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इसलिए जरूरी है गांधी परिवार कांग्रेस के लिए

प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा का एक आलेख “Why The Gandhis Must Go Now” कुछ दिन हुए अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ। गुहा ने इस आलेख में विस्तार से यह समझाने -प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि अब नेहरू गांधी परिवार यानि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को कांग्रेस से पूरी तरह बाहर आ जाना चाहिए ताकि देश की ग्रांड ओल्ड पार्टी का अस्तित्व बचा रहे। अपने आलेख की शुरूआत गुहा ने एक खबर से शुरू की है जिसमें सोनिया गांधी द्वारा किसान आंदोलन के सर्मथन में अपना जन्मदिन न मनाने की बात कही गई थी। बकौल रामचंद्र गुहा सोनिया का यह ऐलान उनकी सामंतवादी सोच को दर्शाता है, ‘गुजरात – द मेकिंग ऑफ ए ट्रैजिडी ’, ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ और ‘गांधी: द इयर्स दैट चैन्जड् द वर्ल्ड’ जैसी पुस्तकों के लेखक अपने इस आलेख में शुरूआती चरण से ही कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व के प्रति पूर्वाग्रसित नजर आते है।

पूर्वग्रसित  लगते हैं गुहा

उनकी सबसे बड़ी गलती कांगेस और भाजपा की तुलना करते हुए इस बात की वकालत करना है कि गांधी परिवार अब कांगेस के लिए संपदा नहीं बोझ बन चुका है। इतिहासकार गुहा भूल गए कि कांगेस का डीएनए और भाजपा का डीएनए कितना अलग है। कांगेस राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की आग से तप कर निकली ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसमें नेहरू गांधी परिवार की पांच पीढ़ियों का योगदान उसे इस परिवार की छत्रछाया में एकजुट रखने वाला कैमिकल है। ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नामक कैमिकल भाजपा को ताकत देता आया है।

कल्पना किजिए (जो गुहा करना भूल गए) राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बगैर भाजपा का अस्तित्व क्या होगा? गुहा कहते हैं भाजपा का वर्तमान नेतृत्व यानि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा पूरी तरह से सेल्फ मेड व्यक्ति हैं, उनकी सफलता के पीछे किसी वंश का योगदान नहीं है। तीनों का आपस में भी कोई रिश्ता नहीं, केवल विचारधारा के तल पर वे एक हैं। दूसरी तरह कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व को गुहा ‘गांधी-गांधी और गांधी’ कह पुकारते हैं। तीनों गांधी एक ही परिवार के हैं- मां सोनिया, बेटा राहुल और बेटी प्रियंका।

गुहा लिखते हैं ‘मां सोनिया एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी होने के चलते राजनीति में हैं तो राहुल प्रियंका उनके बच्चे होने के चलते।’ यह सतही आकलन है। संघ भाजपा इस प्रकार का आकलन लगातार करते रहे हैं।

गांधी परिवार और कांग्रेस के बीच ‘जन्म-नाल’ के रिश्ते को परे रख किया गया यह आकलन दरअसल स्वयं गृहा ही नहीं बल्कि कट्टर हिन्दुत्व की संघी  अवधारणा को फलते-फूलते देख गहरे अवसाद, गहरी निराशा में जा पहुंचे हर उस भारतीय का है जो वर्ततमान दौर में छिन्न-भिन्न होती कांगेस को देख व्यथित हैं। मैं वापस मूल प्रश्न पर लौटता हूं।

 

गुहा की बात से इंकार नहीं कि भाजपा में कम से कम शीर्ष स्तर पर वंशवाद नहीं है। लेकिन यह कहना कि मोदी-शाह-नड्डा केवल अपने दम, अपनी मेहनत के बल पर सफलता पाएं हैं, पूरी तरह सही नहीं। उनकी सफलता 95 बरस से लगातार अपने ऐजेंडे में काम कर रही राष्ट्रीय स्वयं संघ के चलते है। भाजपा का जो जलवा आज है उसके पीछे केशव बली राम हेडगवार, बीएस मूनजे, गणेश सावरकार से लेकर बलराम मधोक, गोलवरकार, अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर समेत उन लाखों विचारकों-प्रचारकों, शाखाओं का योगदान है जिन्होंने तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में संघ के हिंदुत्ववादी ऐजेंडे को आगे बढ़ाया। मोदी शाह की कार्यशैली से खिन्न होने, त्रस्त होने, यहां तक की अपमानित होने के बाद भी भाजपा के संस्थापकों में अगणी रहे आडवाणी और मुरलीमनोहर प्रतिकार करते नजर नहीं आ रहे हैं तो इसके पीछे मोदी का नहीं बल्कि संघ का प्रताप है।

