देशभर में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ योजना काफी समय से चल रही है। शौचालय बनाने और स्वच्छता का पाठ पढ़ाने में करोड़ों रुपए खर्च किए जा चुके हैं और खर्च किए भी जा रहे हैं, लेकिन देश के कई हिस्सों में हाथ से मैला उठाने का काम आज भी जारी है। ऐसे में सवाल है कि देश में मैला ढोने वाले प्रथा के खिलाफ कानून बनने के इतने सालों बाद भी यह प्रथा अभी तक प्रचलित कैसे है ?
हाथ से मैला ढोने की प्रथा को साल 2013 में ही प्रतिबंधित कर दिया गया था, लेकिन बावजूद इसके आज भी बड़ी संख्या में लोग इस काम को कर रहे हैं। हाल ही में प्रकाशित हुई ‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार देश के कुल 766 जिलों में से अब तक सिर्फ 508 जिलों ने ही खुद को मैला ढोने से मुक्त घोषित किया है। जिसका मतलब है कि सिर्फ 66 फीसदी जिले मैला ढोने की प्रथा से मुक्त हुए हैं, 34 प्रतिशत जिलों में आज भी इंसानों द्वारा मैला ढोया जा रहा है। वहीं सामाजिक न्याय मंत्रालय ने सफाई देते हुए पिछले दो वर्षों से संसद में होने वाले हर सत्र के दौरान कहा कि देश भर में मैला ढोने की प्रथा से कोई मौत नहीं हो रही है। जबकि ‘सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान कई लोगों की जान जा चुकी है।
रिपोर्ट के अनुसार मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने हाथ से मैला ढोने और खतरनाक तरीके से सीवरों की सफाई के मामलों को अलग किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2013 और 2018 में किए गए सर्वेक्षण में सभी हाथ से मैला ढोने वालों की पहचान की गई थी। जिनकी संख्या लगभग 58 हजार थी। अन्य जिलों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा से मुक्त क्यों नहीं किया इस सवाल जवाब देते हुए सामाजिक न्याय मंत्री वीरेंद्र कुमार ने कहा राज्यों, नगर निकायों से जो भी जानकारी मिली है – सभी ने कहा है कि अब मैला ढोने की प्रथा नहीं होती है। 58 हजार लोगों में से जिन लोगों ने अपने दम पर कुछ और करने का फैसला किया है, हम उन्हें कौशल प्रशिक्षण केंद्रों से जोड़ रहे हैं। मैला ढोने वालों के पुनर्वास योजना के अनुसार, 58 हजार चिह्नित सीवर कर्मचारियों को प्रत्येक को 40 हजार रुपये का एकमुश्त नकद भुगतान दिया गया है। इसके अलावा उनमें से लगभग 22,हजार लोग कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। अगर उनमें से कोई भी व्यक्ति जो अपना खुद का व्यवसाय स्थापित करना चाहता है, उसे सब्सिडी और ऋण उपलब्ध हैं।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता वीरेंद्र कुमार ने कहा, ‘हम हाथ से मैला ढोने से होने वाली मौतों को शून्य करना चाहते हैं। इसी वजह से सरकार द्वारा सीवर कार्य के 100 प्रतिशत मशीनीकरण के लिए मैला ढोने वालों के पुनर्वास योजना को अब नमस्ते योजना के साथ जोड़ दिया गया है। हालांकि वित्त वर्ष 2023-24 के केंद्रीय बजट में पुनर्वास योजना के लिए कोई आवंटन नहीं दिखाया गया और नमस्ते योजना के लिए 100 करोड़ का आवंटन किया गया। दिसंबर 2021 में केंद्र सरकार ने संसद में जानकारी दी थी कि देश में 58,098 हाथ से मैला ढोने वाले हैं और उनमें से 42,594 अनुसूचित जाति के हैं। जबकि 421 अनुसूचित जनजाति से हैं। कुल 431 लोग अन्य पिछड़े वर्ग से हैं, जबकि 351 अन्य श्रेणी से हैं।
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कब लगाया गया प्रतिबंध
गौरतलब है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग में लगे श्रमिकों की बढ़ती संख्या और जाति व्यवस्था में निचले पायदान के लोग जो इस काम को करने के लिए समाजिक दबाव में रहते हैं , उसे रोकने के लिए मैला ढोने वालों को रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण निषेध अधिनियम, 1993 लेकर आई। इस कानून के तहत मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मैनुअल स्कैवेंजिंग कार्य करने में अधिकतर वो श्रमिक आते हैं जो दलित या अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति वर्ग के होते हैं। इस वर्ग के पुनर्वास के लिए यानी उन्हें उनके पेशे युक्त कार्यों से बाहर निकालने के लिए मैनुअल स्कैवेंजिंग नियोजन प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम 2013 भी लाया गया। इस एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। हालांकि आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है। अगर किसी विषम परिस्थिति में सफाई कर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए कई तरह के नियमों का पालन जरुरी होता है। हालांकि इन नियमों के लगातार उल्लंघन के चलते आए दिन सीवर सीवर सफाई के दौरान श्रमिकों की जान जाती है। इस वर्ष मार्च महीने में केंद्रीय सामाजिक न्याय और आधिकारिक मंत्रालय ने लोकसभा को सूचित किया कि वर्ष 1993 से देश में सीवरों की खतरनाक सफाई करने के दौरान कुल 1 हजार 35 लोगों की मौत हुई है। इनमें से 948 लोगों को मुआवजा दिया गया। 2014 में एक ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया था कि सीवर की सफाई के दौरान मरने वाले सभी लोगों के परिवारों को मुआवजे के रूप में 10 लाख रुपये दिए जाएं।
