स्त्री मुक्ति की नायिका सावित्रीबाई फुले की जीवन यात्रा उस पहल की अगुवाई करती है जिससे भारत में महिला शिक्षा की एक बुनियादी नींव पड़ी। बहुजन समाज 03 जनवरी को ‘राष्ट्रमाता जयन्ती’ के रूप में मनाता है, अधिकतर यही होता है। सवाल यह है कि सावित्रीबाई फुले को देश की पहली महिला टीचर का सिम्बल बनाने मात्र से या राष्ट्रमाता जयन्ती को राष्ट्रीय अवकाश घोषित करने मात्र से ही उनके क्रांतिकारी योगदान को मापा जा सकता है ? यदि ऐसा होता तो इतने वृहद स्तर पर गांधी जयंती मनाये जाने के बावजूद सत्य और अहिंसा दोनों अपने अस्तित्व के बचे नमूनों को लेकर हाशिये पर न खड़े होते!
3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के नयागांव में जन्मी क्रांतिकारी, समाज सुधारक, शिक्षिका और लेखिका सावित्रीबाई फुले के जन्म दिवस पर महात्मा ज्योतिराव फुले के साथ दो नाम और जिनका ज़िक्र अक्सर कम होता है जो भारत में स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला की साक्षी रहीं, एक नाम ब्रिटिश मिशनरी द्वारा संचालित स्कूल की अध्यापिका मिशेल और दूसरा ज्योतिराव फुले के रिश्ते की विधवा बुआ सगुणाबाई जो सावित्रीबाई फुले के भीतर पनप रही आधुनिक नारीवाद की सजीव साथी रहीं। ज्योतिराव फुले ने जब समाज में व्याप्त भ्रष्ट जाति प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो उसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर से की। खेतों की मिट्टी स्लेट बनीं और पेड़ की टहनियां कलम, आम के पेड़ के नीचे ज्योतिराव फुले ने सावित्रीबाई फुले और बुआ सगुणाबाई की कक्षाएं शुरू की।
साथ ही ब्रिटिश मिशनरी स्कूल में कक्षा तीन में मिशेल के नेतृत्व में उनका दाखिला भी कराया। मिशेल के क्रांतिकारी विचार और सुदृढ़ आचरण ने सावित्रीबाई फुले के मन में जाति प्रथा को खत्म करने के अपने जुनून को एक आधार दिया। इसी के बाद उन्होंने अछूतों के लिये अपने घर में एक कुंआ बनवाया था। वह कौन सी घटना होगी जिसके बाद दार्शनिक, समाज सुधारक ने कवितायें लिखने के लिये पहली बार अपनी कलम उठायी होगी और कलम चली तो प्रकृति, शिक्षा और जाति प्रथा को जड़ से खत्म करने को आतुर रचनाओं ने जन्म लिया। वर्ष 1998 में भारतीय डाक विभाग ने सावित्रीबाई फुले पर एक डाक टिकट जारी किया था। सवाल फिर अपने आरम्भिक अवस्था में पहुंच गया कि सिर्फ प्रतीक के रूप में सावित्रीबाई फुले का नाम प्रयोग करने के आगे क्या कभी हम बढ़ सकेंगे?
‘दि संडे पोस्ट’ ने लेखक एवं ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के संस्थापक, एच. एल. दुसाध से उस समता मूलक समाज के संदर्भ में बात की जिसका सपना ज्योतिरावफुले और सावित्रीबाई फुले ने मिलकर बुना था, उनका कहना है कि, ‘इसमें कोई शक नहीं कि एक ऐसे दौर में जबकि भारतीय रेनेसां के महानायक राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्या सागर इत्यादि जैसे लोग सती और विधवा – प्रथा के जरिये उच्च वर्ण महिलाओं के दशा सुधार में सर्वशक्ति लगा कर समाज सुधार के रोल मॉडल बन रहे थे, वैसे दौर में ज्योतिराव फुले ने अपनी जीवन संगिनी सावित्रीबाई फुले को लेकर जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत शुद्रातिशूद्रों और सम्पूर्ण आधी आबादी की मुक्ति का असंभव सा सपना देखा। उन्होंने जहां समाज के प्रबल विरोध के मध्य इन वर्गों को अविद्या के अंधकार से निकालने की शुरुआत की, वहीं ‘गुलामगिरी’ जिसे कई लोग बहुजन मुक्ति का घोषणापत्र मानते हैं, के जरिये आरक्षण की विचार प्रणाली को जन्म देकर भारत में सदियों से प्रवाहमान हिन्दू आरक्षण की सबसे प्रभावी काट पैदा किया, जिसका अनुसरण करने हुए छत्रपति शाहू जी महाराज और डॉ. अम्बेडकर इत्यादि ने विषमता के चैम्पियन भारत में सामाजिक समानीकरण का मार्ग प्रशस्त किया।’
“स्मरण रहे हिन्दू धर्म का प्राणाधार जिस वर्ण – व्यवस्था के जरिये भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा, वह बुनियादी तौर पर एक आरक्षण व्यवस्था रही है, जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जाता है एवं जिसके प्रवर्तक विदेशागत आर्य रहे। हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत – आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक- आर्य समुदाय के अंतर्गत आने वाले ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित रहे। इस हिन्दू आरक्षण में विदेशागत आर्यों ने दलित, आदिवासी, पिछड़ों और सभी वर्णों के महिलाओं को शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत कर मानवेतर और नर- पशु में तब्दील कर दिया था।”
