आज भी राजनीतिक पार्टी के लोग मुलायम सिंह यादव के ‘चरखा दांव’ को नहीं भूले हैं जब वे बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किए ही पहलवान को चारों खाने चित कर देते थे। उत्तर प्रदेश सहित केंद्र की राजनीति में उन्होंने इस दांव को चल कई बार सियासी उलट-फेर कर दिया था। उनकी खूबी यह थी कि वह अक्सर हवा का रुख भांपकर ही सियासी खेल खेलते थे। जब तक यूपी की राजनीति में सक्रिय रहे तब तक किसी न किसी रूप में अपरिहार्य बने रहे। उन्हें खांटी, सादगी पसंद और जमीन से जुड़ा एक ऐसा नेता माना जाता था जो लोहियावादी था, समाजवादी था और धर्मनिरपेक्षता की बातें करता था
अब तक सियासी अखाड़े में जीत दर्ज करते आए समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव आखिर 10 अक्टूबर को मौत के अखाड़े में हार गए। 82 साल के जीवन में करीब छह दशक राजनीति को देने वाले मुलायम को ‘नेताजी’ के नाम से जाना जाता था। राजनीति में अपनी ‘चरखा दांव’ शैली से उन्होंने विरोधियों को काफी बार पटकनी दी। विधान परिषद और विधानसभा, दोनों में ही नेता प्रतिपक्ष और नेता सदन रहने वाले मुलायम यूपी के इकलौते नेता थे जिन्हें धुर विरोधियों को भी अपने पाले में लाने में महारथ हासिल थी।
मुलायम सिंह का जन्म इटावा जिले के सैफई के साधारण परिवार में हुआ था। 60 के दशक में राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं की शागिर्दी में सियासत के दांव-पेंच सीखे। 1967 में वह पहली बार विधानसभा के लिए चुने गए और 1977 में यूपी में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार में पहली बार राज्य मंत्री बनाए गए। लोकदल और फिर जनता दल से होते हुए मुलायम पहली बार 1989 में यूपी के मुख्यमंत्री बने।
‘मुल्ला मुलायम’
मौके की नजाकत देखकर सियासत के समीकरण को पलटने का हुनर मुलायम सिंह को खूब आता था। 1989 में जब वह पहली बार सीएम बने तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का दांव अजित सिंह को यह पद देने पर था, लेकिन मुलायम ने गुप्त वोटिंग में विधायकों को अपने पक्ष में कर लिया और देश के सबसे बड़े प्रदेश के सीएम बन गए। खास बात यह है कि मुलायम सरकार को समर्थन देने वालों में बीजेपी भी थी। यही वह दौर था, जब यूपी सहित पूरे देश में राम मंदिर आंदोलन अपनी जड़ें जमा रहा था। 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में आंदोलनकारियों ने कार सेवा का ऐलान कर दिया। उस समय मुलायम ने कहा था कि ‘परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा।’ इस आदेश पर अमल करने के कारण गोलियां चलीं और कई लोगों की जान गई। जिसके बाद कथित बीजेपी सहित हिंदूवादी दलों ने मुलायम को नया नाम दे दिया ‘मुल्ला मुलायम।’
मुलायम सिंह मंडल-कमंडल की राजनीति में परंपरागत यादव वोटरों को तो अपनी तरफ कर ही चुके थे। वह अल्पसंख्यक राजनीति के यूपी में सबसे बड़ा अगुआ बन गए। इस बीच कांशीराम की अगुवाई में दलित राजनीति में नई पार्टी के तौर पर बीएसपी का उदय हो चुका था। जो कांग्रेस के सियासी पतन की पटकथा लिखने से कम नहीं था। कार सेवकों पर चली गोली और राम मंदिर आंदोलन के भावनात्मक उबाल के बीच हुए चुनाव में बीजेपी ने कल्याण सिंह की अगुवाई में पहली बार बहुमत पाया और सत्ता हासिल की।
