त्रिपुरा में बिप्लव देब को हटाए जाने के बाद से अटकलें लगाई जाने लगी हैं कि अब किसकी बारी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई सबसे ज्यादा आशंकित हैं। उनके राज्य में अगले साल मई में विधानसभा का चुनाव होना है। उससे पहले उनके ऊपर बहुत दबाव है। पार्टी की एक मजबूत लॉबी, जिसे आरएसएस के एक बड़े नेता का समर्थन प्राप्त है, उनके पीछे पड़ी है। बासवराज हाल में दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह से मिले और उसके बाद कहा कि ‘कुछ भी हो सकता है’
राजनीति में चुनावी सफलता के लिए पार्टियां हर दांव-पेंच आजमाने की कोशिश करती हैं। देश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी भाजपा भी पिछले कुछ समय से जिन राज्यों में उसके खिलाफ एंटी इन्कम्बेंसी का खतरा मंडरा रहा है वहां ‘डैमेज कंट्रोल का दांव’ चल रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जहां कहीं भी पार्टी को लग रहा है कि सत्ताधारी नेतृत्व से खफा जनता का आक्रोश भविष्य में महंगा पड़ सकता है, वहां पार्टी मुख्यमंत्रियों को बदल रही है। बात सिर्फ किसी मुख्यमंत्री को हटाने की नहीं है बल्कि इसमें यह भी ध्यान रखा जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों की दृष्टि से जातीय, क्षेत्रीय एवं धार्मिक समीकरणों को कैसे बेहतर ढंग से साधा जा सकता है। त्रिपुरा का उदाहरण सबसे ताजा है। यहां भाजपा को लगा कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में जनता उलट-फेर कर सकती है तो चुनाव से एक साल पहले नेतृत्व बदल दिया गया। पार्टी ने पिछले करीब दो सालों के भीतर चार राज्यों में मुख्यमंत्री बदले हैं। पार्टी के जानकार नेताओं का कहना है कि मुख्यमंत्री बदलने का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। त्रिपुरा में बिप्लब देब को हटाए जाने के बाद से अटकलें लगाई जाने लगी कि अब किसकी बारी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई सबसे ज्यादा आशंकित हैं। उनके राज्य में अगले साल विधानसभा का चुनाव होना है। उससे पहले उनके ऊपर बहुत दबाव है। पार्टी की एक मजबूत लॉबी, जिसे आरएसएस के एक बड़े नेता का समर्थन प्राप्त है, उनके पीछे पड़ी है। बासवराज हाल में दिल्ली आकर गृह मंत्री अमित शाह से मिले और उसके बाद कहा कि ‘कुछ भी हो सकता है।’
गौरतलब है कि जिन राज्यों में सरकार के खिलाफ जनता का आक्रोश नजर आ रहा था वहां पार्टी ने नेतृत्व परिवर्तन कर सत्ता हासिल की। इसका ताजा उदाहरण पार्टी को उत्तराखण्ड में मुख्यमंत्री बदलने का फायदा हुआ है इसलिए उसने यहदांव त्रिपुरा में आजमाया है। पिछले साल भाजपा ने उत्तराखण्ड में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया और चार महीने में ही उनको भी हटा कर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया। जिनके नेतृत्व में भाजपा लगातार दूसरी बार चुनाव जीत गई। इसी तरह पिछले साल असम चुनाव के बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री बदला और सर्बानंद सोनोवाल की जगह हिमंता बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाया था। गुजरात में भी इस साल के अंत में चुनाव है और उसकी तैयारियों के लिए पार्टी ने पिछले साल विजय रूपानी को मुख्यमंत्री पद से हटा कर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया।
