- वृंदा यादव
ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किया गया देशद्रोह कानून में कई बार संशोधन के बाद पिछले साल देश की सर्वोच्च अदालत ने इस पर रोक लगा दी थी। साथ ही यह भी आदेश दिया था कि जब तक इस कानून पर कोर्ट पुनर्विचार नहीं करता तब तक धारा 124ए के तहत देशद्रोह के मामले में किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। लेकिन अब विधि आयोग ने केंद्र सरकार से इस कानून को बरकरार रखने की सिफारिश की है
देशद्रोह शब्द अपने आप में एक बड़ा अर्थ लिए हुए है। जिसका अर्थ है अपने ही देश के खिलाफ बोलना या कार्य करना। साल 1870 में ब्रटिश हुकूमत के दौरान देशद्रोह को अपराध की श्रेणी में रख इसके खिलाफ कानून बनाया गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किए गए इस कानून में कई बार संशोधन किए गए। जिसे स्वतंत्र भारत में भी स्वीकार किया गया। इस कानून पर पिछले साल 11 मई 2022 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगा दी गई थी साथ ही यह आदेश भी दिया गया था कि इस कानून पर जब तक कोर्ट पुनर्विचार नहीं करता तब तक धारा 124ए के तहत देशद्रोह के मामले में किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। लेकिन अब विधि आयोग ने बीते 1 जून को देशद्रोह कानून पर अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपते हुए इस कानून को बरकरार रखने की सिफारिश की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देशद्रोह से निपटने वाली आईपीसी की धारा 124ए को निरस्त करने के बजाए इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ सुरक्षा उपायों के साथ इस कानून को बरकरार रखा जाना चाहिए। केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को लिखे अपने कवरिंग लेटर में विधि आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त जस्टिस रितु राज अवस्थी ने सुझाव भी दिए हैं। जिसमें कहा गया है कि आईपीसी की धारा 124ए का दुरुपयोग न हो इस पर केंद्र सरकार को संज्ञान लेना चाहिए। धारा 124ए जैसे प्रावधान की अनुपस्थिति में सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने वाली किसी भी अभिव्यक्ति पर निश्चित रूप से विशेष कानूनों और आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत मुकदमा चलाया जाएगा, जिसमें अभियुक्तों से निपटने के लिए कहीं अधिक कड़े प्रावधान हैं।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आईपीसी की धारा 124ए को सिर्फ इस आधार पर निरस्त करना कि पहले भी कुछ देशों ने ऐसा किया है, यह सही नहीं है क्योंकि ऐसा करना भारत में मौजूदा जमीनी हकीकत से आंखें मूंद लेने की तरह होगा। क्योंकि इसे निरस्त करने से देश की अखंडता और सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है। अक्सर यह कहा जाता है कि राजद्रोह का अपराध एक औपनिवेशिक विरासत है जो औपनिवेशिक युग पर आधारित है जिसमें इसे अधिनियमित किया गया था।
क्यों लगाई गई रोक 11 मई, 2022 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा औपनिवेशिक युग के इस कानून को निरस्त कर दिया गया। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद से ही यह कानून आलोचना का विषय बना रहा है। आलोचक यह दावा करते हैं कि राजद्रोह औपनिवेशिक काल का एक पुराना कानून है और यह बोलने की स्वतंत्रता को कम करता है इसलिए आधुनिक लोकतंत्र में यह किसी काम का नहीं है। स्वतंत्र भारत में यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक बन गया है। यह कानून पत्रकारों के लिए भी काफी हानिकारक है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (पत्रकारों एवं संपादकों का एक गैर-लाभकारी संगठन) ने इस कानून को ‘कठोर कानून’ बताते हुए इसे निरस्त करने की मांग की थी। इसी प्रकार भारतीय महिला प्रेस कोर का भी यही कहना है कि ‘केंद्र और राज्य सरकारों ने सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले लेखों, ट्वीट्स, फेसबुक पोस्ट के लिए नियमित रूप से पत्रकारों पर राजद्रोह के आरोप लगाए हैं। जनवरी 2021 में, भारतीय महिला प्रेस कोर के संस्थापक सदस्य मृणाल पांडे और कुछ अन्य पत्रकारों पर किसानों के विरोध से संबंधित ट्वीट के लिए देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया था।
