरू को लोगों की नजरों से तार-तार होते देखती हैं। यही कारण है कि इस नर्क से अपनी बेटियों को बचाना चाहती हैं।
हम बात कर रहे हैं उन महिलाओं की जो महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर जामखेड में रहती हैं। धूल से भरा यह कस्बा दिन में अलसाया-सा दिखता है, लेकिन यहां की रातें बिल्कुल विपरीत चहल-पहल वाली होती हैं। आस-पड़ोस के कस्बों और शहरों से पुरुष रात में यहां महिलाओं की लावणी देखने के लिए जुटते हैं। इस कस्बे में 10 मनोरंजन थिएटर हैं जिनमें रंगारंग प्रदर्शन, पैसे की बरसात और प्राइवेट शो जैसे कार्यक्रम किये जाते हैं। पीढ़ियों से ये महिलाएं पुरुषों को खुश करने के लिए इन थिएटरों में लावणी करती आई हैं और ये संगीत बाड़ी में ही रहती हैं, खाना-पीना-सोना और लावणी करने में इनकी सारी जिंदगी गुजर जाती है। ये अपने घरों को थिएटरों में काम करके ही चलाती हैं। लेकिन भरण-पोषण के इस तरीके में वे अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं। यही कारण है कि ये अपनी बेटियों को इस पेशे में शामिल नहीं होने देना चाहती हैं। संगीत बाड़ी में जन्म लेने और एक नर्तकी की बेटी होने के कारण यहां आने वाले पुरुष इन्हें भी नर्तकियों के रूप में ही देखते हैं, और मांग करते हैं कि ये कम उम्र वाली लड़कियां इनका मनोरंजन करें। मनोरंजन की आड़ में अक्सर इनका यौन-शोषण किया जाता है। लावणी करने वाली इन महिलाओं और उनकी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं बेहद आम हैं। कई बार गरीबी उन्हें सेक्स वर्क में धकेल देती है। इनकी बेटियां भी सेक्स वर्क में ना फंस जाएं, इन्हें यही डर सताता रहता है। इनकी शादी नहीं होती, ये एकल मांए हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनकी बेटियां इसी पेशे को अपनाती रही हैं। लेकिन अब ये महिलाएं जागरूक हो रही हैं। वे अपनी बेटियों को इस दलदल से बचाना चाहती हैं। ये अपने बच्चों को बेहतर भविष्य देने के लिए जमीन-आसमान एक करने को तैयार हैं। ये उन्हें पढ़ाना चाहती हैं, नौकरी कराना चाहती हैं लेकिन एक नर्तकी नहीं बनने देना चाहतीं।
लावणी डांसर की बेटियों का दर्द
बीबीसी की एक रिपोर्ट इस पेशे की सच्चाई सामने लाती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारी मुलाकात यहां गीता बर्डे से हुई, 18 साल की गीता नर्स बनना चाहती हैं। वह अपनी नर्तकी मां को इस पेशे की बेड़ियों से आजाद कराना चाहती हैं और दोनों को इज्जत की जिंदगी देना चाहती हैं। लेकिन यह आसान नहीं है। बेटियों का मां के साथ रहना ही परेशानी का सबब है। काम की जगह ही रहने की जगह है यानी ग्राहक की आंख के सामने भी आ जाने से इन महिलाओं और उनकी बेटियों को लावणी के लिए या सेक्स वर्क के लिए बुला लिया जाता है और इनके घर चलाने की मजबूरी इन्हें पुरुषों का मनोरंजन करने के लिए विवश कर देती है। इस बातचीत के साथ गीता एक वाक्या बताती है कि ‘एक शाम जब प्राइवेट डांस का आयोजन था और उनकी मां को उसमें नाचना था, उस दिन बेहद तेज बारिश हो रही थी। गीता की मां कमरे में बैठ बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, तभी एक पुरुष थिएटर से कमरे की तरफ आया और मां के लेट होने पर उनके साथ बदतमीजी करने लगा। उस दिन मैंने प्रण लिया कि मैं इस नर्क से अपनी मां को बाहर निकालूंगी।’
क्या है संगीत बाड़ी
