मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में स्थापित तीन तलाक का नियम असंवैधानिक घोषित किये जाने के बाद आज भी मुस्लिम महिलाओं के लिए अभिशाप बना हुआ है। महिलाओं की इस स्थिति को देखते हुए साल 2019 में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के तहत कानून बनाया गया था , जिसका मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा विरोध किया जाता रहा है।
इस कानून के विरोध में कई याचिकाएं दायर की गई हैं। जिसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आने वाले नवंबर में इन याचिकाओं की सुनवाई की जाएगी। गौरतलब है कि साल 2019 में तीन तलाक के विरोध में कानून लागू किया गया जिसके अनुसार मुस्लिम पुरुषों के लिए तीन तलाक का सहारा लेने पर जिसे तत्काल तलाक भी कहा जाता है, तीन साल की कैद की सजा का प्रावधान है। सरकार ने यह कानून सुप्रीम कोर्ट आदेश पर बनाया जिसमें न्यायाधीश संविधान पीठ ने 2017 में फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह प्रथा असंवैधानिक थी, यह शुरुआत से अब तक बिना रोक टोक के बनी रही, इसलिए इस खतरे पर अंकुश लगाने के लिए एक निवारण कानून आवश्यक था। याचिका में इसका विरोध करते हुए कहा गया है कि यह संविधान मूल भावना का उल्लंघन है क्योंकि यह इस्लाम धर्म की मान्यताओं के खिलाफ है।
तीन तलाक कानून कब बना
तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत तलाक का एक रूप है जो इस्लाम में प्रचलित था, इस नियम के अनुसार एक मुस्लिम व्यक्ति तीन बार तलाक, तलाक, तलाक बोलकर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता था। तलाक का कोई कारण बताने की भी पुरुष को कोई आवश्यकता नहीं होती।इससे पीड़ित महिलाओं द्वारा सालों से तीन तलाक पर रोक लगाए जाने की मांग उठाई जा रही थी। उत्तराखंड की एक महिला शायरा बानो, जिसे दहेज की मांग पूरी नहीं करने के लिए पहले तो उसे उसके पति और परिवार वालों द्वारा मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया। उसके पति ने एक पत्र के माध्यम से तत्काल तीन तलाक़ दे दिया, जिससे उनकी 14 साल की शादी समाप्त हो गई। इस तरह पति ने अपनी पति सहित 2 बच्चों को अपनाने से इंकार कर दिया। इसके विरोध में शायरा बानो ने तीन तलाक की इस प्रथा को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखते हुए इस आधार पर चुनौती दी कि यह प्रथा भेदभावपूर्ण तो है ही साथ ही महिलाओं की गरिमा के खिलाफ भी है।
मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पाया की यह नियम पति को उसके मन की करने की छूट देता है। पति बिना किसी कारण के अपने वैवाहिक बंधन को मनमौजी तरीके से तोड़ सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त, 2017 को इसपर फैसला हुए एक बार में तीन तलाक को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताते हुए तलाक के इस नियम को रद्द कर दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी इस प्रकार के मामलों में गिरावट नहीं आई जिसे देखते हुए साल 2019 में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, के तहत तीन तलाक को अपराध घोषित कर दिया गया। जिसके बाद से तीन तलाक के मामलों में कुछ हद तक कमी देखी गई लेकिन यह अभी भी पूर्ण रूप से खत्म नहीं हुआ हुआ है। कई मामलों में यह भी देखा गया कि पति तीन तलाक की प्रक्रिया को न अपनाकर पत्नी को ‘खुला’ के लिए मजबूर करता है।
क्या है ‘खुला’
खुला इस्लाम धर्म में तलाक की एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से महिला तलाक ले सकती है। पारंपरिक इस्लामी धर्मशास्त्र के आधार पर और कुरान और हदीस में संदर्भित खुला महिला को भी तलाक लेने की अनुमति देता है। खुला के तहत पति-पत्नी की सहमति से या पत्नी के कहने पर तलाक होता है, जिसमें वह पति को शादी के बंधन से मुक्त करने के लिए विचार करने लिए कहती है या तलाक देने के लिए सहमत होती है, पति की सहमति जरूरी नहीं है। यह पत्नी द्वारा अपने पति को उसकी संपत्ति में से भुगतान किए गए मुआवजे के एवज में एक वैवाहिक संबंध को भंग करने के उद्देश्य से की गई व्यवस्था को दर्शाता है। इस प्रकार खुला, वास्तव में, पत्नी द्वारा अपने पति से खरीदे गए तलाक का अधिकार है। इसके बाद इद्दत की अवधि पूरी करने के बाद महिला पुनर्विवाह कर सकती है। खुला की प्रक्रिया पूरी करने के कुछ नियम भी होते हैं। पहला नियम यह है कि पत्नी की ओर से ‘खुला’ की घोषणा की जाए। दूसरा नियम कहता है कि अगर पत्नी पति से तलाक लेती है तो उसे शादी में प्राप्त दहेज या किसी अन्य भौतिक लाभ को वापस करने अनिवार्य है, हालांकि साल 2021 में इस फैसले में हुए संशोधन के अनुसार अगर पत्नी ‘खुला’ की घोषणा के समय विवाह के निर्वाह के दौरान प्राप्त दहेज या अन्य किसी भौतिक लाभ को वापस नहीं भी करती है तो भी ‘खुला’ का अधिकार मान्य है। तीसरे नियम के अनुसार पत्नी द्वारा खुला की घोषणा किये जाने के पहले सुलह का एक प्रभावी प्रयास किया गया हो।