रुचिका डायस गोवा में अपनी आजीविका चलाने के लिए बार डांसर के तौर पर काम करती थी। एक दिन उसके मैनेजर ने उसे एक आदमी के घर मनोरंजन के लिए भेजा। लेकिन वहां उसे बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा। बकौल रुचिका जिस व्यक्ति के मनोरंजन के लिए गई उस व्यक्ति ने मेरे साथ दुर्वव्यहार किया। वह एक जानवार था, उसने उस रात मेरा बलात्कार किया। हालांकि मैं वहां केवल डांस करने के लिए गई थी। रुचिका ने अपने साथ हुए दुर्वव्यहार की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई, क्योंकि उसे लगा कि वह एक ट्रांसजेंडर है इसलिए पुलिस उसे किसी हाल में भी गंभीरता से नहीं लेगी। उस वक्त डर की वजह से पीछे नही हटी रुचिका आज एक ट्रांसजेंडर अधिकार कार्यकर्ता और ट्रांसजेंडर वेलफेयर ग्रुप ‘वजूद’ की संस्थापक है। इसके अलावा वह कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं की सदस्य भी हैं। जो इस मुद्दे पर लोगों को सलाह-मशवरा देती हैं।
राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन द्वारा देश के लगभग 5000 ट्रांसजेंडर का 2014-2015 में सर्वेक्षण किया गया था। सर्वेक्षण के अनुसार, हर पांचवा ट्रांसजेंडर बलात्कार का शिकार हुआ है। लेकिन भारत में ट्रांसजेंडरों के साथ हुए दुर्व्यवहार के ऊपर कोई कानून नहीं है।इस मामले पर डायस जैसे कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारत में ट्रांसजेंडरों के साथ हुए बलात्कार में न्याय दिलाना लगभग असंभव है, क्योंकि वे अपराधियों को पुरूषों और पीड़ितों को महिलाओं के रूप में परिभाषित करते हैं। भारत में पिछले दिनों बलात्कार की हुई भयानक घटनाओं के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों में काफी बदलाव किए गए हैं। लेकिन ट्रांसजेंडरों के कानून में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं किया गया।
भारत में ट्रांसजेंडर लोगों के खिलाफ अपराध ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम 2019 के तहत दंडनीय हैं। उदाह-रण के लिए ट्रांसजेंडर लोगों के शारीरिक और यौन शोषण के लिए सजा न्यूनतम छह महीने और जुर्माने के साथ जेल में अधिकतम दो साल की है। हालांकि एक महिला के साथ बलात्कार के दोषी पाए गए पुरूषों को जेल में कम से कम 10 साल की सजा सुनाई जाती है, जिसे आजीवन बढ़ाया भी सकता है। मौत की सजा उन मामलों मे लगाई जाती है जिसमें महिला से बलात्कार करने के बाद बेसुध अवस्था में छोड़ दिया जाता है। भारत के पहले ट्रांसजेंडर जजों में से एक स्वाति बिधन बरुआ कहती है “बलात्कार कानूनों में भारी विसंगति और एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के यौन उत्पीड़न के लिए सजा सिर्फ यह दिखाने का एक और तरीका है कि हमारी जिंदगी से कोई फर्क नहीं पड़ता।” अक्टूबर में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर पीड़ितों के खिलाफ बलात्कार, मारपीट और उत्पीड़न सहित यौन अपराधों के लिए समान सजा की मांग वाली याचिका पर सुनवाई की थी। कोर्ट ने भारत के कानून एवं न्याय मंत्रालय और समाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से याचिका पर जवाब मांगा, लेकिन सरकार ने अभी तक इस पर टिप्पणी नहीं की है।