इसी दौरान 4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी का गठन किया। इसके दो महीने बाद ही 6 दिसंबर को अयोध्या में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी और कल्याण सिंह का इस्तीफा हो गया। इस घटना ने पूरे देश की राजनीति का रुख बदल दिया। राजनीति में हवा किस ओर चल रही है इसे भांप लेने वाले मुलायम सिंह जान चुके थे कि कमंडल की राजनीति की हवा को रोकने का रास्ता ‘मंडल’ है। ‘राम रथ’ को रोकने के लिए मुलायम कांशीराम के ‘रथ’ पर सवार हो गए। इसके लिए इटावा के लोकसभा उपचुनाव में कांशीराम को जिताने के लिए मुलायम ने चुपचाप अपने ही प्रत्याशी को हरवा दिया था। 1993 में हुए चुनावों में एसपी-बीएसपी गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस और जनता दल को भी साथ लेकर मुलायम एक बार फिर सीएम बन गए। हालांकि बाद में इस गठबंधन का अंत अच्छा नहीं हुआ और बीएसपी नेता मायावती के साथ दुर्व्यवहार और मारपीट का ऐसा पन्ना सियासत में जुड़ा जिसने करीब ढाई दशक तक दोनों पार्टियों को एक-दूसरे का दुश्मन बनाए रखा।
1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की सरकार गिरने के बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी। प्रधानमंत्री के दावेदारों में मुलायम सिंह यादव का नाम भी था। लेकिन उनकी ही बिरादरी के बिहार के दो बड़े नेता लालू प्रसाद और शरद यादव इसमें रोड़ा बन गए। इस सरकार में मुलायम रक्षा मंत्री के तौर पर पहली बार केंद्र की सियासत में सक्रिय हुए। राजनीति में मुलायम को पढ़ना कितना मुश्किल था, इसकी नजीर वह बार- बार रखते रहे। 1998 में दोबारा बनी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 13 महीने में गिर गई। 1999 में कांग्रेस ने सत्ता के लिए दावेदारी पेश की। सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर सहमति हो चुकी थी। विदेशी मूल का मुद्दा गरम था और मुलायम की राजनीतिक जमीन पूरी तरह ‘देसी’ थी। कांग्रेस को समर्थन पत्र देने गई, जिसमें एसपी का भी नाम था, लेकिन मुलायम समर्थन देने से साफ तौर पर मुकर गए।
1999 में एनडीए पहली बार बहुमत में आया और अटल केंद्र की सत्ता में पांच साल के लिए ‘अटल’ हुए। इधर यूपी में कल्याण सिंह के तेवर बगावती हुए और बीजेपी की जमीन खिसकने लगी। कल्याण ने अपनी पार्टी बनाकर 2002 में चुनाव लड़ा। अंतर्विरोधों के बीच बीजेपी सत्ता से दूर रह गई। एक बार फिर बीएसपी और बीजेपी का गठबंधन हुआ, मायावती सीएम बनीं लेकिन अंतर्विरोध ऐसे बढ़े कि मायावती विधानसभा भंग करने की सिफारिश लेकर राज्यपाल के पास पहुंच गईं। राज्यपाल ने स्वीकार नहीं किया और मुलायम मायावती के विधायकों को तोड़कर सत्ता में बैठ गए। खास बात यह है कि बीएसपी के बागी विधायकों की सदस्यता बचाने में मुलायम का साथ दिया बीजेपी नेता और विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने। सरकार में चार विधायकों के साथ मुलायम के धुर विरोधी कल्याण सिंह की पार्टी के भी चार विधायक शामिल हुए।