मैनुअल स्कैवेंजिंग के संदर्भ में मौत के असल आकड़ों को स्पष्ट नहीं किया जा सकता। सरकारी आकड़े कुछ और तो वास्तविक धरातल पर कुछ और नजर आता है। 28 जुलाई साल 2021, राज्यसभा में सामाजिक न्याय मंत्री रामदास आठवले ने मल्लिकार्जुन खड़गे और एल हनुमंतैया के पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि पिछले पांच साल में भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से नालों की सफाई करते हुए किसी भी सफाई कर्मी की मौत नहीं हुई । लेकिन इसी साल 2021 में सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक्टिविस्ट बेजवाड़ा विल्सन ने ट्विटर करते हुए कहा था कि साल 2016 से 2020 तक मैला ढोने के कारण 472 मौतें दर्ज की गई थी। 2020 में जारी किए गए राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2010 से लेकर मार्च 2020 तक यानी पिछले 10 सालों के अंदर सेप्टिक टैंक और सीवर साफ करने के दौरान 631 लोगों की मौत हुई थी।
स्वच्छता मिशन सफाई श्रमिकों की मौत की वजह
हाथो से इंसानी मल को साफ़ करना या उसे कही और फेकना श्रमिकों के लिए कई बीमारियां उतपन्न करता है। हैजा ,हेपेटाइटस, टीबी ,टाईफ़ाएड जैसी कई बिमारियों से मैनुअल स्कैवेंजिंग के श्रमिक ग्रस्त होते हैं। मैनुअल स्कैवेंजिंग प्रथा या हाथ से मल उठाने वाले श्रमिकों में बिमारी स्वच्छ भारत योजना से भी फैल रही है। दरअसल साल 2014 में केंद्र सरकार द्वारा स्वच्छ भारत मिशन की शुरुवात की गई थी। इसके तहत कई ऐसे शौचालय बनवाये गए जिनकी सफाई हाथ से करनी पड़ती है। मिडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जब 2017 में स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए शौचालयों विश्लेषण किया गया तो उसमें 13 फीसदी शौचालय गढ्ढे वाले हैं। ये सूखे शौचालय की श्रेणी में आते हैं। जिनकी सफाई हाथ से करने की जरूरत होती है। देश में सूखे शौचालयों का निर्माण भारतीय रेलवे में किया जाता है। सरकारी आकड़ों के मुताबिक भारतीय रेलवे में 2 लाख 96 हजार 12 सूखे शौचालय हैं। जिन्हे हाथ से साफ़ करना पडता है। हालांकि रेलवे ने दूर तक सफर करने वाली सभी ट्रेनों में 2 लाख 58 हजार 906 बायो वैक्यूम शौचालय लगाए हैं। क्यों आज भी नहीं छोड़ पा रहे लोग मैनुअल स्कैवेंजर्स
हाथ से मल उठाने वाली प्रथा हजारों लोगों के लिए आजीविका का साधन भी है। इसलिए ज्यादातर मैनुअल स्कैवेंजर्स इस कार्य को छोड़ना नहीं चाहते। पुनर्वास योजना के तहत उनकी चिंताओं का समाधान किया जा सकता है। लेकिन योजनाओं को वास्तविक धरातल पर अमल न हो पाने के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा । चूँकि मानवीय अपशिष्टों के निपटान की कोई उचित व्यवस्था नहीं है, इसलिये भारतीय रेल ‘मैनुअल स्कैवेंजर्स’ का सबसे बड़ा नियोक्ता है। कुछ ट्रेनों को छोडकर रेलवे अपने 80 हजार शौचालयों 1.15 लाख किलोमीटर लम्बे रेलवे ट्रैक को साफ़ रखने के लिए किसी भी टी कनीक का इस्तेमाल नहीं करती।
गौरतलब है कि पहली बार इस देश में मैला ढोने की प्रथा पर साल 1993 में प्रतिबंध लगाया गया था। इसके बाद साल 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया गया. ऐसे में सवाल उठता है कि इतने कड़े प्रतिबंध के बाद आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा क्यों मौजूद है?
द प्रॉहिबिटेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट-2013 के तहत हाथ से मैला ढोने पर पूरी तरह प्रतिबंध है। अगर किसी सफाई कर्मचारी की सीवर सफाई के दौरान मौत हो जाती है तो सरकार की तरफ से उसके परिवार को 10 लाख रुपए की वित्तीय सहायता दी जाती है।
इसके अलावा कोई मजदूर इस काम को छोड़ना चाहता है तो सरकार की तरफ से 40 हजार रुपये की एकमुश्त नकद रकम देने की योजना बनाई गई है। इसके अलावा कौशल विकास प्रशिक्षण और स्व-रोज़गार परियोजनाओं के लिये पूंजीगत सब्सिडी प्रदान की जाएगी।
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सीवर सफाई के दौरान मौतें
एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 23 नवंबर, 2019 को सीवर की सफाई के दौरान जहरीली गैस से दम घुटने के कारण अशोक नाम के एक सफाई कर्मी की मौत हो गई थी। अशोक दिल्ली के शकरपुर में एक सीवर की सफाई कर रहे थे।
हरियाणा के रोहतक में 26 जून, 2019 को सीवर की सफाई करते हुए चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी। उत्तर प्रदेश के मथुरा में 28 अगस्त 2019 को सीवर की सफाई करने के दौरान चार सफाई कर्मियों की मौत हो गई थी। 28 मई 2021, को 21 साल के एक सफाई कर्मी की मौत हो गई. जिस वक्त सफाई कर्मी सीवर में उतरा था उस वक्त उसके पास कोई सुरक्षा गियर नहीं था।