न्यायालय ने भी इस पर रोक लगाते हुए यही कहा है कि कई बार सरकार के फैसलों पर असहमति को खत्म करने के लिए सरकारों द्वारा इस कानून का दुरुपयोग किया गया है और यह समय के अनुरूप नहीं है। आंकड़ों के अनुसार साल 2014 से 2019 के बीच देश में 326 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए। जिसमें से 141 मामलों में चार्जशीट दायर की गई और इनमें से केवल 6 लोगों को देशद्रोह के विरोध में दोषी पाया गया। 15 जुलाई 2021 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि राजद्रोह के तहत सजा की दर बहुत कम है और कार्यकारी शक्तियों द्वारा इस कानून का दुरुपयोग किया गया है। जिस पर कानून के आलोचक यह दावा करते हैं कि इस कानून का उद्देश्य अभियुक्तों को दोषी ठहराना नहीं है, बल्कि एक लंबी प्रक्रिया के माध्यम से सरकार के आलोचकों को परेशान करना और चुप कराना है। यही कारण है कि कोई भी सत्तासीन सरकार राजद्रोह कानून को खत्म करने का समर्थन नहीं करती। लेकिन इस दौरान कांग्रेस पार्टी राजद्रोह कानून का पूर्ण रूप से विरोध कर रही है जबकि उसके शासन में यह कानून जस का तस बना हुआ था और हजारों लोगों को देशद्रोह के मामले में गिरफ्तार किया गया था। इस बार भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा देशद्रोह के कानून को सरकार की समीक्षा पूरी होने तक केवल अस्थायी रूप से रोका गया है। समीक्षा अब पूरी हो गई है जिसके अनुसार आयोग द्वारा इस कानून को बरकरार रखने का सुझाव दिया गया है। क्या है
देशद्रोह कानून
भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अनुसार, देशद्रोह एक प्रकार का अपराध है। धारा 124ए देशद्रोह को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि, जिसमें कोई व्यक्ति भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ मौखिक, लिखित, संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना करता है तो उस व्यक्ति को राजद्रोह के अपराध में तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा व जुर्माने का प्रावधान है। इस कानून के तहत आरोपी पाए गए व्यक्ति को सरकारी
नौकरी में स्थान नहीं मिल सकता। साथ ही आरोपित को पासपोर्ट रखने की भी अनुमति नहीं होती और उसे समय-समय पर न्यायालय में पेश होना पड़ता है। राजद्रोह के कानून को शुरुआत में धारा 113 के रूप में कोड में जगह मिली थी, थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने 1837 में दंड संहिता का मसौदा तैयार किया था। लेकिन किसी कारणवश उसे हटा दिया गया। इसके बाद वर्ष 1870 में बढ़ रहे ‘वहाबी आंदोलन’ को देखते हुए अंग्रेजी वकील जेम्स फिट्जजेम्स स्टीफन ने अंग्रेजी सत्ता को खतरे से बचाए रखने के लिए राजद्रोह को ‘रोमांचक असंतोष’ के तहत पेश किया और राजद्रोह को एक अपराध की श्रेणी में रखा। इसके बाद स्टीफन के संस्करण में आईपीसी संशोधन अधिनियम के तहत साल 1898 में संशोधन किया गया। इसके बाद भी इस कानून में साल 1937, 1948, 1950 और 1951 में कुछ बदलाव किए गए। वर्ष 1958 में राम नंदन नाम के एक व्यक्ति पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया।
इस मामले की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा राजद्रोह कानून को शून्य घोषित कर दिया गया। पंजाब उच्च न्यायालय ने भी इस कानून को रद्द कर दिया था। जिसके बाद वर्ष 1962 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिए गए एक फैसले के आधार पर संविधान में राजद्रोह को वापस लाया गया। जिसमें राजद्रोह की व्याख्या करते हुए कहा गया कि यह केवल तभी लागू होगा जब किसी व्यक्ति द्वारा की गई कोई क्रिया हिंसा को उकसाने का काम करेगी। वर्ष 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता के माध्यम से राजद्रोह को संज्ञेय बनाया गया।