दरअसल, भाजपा के रणनीतिकारों को अहसास है कि इससे पहले कि वो घाव नासूर बने, उसका समय रहते इलाज कर दिया जाए। अतीत के कटु अनुभव वे देख ही चुके हैं। वर्ष 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले झारखंड में भाजपा के भीतर रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग जोर पकड़ती रही। रघुबर दास के व्यवहार और कार्यशैली से आहत पार्टी के स्थानीय नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से शिकायतें की थीं। यहां तक कहा गया कि रघुबर के नेतृत्व में चुनाव में जाना खतरे से खाली नहीं होगा। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने इन शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए रघुबर दास के ही नेतृत्व में चुनाव में जाना पसंद किया। नतीजा यह हुआ कि विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का चेहरा रहे रघुबर दास खुद पार्टी के बागी सरयू राय से तो हारे ही, भाजपा भी सत्ता गंवा बैठी। इस प्रकार पार्टी को स्थानीय नेताओं के सटीक फीडबैक को नजरअंदाज करना भारी पड़ा था।
झारखंड की चूक के बाद दूसरे किसी राज्य में खतरे की घंटी बजते ही पार्टी एक्शन मोड में आ जाती है। असम में जब सर्बानंद सोनोवाल सफल होते नहीं दिखे तो पार्टी ने अपेक्षाकृत लोकप्रिय और हार्ड लाइनर माने जाने वाले हिमंता बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया। इसी तरह उत्तराखण्ड में स्थानीय नेताओं के फीडबैक के आधार पर भाजपा को यह भनक लग गई कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के चेहरे पर पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में सफलता हासिल नहीं कर सकती, तो आलाकमान ने बिना समय गंवाए उन्हें हटाने का निर्णय ले लिया। इसके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत को भी बहुत कम समय में ही हटना पड़ा। यह अलग बात है कि तीरथ सिंह रावत को बदलने का कारण संवैधानिक संकट बताया गया लेकिन जानकार मानते हैं कि राज्य के तमाम चुनावी समीकरणों को साधना इसकी बड़ी वजह रही। जुलाई में कर्नाटक में भी नेतृत्व परिवर्तन हुआ। हालांकि यहां लोकप्रियता या परफारमेंस को आधार बनाने की जगह उम्र के पैमाने पर 78 वर्षीय बीएस येदियुरप्पा की विदाई की पटकथा पार्टी ने लिखी। लेकिन राज्य में एक बार फिर चुनाव से पहले नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट तेज हो गई है।
इसके अलावा हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाएं सियासी गलियारों तैर रही हैं। जानकार मानते हैं कि कहीं कोई धुआं तब ही उठता है जब वहां आग लगी हो। खास बात यह है कि मुख्यमंत्री बदलते वक्त भाजपा राज्यों की परंपरागत राजनीति का भी ध्यान रखती जा रही है, मसलन अब उसे महसूस होने लगा था कि त्रिपुरा में बिप्लब देव कोई चमत्कार नहीं कर सकते हैं, अब वहां किसी साफ छवि के नेता को आगे करना ही सुरक्षित रहेगा। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जिस प्रकार गुजरात में भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साथ कई गोल दागे हैं। भाजपा ने पहला संदेश यह दे दिया कि उसके लिए परंपरागत पाटीदार मतदाता सर्वोपरि हैं और दूसरा संदेश यह कि पार्टी किसी जातीय क्षत्रप विशेष के दबाव में भी नहीं आने वाली है। पार्टी की राजनीति अब मुट्ठी भर चेहरों के इर्द- गिर्द सिमटकर नहीं रहने वाली। मुख्यमंत्री बनने की रेस से कोसों दूर सिर्फ एक बार के विधायक भूपेंद्र पटेल के मुख्यमंत्री बनने से जमीनी नेताओं में भी यह संदेश गया कि पार्टी के लिए समर्पित भाव से कार्य करने पर वह भी एक दिन सीएम बन सकते हैं।
राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का एक बड़ा कारण यह भी है कि गृहमंत्री अमित शाह कई अवसरों पर कह चुके हैं कि जनता ‘पॉलिटिक्स ऑफ परफॉरमेंस’ चाहती है। केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद इसका दौर शुरू हुआ है। ठीक इसी तर्ज पर चुनावी रैलियों के दौरान पीएम मोदी ‘नामदार बनाम कामदार’ का नारा भी उछाल चुके हैं। प्रधानमंत्री और अमित शाह की इन बातों से साफ संकेत मिलते रहे हैं कि अब केवल नाम के सहारे लंबी राजनीति नहीं चलने वाली बल्कि परफॉरमेंस यानी कामदार बनना होगा। उल्लेखनीय है कि मोदी-शाह की जोड़ी की यह नीति आगामी विधानसभा चुनावों में कितनी कारगर साबित हो पाती है।