कुप्रथाओं के मकड़जाल से मुक्ति की यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है। इन कुप्रथाओं में से एक है दास प्रथा जो आज भी दुनिया के करोड़ों लोगों को अपनी जकड़ में लिए हुए है। फर्क इतना है कि तब यह गुलामी कही जाती थी और अब यह ‘आट्टानिक दासत्व’ का रूप ले चुकी है। आलम यह है कि एक भी देश ऐसा नहीं है जहां इस कुप्रथा की स्थिति में विशेष सुट्टार आया हो। यह हम नहीं बल्कि ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ की ‘द ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स’ यानी वैश्विक दासत्व सूचकांक की ताजा रिपोर्टबयां कर रही है
दुनिया में जितनी भी कुप्रथाओं का अभी भी अस्तित्व बरकरार है उनमें सबसे भयावह दास प्रथा को माना जाता है। इस प्रथा का सबसे स्याह पक्ष है मनुष्य के हाथों ही मनुष्य का ही बड़े पैमाने पर उत्पीड़न। आधुनिक समय के साथ बहुत-सी प्रथाएं खत्म हुईं लेकिन दासत्व की बेड़िया अब भी दुनिया के 5 करोड़ लोगों को अपनी जकड़ में लिए हुए है। फर्क इतना है कि तब यह गुलामी कही जाती थी और अब यह ‘आधुनिक दासत्व’ का रूप ले चुकी है। जीडीपी के आंकड़ों के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था का आकलन करते रहने के आदी हो चुके विश्व के नीति-निर्माताओं और लोक विमुख हो चुकी राजनीति को शायद ही मनुष्य के हाथों, मनुष्य का ही बड़े पैमाने पर उत्पीड़न पर सोचने-विचारने का समय मिलता होगा। लोक हित की तमाम योजनाओं के बावजूद दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है जहां दासत्व की स्थिति में कोई विशेष सुधार आया हो। यह हम नहीं बल्कि ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ की ‘द ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स’ यानी वैश्विक दासत्व सूचकांक की ताजा रिपोर्ट बयां कर रही है।
ऑस्ट्रेलिया के गैर-सरकारी संगठन ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ ने दास प्रथा को लेकर जारी की गई अपनी रिर्पोट में बताया है कि आधुनिक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े लोगों की सबसे ज्यादा तादाद जी-20 देशों में है। ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ की ‘वैश्विक गुलामी सूचकांक- 2023’ के मुताबिक जी-20 जैसे विकसित और विकासशील देशों में भी लोगों का दास प्रथा के अंतर्गत जमकर शोषण होता है। जी-20 देशों में आधुनिक गुलामी की उपस्थिति में सबसे ऊपर भारत का नाम है। जी-20 देशों के आंकड़ों के अनुसार भारत में 1.1 करोड़, चीन में 50 लाख, रूस में 19 लाख और 18 लाख लोग इंडोनेशिया के इस वक्त गुलामी से शोषित हैं। ताजा सूचकांक के अनुसार आधुनिक गुलामी 16 देशों में पाई गई है। हालांकि वैश्विक व्यापकता के लिहाज से उत्तर कोरिया सबसे ऊपर है।
वहां कुल आबादी का 4.37 फीसद हिस्सा आधुनिक गुलामी की गिरफ्त में है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, ‘प्रतिदिन हम ऐसे उत्पाद खरीदते हैं या सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं जिन्हें बनाने या पेश करने के लिए ऐसे लोगों का इस्तेमाल किया जाता है जो इस वक्त आधुनिक गुलामी का शिकार हैं।’ सूचकांक में आबादी के अनुपात में गुलामों की तादाद के आधार पर 167 देशों का क्रम निर्धारित किया गया है। आधुनिक गुलामी में शोषण के उन हालातों को रखा गया है जिसमें धमकी, हिंसा, जोर-जबरदस्ती, ताकत का दुरुपयोग या छल-कपट के चलते लोग नहीं निकल सकते हैं। शोध में 25 देशों में 53 भाषाओं में आयोजित 42 हजार से ज्यादा साक्षात्कार भी शामिल किए गए हैं। भारत समेत जिन पांच देशों में सर्वाधिक आधुनिक गुलामी पाई गई है, यह उन देशों के सामाजिक-आर्थिक विकास की बड़ी विडंबना है। इन देशों की व्यवस्था चाहे जैसी भी हो, वह अपने प्रत्येक नागरिक के लिए समुचित भरण-पोषण और मानवीय गरिमायुक्त जीवन जीने का मुकम्मल इंतजाम नहीं कर पाई है। वह विकास का लाभ कतार के अंत में खड़े लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है। यही वजह रही कि एक बड़ा वर्ग हाशिए पर रहने को मजबूर रहता आया है। उसने थक-हारकर जीवनयापन के लिए बंधुआ मजदूरी, भिक्षा और जिस्मफरोशी को अपना लिया है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इन कामों में जबरन धकेला गया है।
