देश में वर्ष 2020 की शुरूआत आंदोलन से हुई थी और आंदोलन पर ही 2020 विदा भी ले रहा है। जनवरी 2020 में लोग सरकार के द्वारा पारित किए गए एक विधेयक के कारण सड़कों पर थे, और दिसंबर 2020 में भी कृषि विधेयकों के कानून बनने पर देश का अन्नदाता सड़कों पर है। साल की शुरूआत में सिटिजन अमेंडमेंट एक्ट तो साल के अंत में किसानों पर कृषि कानूनों का प्रभाव खूब देखने को मिला। सिटिजन अमेंडमेंट एक्ट और कृषि कानूनों को लेकर हुए आंदोलनों ने दुनिया भर के महत्वपूर्ण आंदोलनों में अपनी जगह बनाई। लोकतंत्र में आंदोलनों का महत्व काफी मयाने रखता है। इन्हीं आंदोलनों ने विदेशी मीडिया की भी सुर्खियां बटोरी। विदेशों में भी इन आंदोलनों का खूब बोलबाला रहा। एक तरफ देश में आंदोलन थे, तो दूसरी तरफ कोरोना। हालांकि कोरोना ने तो पूरी दुनिया को तहस-नहस कर दिया है, तो वहीं आंदोलनों ने सत्ताधारी सरकार को झुकने के लिए मजबूर भी किया। भारत में 2020 में आमजन से लेकर पढ़े लिखे लोग और छात्र तक सरकारो के खिलाफ सड़को पर देखने को मिले। अपनी मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ लगातार लोगों ने इस साल आंदोलन किए। कुछ मांगों को लेकर सरकारे झुकी तो कुछ को लेकर डटी। इसके बावजूद आंदोलनों ने सत्ता को इस बात पर जरूर सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि देश की जनता सर्वोपरि है। अगर जनता को लगे की सरकारें उनके हक कि बात नहीं कर रही तो आंदोलन करना उनका संवैधानिक हक है। बीजेपी दूसरी बार केंद्र की सत्ता पर काबिज होकर आई और कुछ ऐसे विधेयक पारित किए, जिसके कारण उन्हें देश की जनता के विरोध का सामना करना पड़ा। कुछ विधेयकों को जनता ने अच्छा माना तो कुछ के खिलाफ सड़कों पर विरोध देखने को मिला। आइये जानते है 2020 के वे आंदोलन जिन्होंने सरकारों को सोचने पर मजबूर किया।
नागरिकता संशोधन कानून
नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 भारत की संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है जिसके द्वारा सन 1955 का नागरिकता कानून को संशोधित करके यह व्यवस्था की गयी है कि 31 दिसम्बर सन 2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी एवं ईसाई को भारत की नागरिकता प्रदान की जा सकेगी। इस विधेयक में भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए आवश्यक 11 वर्ष तक भारत में रहने की शर्त में भी ढील देते हुए इस अवधि को केवल 5 वर्ष तक भारत में रहने की शर्त के रूप में बदल दिया गया है। नागरिकता संशोधन बिल को लोकसभा ने 10 दिसम्बर 2019 को तथा राज्यसभा ने 11 दिसम्बर 2019 को परित कर दिया था। 12 दिसम्बर को भारत के राष्ट्रपति ने इसे अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और यह विधेयक एक अधिनियम बन गया। पंरतु विधेयक को जब लोकसभा के पटल पर रखा गया तो देश की विपक्षी पार्टियों और देश के अल्पसंख्यकों ने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी। लोग सड़कों पर आने शुरू हो गए। धीरे-धीरे इस आंदोलन ने बड़ा रूप धारण कर लिया, और सरकार के खिलाफ खड़े हो गए। दिल्ली का शाहीन बाग इस आंदोलन का केंद्र बना। आंदोलन को समाप्त करने के लिए सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के बयानों के बाद आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया। उसके बाद दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों पर दिल्ली पुलिस के डंडे, आंसू गैस के गोले, लाइब्रेरी में तोडफोड़, खून के धब्बे, टूटी डेस्क, शाहीन बाग की तर्ज पर देश के अन्य हिस्सों में भी कई शाहीन बाग बनने लगे। कर्नाटक, मुंबई, लखनऊ, बंगाल और देश के अन्य राज्यों में भी शाहीन बाग बनने लगे। जेएनयू के कई छात्र संगठन इस आंदोलन में आने लगे। जिसके बाद देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को लोग शहरी नक्सलियों का गढ़ कहने लगे। जनवरी समाप्त हुआ तो फरवरी आया, फरवरी बेरहम निकला, आंदोलन के विरोध में कुछ लोग सड़कों पर आए। कुछ नेताओं ने गोली मारो से लेकर सड़के खाली करानी की धमकी दी। और फिर दिल्ली जल उठी। 50 से ज्यादा लोगों की मौत इन दंगों में हुई।