 

कांग्रेस के संदर्भ में यही भूमिका नेहरू-गांधी परिवार की है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस एक परिवार पर आश्रित रहती आई है जबकि भाजपा एक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर। प्रश्न परिवार बनाम विचारधारा का लेकिन है ही नहीं।

प्रश्न कांग्रेस के पुर्नजीवन का है, एक मजबूत विपक्ष बनने का है ताकि लोकतंत्र जिंदा रह सके। गुहा इतिहाकार होते हुए भी इतिहास को भूल रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि नेहरू-गांधी परिवार से नाता तोड़ने का प्रयास किस प्रकार कांग्रेस के साथ-साथ उन नेताओं पर भारी पड़ा जिन्होंने ऐसा प्रयास किया था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व को नकारने वाले कांग्रेसियों के समूह जिसे ‘सिडिकेंट’ कहा जाता था, का हश्र क्या हुआ? कांग्रेस जरूर दो घड़ो में बटी लेकिन जिंदा कौन सी वाली रही? जिंदा रही फली-फूली वह कांग्रेस जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी ने किया। 1969 में उन्होंने अपना अध्यक्ष जगजीवन राम को चुना था। 1971 में आम चुनाव हुए। सिडिकट के नेतृत्व वाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, इंदिरा कांग्रेस दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में वापस आई। 1977 के आम चुनाव में भारी पराजय जिसके मूल में इंदिरा द्वारा देश में लगाया गया आपातकाल था। कांग्रेस में फिर भारी मारकाट मची। इस बार जगजीवन राम ने बगावत का झंडा बुलंद कर पार्टी तोड़ डाली। आज की जनरेशन में से कितने जगजीवन राम के नाम से परिचित होंगे इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं? उनकी पार्टी आज अस्तित्व में नहीं है। दूसरी तरह 1977 की हार में मात्र तीन बरस बाद कांग्रेस भारी बहुमत के साथ 1980 में वापस सत्ता में काबिज हो गई। नेतृत्व इंदिरा का था। गांधी परिवार और कांग्रेेस के बीच ‘जन्म-नाल’ की कथा बेहद लंबी है। राजीव गांधी की असमय मृत्यु के बाद पहली बार पार्टी बगैर नेहरू-गांधी परिवार अनाथ सी होती नजर आई। तब शायद एक मौका था जब इस ‘जन्मनाल’ के रिश्ते को तोड़ा जा सकता था। लेकिन इसके खतरे स्पष्ट थे। एक से बढ़कर एक जनाधार वाले कांग्रेसी नेता ऐसी अवस्था में अपनी-अपनी पार्टी बना लेते, कांग्रेस का अस्तित्व समाप्त हो जाता। इस खतरे को भापते हुए एंटी नरसिम्हा राव ग्रुप ने सोनिया गांधी पर कांग्रेस की कमान सभांलने का भारी दवाब बनाया।

गुहा कहते हैं एक पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी होने के अलावा सोनिया गांधी में कोई विशेषता नहीं। सोनिया अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ और समझ का परिचय 1999 के आम चुनाव में कांग्रेस के शानदार प्रर्दशन से प्रमाणित कर चुकी हैं। गुहा विचारधारा के तल पर भी तीनों गांधियों पर निशाना  साधते हुए लिखते हैं- ‘सोनिया और राहुल पक्के धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं। लेकिन ‘नरम हिंदुत्व’ को आगे बढ़ाने का काम भी साथ-साथ करते रहते है।’ वे आर्थिक सुधारीकरण का सारा श्रेय भी लेते हैं, उद्योगपतियों को द्वेष दृष्टि से भी देखते हैं।’ उनका यह कथन पूरी तरह से सत्य है लेकिन वे सोनिया, राहुल पर निशाना साधते हुए भूल जाते है कि अपने धोर हिंदुत्व की वकालत करने वाली भाजपा भी समय-समय पर यही विरोधाभाषी काम करती आई है। जात-पात और धर्म वोट बैंक आधारित हमारे देश की राजनीतिक का कड़वा सच है। यही कारण है मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए अटल-आडवाणी हाजी टोपी पहनने, मजार जाने, इफ्रतार पार्टी करने, यहां तक की जिन्ना साहब की मजार तक जाने से गुरेज नहीं करते थे। इसलिए  कांग्रेस या गांधी परिवार पर यह आरोप एकतरफा प्रतीत होता है।