बलात्कार का अपराध भारत में तब से अस्तित्व में आया, जब दंड संहिता का मसौदा पहली बार 1860 में तैयार किया गया था। तब से भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन किया गया है ताकि पीड़िता के पक्ष में बलात्कार के मामलों पर मुकदमा करने की प्रक्रिया में सुधार किया जा सके। हालांकि यह पिछले एक दशक में ही है कि बलात्कार कानूनों को फिर से परिभाषित करने के लिए बदल दिया गया है जो बलात्कार का गठन करता है और सजा को मजबूत करता है। यह बदलाव 16 दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद आया है। हमले के कुछ दिनों बाद ही भारत के बलात्कार कानूनों में बदलाव देने के लिए एक हाई-प्रोफाइल कमेटी का गठन किया था। जस्टिस वर्मा कमेटी ने किसी भी वस्तु के दवारा अप्राकृतिक या प्राकृतिक यौन संबंधो को शामिल करने के लिए बलात्कार की परिभाषा को और ज्यादा बढ़ाने की सिफारिशें की। रिपोर्ट में कहा गया है कि उन पीड़ितों के खिलाफ यौन अपराधों को शामिल करने के लिए कानूनों को बढ़ाया जाना चाहिए जो महिलाएं नहीं हैं। क्योंकि पुरूषों पर यौन उत्पीड़न की संभावना के साथ-साथ समलिैंगिक, ट्रांसजेंडर और ट्रांससेक्सुअल बलात्कार एक वास्तविकता है।
2014 में भारत के ट्रांसजेंडर समुदाय ने समानता के लिए अपनी लड़ाई में प्रगति का जश्न मनाया, जब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें न तो पुरूष और न ही महिला के रूप में आत्म-पहचान का अधिकार देने वाला एक ऐतिहासिक फैसला सौंपा। अदालत ने विभिन्न सरकारी मंत्रालयों को निर्देश जारी किए है जिनमें सभी सरकारी दस्तावेजों में एक विकल्प के रूप में थर्ड जेंडर या ट्रांसजेंडर जोड़ना शामिल है। पिछले साल सरकार ने ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम पारित किया और उनके खिलाफ अपराधों के लिए दंड की रूपरेखा तैयार की। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 2017 के सर्वे में पाया गया कि ट्रांसजेंडर को पुलिस से न्याय नहीं मिलता है। सामूहिक बलात्कार के मामलों में वे सहायता के लिए उत्पीड़न के डर से और रिश्वत देने में असमर्थता के लिए पुलिस के पास नहीं जा सकते। भारत में ज्यादातर न सिर्फ एसआई या एएसआई रैंक के आईपीएस अधिकारियों को इस बात की जानकारी नहीं है कि एक ट्रांसजेंडर से कैसे निपटा जाए।
दिल्ली के लक्ष्मी नगर में रहने वाली एक महिला ट्रांसजेंडर से जब ‘दि संडे पोस्ट’ ने बात की तो उसने बताया कि,”आज समाज में किन्नरों की कोई वैल्यू नहीं है। किन्नर को देखते ही लोग इतने दूर भागते हैं जैसे हम कोई अछूत हों। उन्होंने आगे बताया कि अगर किसी किन्नर के साथ कोई दुर्व्यवहार हो जाता है तो जब वह शिकायत लेकर पुलिस थाने जाता है तो पुलिस कार्रवाई करने के बजाय उन्हें यह कहकर भगा देती है कि यह आपका पर्सनल मामला है। इसमे हम कुछ नहीं कर सकते। आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। जहां जोरों-शोरों के साथ चिल्ला-चिल्ला कर बताया जाता है कि हम मनुष्य सभी एक समान है और सभी कानून की दृष्टि से एक है लेकिन अगर आज किसी किन्नर के साथ दुर्व्यवहार हो जाता है तो उसके लिए कोई कानूनी प्रावधान ही नहीं है। भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय द्दारा भी अभी तक इस मामले को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए है। जहां एक तरफ हम अपने अधिकारों का हनन होने पर पूरे देश में रोष प्रदर्शन करते हैं लेकिन किसी किन्नर के साथ हुए बलात्कार पर हमने कभी मोमबत्ती जलाकर विरोध-प्रदर्शन किया है, क्या कभी उनके हक के लिए सड़क पर उतरे है। मानवाधिकार समर्थक भी किन्नरों के अधिकारों को लेकर जागरुक नहीं है। शायद हम किन्नरों को मानव सभ्यता का अंग नहीं मानते।