मार्च में शिक्षकों की कमी से जूझ रहे बिहार के 4 लाख शिक्षक सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरे। सरकार को शिक्षकों की मांगो के आगे झुकना पड़ा और शिक्षकों की जेब में उनकी रूकी सैलरी सरकार को पहुंचानी पड़ी। मार्च में देश के लोग घरों में कैद हो गए। सभी तरफ कोरोना की हाहाकार मचने लगा। प्रवासी लोगों पर कोरोना का सबसे ज्यादा असर देखने को मिला। अपनी सालों से शहरों में बनाई जमापूंजी छोड़कर वापिस अपने गांवो में जाना पड़ा। कुछ के लिए सोनू सूद मसीहा बने तो कुछ को रास्ते में मौत ने आवाज लगा दी। दो गज की दूरी मास्क है जरूरी टीवी चैनलों के विज्ञापनों में आने लगे। जब सबकुछ देश में बंद था तो सुरक्षाबलों के अलावा डॉक्टर देश के लोगों के लिए मसीहा बनकर सामने आए। फिर अप्रैल में उत्तर प्रदेश के लखनऊ में सरकारी इमरजेंसी एंबुलेंस सेवा 108 और 102 के करीब 16000 ड्राइवरों ने भी काम पर जाने को लेकर हड़ताल का ऐलान कर दिया। आक्रोशित ड्राइवरों का कहना था कि दो महीने से उन्हें सैलरी नहीं मिली है। फिर सरकार जागी सैलरी का भुगतान करने का ऑर्डर आया।
डाक्टरों को लोग जहां कोरोना वॉरियर कहकर संबोधित कर रहे थे, लेकिन वहीं कई राज्य सरकारें वॉरियर की जरूरत को नजरअंदाज कर रही थी। यूपी में 250 रूपए की दिहाड़ी को मजबूर डॉक्टर सड़कों पर उतरने लगे। अब ये जूनियर डॉक्टर बीच-बीच में प्रदर्शन करते रहते हैं, लेकिन सरकार की तरफ से इनकी अपील को नहीं सुना गया है। उन्हें इंतजार है कि ‘कोरोना वॉरियर्स’ पुकारने से ज्यादा उनकी जरूरतों को सरकार समझे। अगस्त में जहां हम सभी अपने घरों में बंद थे, तब गांव के घरों में जाकर कोरोना के टेस्ट कर रही आशा वर्कर समय पर वेतन, सरकारी कर्मचारियों के तौर पर मान्यता, कोरोना वॉरियर्स के तौर पर इनके लिए बीमा राशि का बंदोबस्त की मांगो को लेकर करीब 6 लाख आशा वर्करों ने हड़ताल की। लेकिन चीजें जस का तस।
किसान आंदोलन
सितंबर में देश की संसद से तीन कृषि कानून पास किए। कानून पास तो हो गए लेकिन किसानों को यह कानून रास नहीं आए, कानून को लेकर किसान और जवान दिल्ली की सीमाओं पर आमने-सामने आए। बिलों का विरोध संसद से शुरू होकर देश की सड़को पर उतरा। राज्यसभा में कृषि बिल पर हुए हंगामे के कारण कुल 8 सासंदों को सदन की कार्यवाही से निलंबित कर दिया गया। फिर क्या था संसद के बाहर चादर-तकिया लेकर धरने पर बैठ गए कई सांसद। टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन आप सांसद संजय सिंह, राजी सातव, केके रागेश को मनाने के लिए उपसभापति हरिवंश संसद ने चाय भी पिलाई लेकिन किसानों का आंदोलन तपना शुरू हो चुका था। अक्टूबर में जहां पंजाब और हरियाणा के किसान सड़कों पर थे, तो वहीं दूसरी तरफ सत्ताधारी पार्टी अपना अस्तित्व बिहार में बना रही थी। देश की मेनस्ट्रीम मीडिया भी किसानों को उनके हालात पर छोड़कर बिहार चुनाव में चली गई। नीतीश कुमार की बिहार में सरकार तो बनी लेकिन किसानों की सरकार नहीं बनी। नवंबर में किसानों ने देश की राजधानी दिल्ली में सत्ता की कुर्सी पर बैठी सरकार को अपनी बात पहुंचाने के लिए दिल्ली की तरफ कूच किया। जब जवान और किसान दिल्ली की सरहदों पर आमने-सामने हुए। आंसू गैस के गोले, डंडे, वॉटर केनन, सड़क पर गड्ढे, बैरिकेडिंग, मतलब किसानों को दिल्ली पहुंचने के हर रास्ते अपनाए गए। लेकिन हजारों ट्रैक्टर और ट्रॉली लेकर किसानों ने सड़क को घर और आसमान को छत बना लिया। दिसंबर आते-आते दिल्ली एम्स की नर्स भी अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर गई। नर्सां की मांग है कि उनका वेतन बढ़ाया जाए और छठे वेतन आयोग की सिफारिश लागू हो। किसान अभी भी दिल्ली की सीमाओं पर डटे है। अभी तक 20 से ज्यादा किसान अपनी जान गवां चुके है। हालांकि सरकार और किसान संगठनों में 30 दिसंबर को हुई वार्ता में दो मुद्दों पर सहमति बन गई है। आगे की बातचीत 4 दिसंबर को होनी है। साल 2020 आंदोलन से शुरू हुआ और आंदोलन पर ही खत्म हो रहा है।