संगीत बाड़ी एक ऐसा थिएटर है जहां लावणी (यह महाराष्ट्र राज्य में लोकप्रिय संगीत की एक शैली है और पारंपरिक गीत और नृत्य का एक संयोजन है, जो विशेष रूप से ढोलक की धुनों पर किया जाता है) का आयोजन किया जाता है। इन थिएटरों में नृत्य करने वाली महिलाएं लगभग अपनी पूरी उम्र यहीं गुजार देती हैं। यह एक तरह से हॉस्टल है, जहां रहते भी हैं और साथ ही लावणी का प्रदर्शन कर अपने और अपने परिवार के लिए आय अर्जित करते हैं। प्रत्येक थिएटर में आठ-दस डांस करने वाले समूह होते हैं। हर समूह में एक गायक, एक संगीत बजाने वाला और चार-पांच नृत्य करने वाली महिलाएं होती हैं। यानी एक संगीत बाड़ी कम से कम 70-80 लोगों का ठिकाना होता है। हर रात महिलाएं सजती-संवरती हैं और संगीत बाड़ी का विशाल लोहे का दरवाजा खोल दिया जाता है। रात में ये अपने ग्राहकों का इंतजार करती हैं। देखा जाए तो यह एक वेश्यालय जैसा ही है। यही वजह है कि यहां बेटियों के सुरक्षित रहने की कीमत मां से दूर रहना है, लेकिन कम आय और जीवन गुजर करने के कम साधन होने के कारण वे ऐसा करने में असमर्थ रहती हैं।
बीबीसी के अनुसार गीता की मां (उमा) पति की मौत के बाद बिगड़ते हालातों के चलते लावणी करने लगी थीं। उन पर अपने दो बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी थी। समय बीता और उमा की उम्र बढ़ने लगी है इसलिए आए दिन ताने और अपशब्द सुनने पड़ते हैं कि ‘वह लोगों को अब संतुष्ट नहीं कर पाती उसे अब अपनी बेटी (गीता) को नचाना चाहिए।’ उमा कहती हैं, ‘जो हम पर हंसते हैं, मैं उनके दांत तोड़ देना चाहती हूं। लोग कहते हैं कि यह एक कमजोर महिला है, दो बच्चों की परवरिश करने वाली एकल मां। यह अपने बच्चों के भविष्य के लिए क्या कर सकती है? मैं उन्हें बता देना चाहती हूं कि मैं अपने बच्चे की शिक्षा के लिए जमीन-आसमान एक कर दूंगी। मैंने घटिया लोगों और पियक्कड़ों के सामने लावणी किया है। मैं अपनी बेटी को इस कचरे में नहीं आने दूंगी।’ यह एक मुश्किल फैसला है, लेकिन इन महिलाओं को महसूस होने लगा कि बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें ख़ुद से दूर रखना होगा।
संगीत बाड़ी की अपनी दुनिया नृत्य से जुड़ा यह समुदाय कोल्हाटी जनजाति से है जो मातृ सत्तात्मक परंपरा को बहुत मान्यता देते हैं। समुदाय के मुताबिक महिलाएं ही परिवार के सारे फैसले लेती हैं मगर संपत्ति को संभालती हैं। लेकिन हकीकत में महिलाएं लावणी कर अपने परिवार की देखभाल तो करती हैं मगर उनके सभी अधिकार छीन लिए जाते हैं। ये महिलाएं केवल घर चलाने की भूमिका निभाती हैं, लेकिन इन्हें सशक्त नहीं बनने दिया जाता है। उनके श्रम को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। आजीविका कमा रही इन महिलाओं के परिवार के दूसरे सदस्य कोई काम नहीं करते हैं। बल्कि उन्हीं पर घर की तमाम जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं। ये केवल पैसा कमाने की एक मशीन बन कर रह जाती हैं। अधेड़ उम्र की नर्तकी और नृत्य मंडली की मालिक बबीता अक्कलकोटकर कहती हैं, ‘मुझे लगता है कि घर के मर्दों को भी काम करना चाहिए। उन्हें भी पैसे कमाकर घर चलाने में मदद करनी चाहिए। मेरे भाइयों को कम से कम अपने पैसे से नमक का एक पैकेट तो खरीदना चाहिए।’
संगीत बाड़ी या लावणी का प्रदर्शन वाला थिएटर, तमाशा पार्टियों से अलग होता है। हालांकि दोनों जगहों पर लावणी का प्रदर्शन किया जाता है। तमाशा पार्टियां अपने सभी कलाकारों और वाद्य यंत्रों के साथ एक गांव से दूसरे गांव घूमती हैं और हर शाम प्रस्तुति देती हैं। पहले लावणी को मनोरंजन का जन माध्यम माना जाता था। दर्शक आते और मामूली कीमत पर टिकट खरीदते, लावणी करने वाली महिलाओं का नृत्य देखते और चले जाते। लेकिन अब ऐसे थिएटरों में पैसे का बड़ा योगदान हो गया है। पैसे ‘प्राइवेट शो’ से आते हैं जहां ये महिलाएं छोटे-से कमरे में बंद दरवाजों के पीछे लावणी करती हैं। इस तरह के शो का रेट कमरे की भव्यता, शो की अवधि और सबसे अहम, नर्तकियों की उम्र के मुताबिक अलग-अलग होती है। कम उम्र की नर्तकी की कमाई ज्यादा होती है। इस वजह से भी यहां की महिलाओं को अपनी बेटियों के लिए डर लगा रहता है।