कभी इंदिरा को गूंगी गुड़िया कहा गया था, आज राहुल को नान सिरियस कहा जा रहा है।

गुहा राहुल गांधी की बाबत बेहद निगेटिव हैं। राष्ट्रीय जनता दल के एक नेता का बयान कि ‘जब बिहार में चुनाव चरम पर थे, राहुल गांधी प्रियंका के शिमला स्थित घर पिकनिक मना रहे थे का उदाहरण देते हुए

 

गुहा राहुल गांधी को एक नान-सिरियस नेता बताते हैं। शरद पवार का कथन कि ‘राहुल में निरंतरता की कमी है।’ भी उन्हें याद रहता है। लेकिन अपने इस आलेख में वे इस बात का नहीं उल्लेख नहीं करते है कि इन्हीं राहुल ने मोदी और भाजपा को 2017 गुजरात विधानसभा चुनावों में नाकों चने चबा दिये थे। हालांकि कांग्रेस भाजपा से सत्ता नहीं छीन पाई लेकिन उसका  प्रर्दशन उम्मीद से कहीं अधिक शानदार तो भाजपा का बेहद निराशाजनक रहा था।

2012 में 115 सीटे जीतनी वाले भाजपा का दावा था कि इस चुनाव में उसे 150 से सीटें मिलेगी, मिली केवल 99 में। दूसरी तरफ 2012 में 61 सीटें पाने वाली कांग्रेस 77 सीटे जीत पाने में सफल रही थी। गुहा भूल गए कि राहुल के गुजरात में धुआंधार प्रचार से धबराकर स्वयं पीएम मोदी को पार्टी के चुनाव प्रचार की कमान संभालनी पड़ी थी।


गुहा भूल गए कि इसी ‘नान सिरियस’ राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान 2018 में भाजपा से छीना था। वे भूल गए कि 2017 में गोवा भी इन्हीं राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस जीतते-जीतते रह गई थी। 

जी-23 यानि कांग्रेस के वे 23 दिग्गज जो पार्टी में नेतृत्वहीनता की बात करते हैं। जिन्होंने अपनी बात सोनिया गांधी तक पहुंचाने के लिए पत्र का सहारा लिया, ऐसा पत्र जो नितांत गोपनीय होते हुए भी मीडिया तक पहुंच कांग्रेस के लिए बड़े संकट का कारण बना।

उसी जी-23 के नेताओं ने राहुल गांधी की तारीफों के पुल छत्तीसगढ़ राजस्थान और मध्य प्रदेश की जीत बाद बांधे थे। गुहा भूल गए शशी थरुर सरीखे उनकी तरह अमिजात्य वर्ग के ‘बुद्धिजीवि’ समझे जाने वाले नेता का कथन कि “Rahul Gandhi should get full credit. He campaigned a lot and very hard”

संस्मरण रहे इन चुनावों में राहुल गांधी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे संग उतरे थे। उन्होंने 82 रैलियों को संबोधित किया था। वे ‘पिकनिक’ मनाने नहीं गए थे।

इतिहासकार गुहा राहुल गांधी पर गैरजिम्मेदार होने का आरोप लगाते हुए भूल जाते हैं कि कभी इसी नेहरू-गांधी परिवार की वारिस इंदिरा गांधी को उनके विरोधियों ने ‘गूंगी गुड़िया’ समझने की भूल की थी। आगे चलकर इसी गूंगी गुड़िया ने ऐसे तमाम विरोधियों को उनकी हैसियत बात डाली थी। हालात आज भी ठीक वैसे ही हैं। यदि गांधी परिवार राजनीति से हटने का फैसला करता है तो कांग्रेस में भारी टूट निश्चित है। कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत, कमलनाथ, भूपेश मधेल सरीखे जनाधार वाले नेता अपना-अपना श्रेत्रिय संगठन बना डालेंगे और ग्रांड ओल्ड पार्टी इतिहास में दफन हो जायेगी। इसलिए कांग्रेस को बनाए-जिलाए रखने के लिए गांधी परिवार जरूरी है। इस परिवार के बगैर कांग्रेस का अस्त्तिव संकट में आ जायेगा। समय का तकादा है कि राहुल फिर से पार्टी की कमांड संभाले और पूरी ताकत से कांग्रेस को बूथ स्तर तक मजबूत करने में जुट जाये।

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