दुसाध आगे कहते हैं कि, ‘फुले ने मानवेतरों के लिए सदियों से बंद शक्ति के स्रोतों को रुद्ध द्वार को खोलने की परिकल्पना की। उनकी परिकल्पना को सीमित पैमाने पर मूर्त रूप देने का जो कार्य शाहूजी महाराज ने शुरू किया ,उसे शिखर पर पहुँचाया बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने. डॉ. आंबेडकर के प्रयासों से हिन्दू आरक्षण की जगह आधुनिक आरक्षण ने ले लिया,जिसका मूल विचार ज्योतिराव फुले ने दिया था। ऊपर से नीचे के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका का उदय हुआ। अंग्रेजों ने अपनी सार्वजनिक शिक्षा नीति के जरिये शूद्रातिशूद्रों के लिए भी शिक्षा के दरवाजे जरूर मुक्त किये ,पर उसमें एक दोष था जिसके लिए जिम्मेवार लार्ड मैकाले जैसे शिक्षा-मसीहा भी रहे। मैकाले ने जो शिक्षा सम्बन्धी अपना ऐतिहासिक सिद्धांत प्रस्तुत किया था उसमें व्यवस्था यह थी कि शिक्षा पहले समाज के उच्च वर्ग को दी जानी चाहिए। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा मिलने के पश्चात्,वहां से झरने की भांति झरते हुए शिक्षा निम्न वर्ग की ओर जाएगी। निम्न वर्ग को शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा देने के पश्चात् अपने आप शिक्षा का प्रसार निम्न वर्ग की ओर हो जायेगा। फुले ने ऊपर से नीचे की शिक्षा के इस सिद्धांत को ख़ारिज करते हुए शिक्षा प्रसार का अभियान अपने घर ही शुरू किया।’
वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजशास्त्री अरुण कुमार त्रिपाठी ‘दि संडे पोस्ट’ से हुई बातचीत में कहते हैं कि,’हमारा समाज सोशल रिवोल्यूशन के कठिन दौर से गुजर रहा है। ऐसे में यह समाज सावित्री फुले को कैसे अपनायेगा यह कह पाना मुझे मुश्किल लग रहा है। सावित्रीबाई फुले क्योंकि सिर्फ बहुजन की आदर्श नहीं हो सकती! 10 मार्च 1897 को पुणे, महाराष्ट्र में जब उनका निधन प्लेग से हुआ तो यहां यह देखने की बात है कि उन्हें प्लेग हुआ कैसे, वो दिन रात उस महामारी में प्लेग पीड़ितों की सेवा में लगी थीं और उसी दौरान यह रोग उनकी मृत्यु का काल बना।
तो मेरा मतलब यह है कि महिला शिक्षा पर जोर देने वाली यह दार्शनिक महिला एक समाज सुधारक थीं, ऐसी समाज सुधारक को सिर्फ बहुसंख्यक द्वारा मनाये जा रहे उत्सवों में याद करने तक सीमित कैसे किया जा सकता है?
पॉलिटिकल सिम्बोलिज्म में तो राजनीति अम्बेडकर पर खेल खेलेगी, सावित्रीबाई पर खेल खेलेगी, रमाबाई पर खेल खेलेगी, ज्योतिबा पर खेल खेलेगी, लेकिन गंभीर बात यह है कि समाज में सार्थक बदलाव, जाति प्रथा का नाश सिर्फ और सिर्फ रिवोल्यूशनरी आइडियोलॉजी से ही हो सकता है न कि सोशल रिफॉर्मर्स को प्रतीक के रूप में प्रयोग करने से, चाहे वह गांधी हो या सावित्रीबाई फुले हों।’
अरुण कुमार त्रिपाठी आगे कहते हैं कि,’इन दिनों मैं गांव में रह रहा हूँ, इतना कह सकता हूँ कि अभी भी लोग जाति-व्यवस्था को तोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं। विशेषकर सवर्ण जाति के लोग तो बिल्कुल नहीं चाहते। दूसरी जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि निम्नवर्ग को दलित,पिछड़ों के उत्थान के लिये अपनी रणनीति पर खुलकर परिचर्चा करनी होगी, समाज में यह रणनीति स्पष्ट होनी चाहिए। सावित्रीबाई फुले की सिर्फ जयंती मनाना उनका, रमाबाई और महात्मा ज्योतिराव फुले को सिर्फ सिम्बोलिज्म की तरह प्रयोग करना भी तो जातिवाद को बनाये रखने की एक कवायद है।’
नारी मुक्ति आंदोलन की इस नायिका ने अपने दृढ़ संकल्प से उन तमाम लड़कियों के लिये सदियों से बन्द दरवाजे खोल दिये जिसे असामाजिक और बुरी रीतियों ने अपनी अतार्किक जोर से पहले कभी नहीं खुलने दिया था। कितनी ताकत बटोरी होगी सावित्रीबाई फुले ने, एक विधवा को आत्महत्या करने से रोका, समाज की कुरीतियों के ख़िलाफ़ चट्टान की तरह खड़ी होकर स्त्री शिक्षा के लिये लड़ती रहीं। सावित्रीबाई फुले आधुनिक नारिवादिता की मिसाल नहीं थीं बल्कि स्वयं नारीवादकी परिभाषा थीं और हैं।