दरअसल, कई देशों में अपराधी गिरोह आज भी गरीबों की बेबसी का फायदा उठा रहे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए कमजोर लोगों को जबरन इन पेशों में धकेल देते हैं। पुरुषों से बंधुआ मजदूरी और भीख मांगने का काम कराया जाता है तो औरतों से जिस्मफरोशी। घृणित समझे जाने वाले इन पेशों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने के बावजूद कई देशों का राजकीय तंत्र इनकी पूरी तरह रोकथाम नहीं कर पाया है। समय-समय पर मानवाधिकार संगठन इनके खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भी इस मामले में कदम उठाने की अपील की जाती है, मगर मानव-विकास का एजेंडा कहीं न कहीं पीछे छूटता जा रहा है। जहां तक भारत का सवाल है, तो आधुनिक गुलामी का मामला हकीकत की पूरी तस्वीर पेश नहीं करता। ‘वैश्विक गुलामी सूचकांक 2023’ जितनी चौंकाने वाली तस्वीर पेश कर रहा है, हालात उससे भी कहीं ज्यादा भयानक हैं। हालांकि अब पहले की तरह गुलामों की खरीद- बिक्री नहीं हो सकती, लेकिन रसूखदार या आपराधिक लोगों का कब्जा तो है ही। देश में भयानक गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के चलते करोड़ों लोग आज भी गुलामों-सा ही जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
खेतिहर मजदूर हो या ईंट-भट्ठों पर काम करने वाले, होटलों और ढाबों पर काम करने वाले बच्चे हों या फिर ऊंचे पदासीन और असरदार लोगों के यहां काम करने वाले घरेलू नौकर! देखा जाए तो सब गुलाम हैं। वे सब अपनी मर्जी से न उठ-बैठ या सो सकते हैं, न मनचाहा खा-पी सकते हैं। कहीं आने-जाने की आजादी के बारे में तो सोच भी नहीं सकते। गुलामी के ऐसे मामले यूं तो देश के किसी भी हिस्से में मिल जाएंगे लेकिन भारत के पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ़ इस मामले में कुख्यात हैं। पंजाब के फार्म हाउस और ढाबों, उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर और उसके आस-पास के इलाकों में कालीन उद्योग और तमिलनाडु के ईंट-भट्ठों से बंधुआ मजदूरों को आजाद कराने की इक्का-दुक्का कोशिशें हर बरस सामने आती हैं।
देश के विभिन्न इलाकों में खेतों, घरों, निजी कारखानों और अन्य कारोबारों में छोटी-बड़ी उम्र के लाखों लोग गुलामों की तरह काम करने को मजबूर हैं। मामूली कर्ज की एवज में वे ऐसे जाल में जा फंसे हैं जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। गांवों और शहरों में ऐसे लाखों परिवार हैं जिन्होंने अपने घरेलू कामों के लिए गांव-देहात के गरीब परिवारों के बच्चों को उनके पढ़ने-लिखने और खेलने-खाने की उम्र में चौबीस घंटे का नौकर बना रखा है। ये बच्चे कहीं जा नहीं सकते, क्योंकि पता नहीं किस मजबूरी के चलते उनके मां-बाप उन्हें चंद रुपयों के बदले एक तरह से बेच कर चले गए हैं। छत्तीसगढ़ में तो हालत यह है कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति के यहां गुलाम होकर रह रहे परिवार की औरत को बच्चा होने पर उस बच्चे पर भी ‘मालिकाना हक’ उस व्यक्ति का होता है और वह बच्चा जिंदगी भर उसके घर और खेत-खलिहान में काम करने के लिए अभिशप्त होता है। गुलामी की सबसे भयावह और शर्मनाक तस्वीर जिस्मफरोशी के अड्डों पर नजर आती है जहां लाखों बच्चियां इसकी शिकार हैं। गुलामी के अंधेरी कोठरी में आजादी की कोई किरण उन्हें नजर आती ही नहीं।
यह तस्वीरें देश के हर छोटे-बड़े गांव-शहर और महानगरों में देखी जा सकती है। अपनी मर्जी से या मजबूरी में गुलामी का जीवन जीने को अभिशप्त इन लोगों को तो शायद जैसे-तैसे दो वक्त की रूखी-सूखी-जूठी-बासी रोटी और सिर पर छत भी नसीब हो जाती होगी लेकिन इनसे कहीं ज्यादा तादाद तो उन लोगों की है जिन्हें यह भी नसीब नहीं है। अनुमान है कि देश में बीस करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी रातें इसी बेचैनी में करवट बदलते हुए गुजरती है कि कल उन्हें और उनके बच्चों को कुछ खाने को मिलेगा या नहीं। इन सभी तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘वैश्विक गुलामी सूचकांक-2023’ का आंकड़ा भारत के लिए चिंतनीय है। दुनिया के तमाम देशों की सरकारें मजदूरों के हित के लिए कई तरह की योजनाएं और सुविधाएं देने की बात करती हैं, लेकिन धरातल पर कोई काम नहीं होता, जिससे दशकों बाद भी मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं होता है। दुनिया के हर देश में आधुनिक गुलामी और जबरन शादी की घटनाएं होती रहती हैं।