लता कहती हैं, ‘अगर मैं अपनी बेटी को अपने साथ रखती तो वह यहां की संस्कृति से प्रभावित हो जाती। इस तरह पर्यावरण का असर कम उम्र की लड़कियों पर जल्दी होता है। वे हमें ग्राहकों के साथ देखती हैं, मेकअप करते हुए देखती हैं। हम में से कई महिलाओं ने अपनी बेटियों को अपना जीवन बर्बाद करते हुए देखा है। मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी के साथ ऐसा हो। इसलिए मैंने उसे हमेशा अपने से दूर रखा है।’ अब इनमें से कुछ महिलाओं ने एकजुट होकर और अपनी कमाई से बचत कर एक छात्रावास के लिए योगदान दिया है, जहां उनके बच्चे, विशेषकर बेटियां सुरक्षित माहौल में रह रही हैं और स्कूल जाकर अपनी पढ़ाई कर पा रही हैं। ये महिलाएं अपने बच्चों को छोटे- छोटे तोहफे, जैसे नए कपड़े, स्कूल के सामान के लिए भी पैसे जमा करती हैं।
इन नर्तकियों द्वारा खोले गए छात्रावास के निदेशक अरुण जाधव बताते हैं कि ‘सिंधु गुलाब जाधव, कांता जाधव, अलका जाधव जैसी नर्तकियों ने मिलकर यह छात्रावास बनवाया है। उन्होंने अपने ग्राहकों से छात्रावास के लिए वित्तीय मदद मांगी जिससे उनका यह सपना पूरा हो पाया है। एक नर्तकी सविता अपने प्राइवेट डांस सेशन में इसके लिए चंदा लेती थीं। वह हर ग्राहक से 500 रुपए लेती थीं। उन्होंने अकेले 50 से 60 हजार रुपये जुटाए, ऐसे ही सबने मिलकर इस छात्रावास का निर्माण किया। यह छात्रावास लावणी करने वाली नर्तकियों के रहने की जगह से काफी दूर है।’
क्या होता है प्राइवेट डांस
प्राइवेट शो बंद कमरे में किये जाते हैं। इन शोज में शरीर की रचनाओं को उभारते हुए नृत्य किया जाता है ताकि ग्राहक को अधिक संतुष्ट किया जा सके। नृत्य देखने आए लोग अक्सर डांसरों पर पैसों की बौछार करते हैं, जैसा की अक्सर फिल्मों में दिखाया जाता है। यह शो सुबह 4 बजे तक चलते हैं। कभी-कभी कोई डांसर अपने ग्राहक के साथ ‘बाहर’ भी जाती है। ये सेक्स के लिए होता है, इसके बदले उन्हें ज्यादा पैसे मिलते हैं। लावणी को महाराष्ट्र का लोक नृत्य माना जाता है। कथक से इसकी कई समानताएं हैं। महारत हासिल करने के लिहाज से यह कठिन नृत्य शैली है क्योंकि इसमें चेहरे के हाव-भाव, अभिनय और हाथों का सुंदर तालमेल बनाना होता है। लावणी नृत्य को कामुक कह कर वर्षों तक हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। फिर भी इसमें महारत हासिल करने वाली नर्तकियों को आज भी याद किया जाता है। लेकिन अब यह कला लुप्त होती जा रही है।
संगीतकार ताल खो रहे हैं, नर्तकियां लय खो रही हैं और अब उनमें कुशलता भी नहीं दिखती। वरिष्ठ नृत्यांगना और गायिका लता परभणीकर कहती हैं, एक समय था जब दर्शक हमारी इस कला का सम्मान करते थे। अब वे केवल देह प्रदर्शन देखना चाहते हैं, इसलिए कोई भी कला सीखने की जहमत नहीं उठाता। लावणी करने वाली महिलाएं यहां से निकलना चाहती हैं, लेकिन हर कोई बाहर नहीं निकल सकता, हर किसी के पास मदद करने के लिए माएं नहीं हैं। यहां कई लड़कियों को गरीबी, दुर्व्यवहार और घर में भेदभाव के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए पैसे कमाने की जरूरत है। ऐसी लड़कियों के लिए संगीत बाड़ी ही एकमात्र जरिया है।