मुलायम वैचारिक तौर पर भले समाजवादी थे, लेकिन निर्णय राजनीतिक जरूरतों के अनुसार लेते थे। 2008 में यूपीए सरकार की अमेरिका से ‘न्यूक्लियर डील’ हो रही थी। लेफ्ट पार्टियों ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। विरोध में एक सुर मुलायम का भी था। तब तक मुलायम परिवार में अमर सिंह की एंट्री हो चुकी थी। 1999 की कड़वाहट अभी भी सोनिया के मन में थी। इसे दूर करने का रास्ता मुलायम ने तलाशा और लेफ्ट को ‘लेफ्ट’ कर डील के साथ खड़े हो गए। यह अलग बात है कि बाद में सार्वजनिक मंचों से मुलायम सीबीआई के इस्तेमाल का आरोप यूपीए सरकार पर ही लगाते रहे।
2009 के लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक वोटों के झंडाबरदार रहे मुलायम ने एक और चौंकाने वाला फैसला लिया। हिंदुत्व के फायर ब्रैंड नेता कल्याण सिंह को उन्होंने एसपी में शामिल करा दिया। पार्टी में हलचल पैदा हो गई। आजम खां जैसे नेताओं ने बगावत कर दी। मुलायम ने कल्याण को राष्ट्रीय अधिवेशन में अपने बगल में बिठाया। पार्टी को चुनाव में नुकसान हुआ और 2004 में मिली 35 सीटें 2009 के लोकसभा चुनाव में घटकर 23 रह गईं। इसके बाद कल्याण और मुलायम की राहें जुदा हो गईं। आजम लौटे और डैमेज कंट्रोल के लिए मुलायम हर मंच से यह याद दिलाते रहे कि 1990 में कल्याण सिंह के ही आदेश से अयोध्या में गोली चली थी।
जब विलेन बन गए मुलायम सिंह यादव
मुलायम सिंह यादव की जिंदगी से जुड़ी कुछ ऐसी बातें हैं, जिन्हें उत्तराखण्ड के लोग कभी नहीं भूल पाएंगे। 2 अक्टूबर 1994 की रात जब अलग पर्वतीय राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारी रामपुर तिराहा पहुंचे तो उनका सामना सत्ता के सबसे दमनात्मक चेहरे से हुआ। पुलिस का दमनकारी चेहरा, लाठीचार्ज, फायरिंग की आवाज रहे, 7 लोगों की मौत और दो दर्जन महिलाओं के साथ बलात्कार की इस वीभत्स घटना को रामपुर तिराहा कांड से जाना जाता है। मुलायम उत्तराखण्ड राज्य बनाने के समर्थन में नहीं थे लेकिन लोग इस मांग को लेकर सड़कों पर थे। तभी से मुलायम सिंह उत्तराखण्ड के लिए खलनायक बन गए। इसका नतीजा यह हुआ कि आज तक समाजवादी पार्टी उत्तराखण्ड में अपनी जड़ें नहीं जमा सकी है।
देश के सबसे बड़े सियासी कुनबे में शुमार
मुलायम ने सियासत में केवल अपना ही विस्तार नहीं किया। उनका कुनबा देश के सबसे बड़े सियासी कुनबे में शुमार है। परिवार के 27 सदस्य अलग-अलग सियासी पदों पर हैं या रह चुके हैं। परिवार के इस विस्तार में उत्तराधिकार का सवाल भी स्वाभाविक था। मुलायम के सबसे छोटे भाई शिवपाल यादव खुद को राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखना चाह रहे थे। इसी बीच अपने बेटे अखिलेश यादव को मुलायम ने सियासत में स्थापित कर दिया था। 2012 में सपा को यूपी में पूर्ण बहुमत मिला। मुलायम के करीबी कई कद्दावर नेताओं का मानना था कि मुलायम ही फिर सीएम बनें, लेकिन मुलायम के दिमाग में नया सियासी चरखा घूम चुका था। उन्होंने रामगोपाल यादव और कुछ और चेहरों को आगे कर अखिलेश का नाम चलवाया और उस पर मुहर लगा दी।
सत्ता तो अखिलेश को जा चुकी थी, लेकिन सियासत और विरासत पर उनका काबिज होना बाकी था। 2016 के आखिर तक मुलायम के बेटे अखिलेश और भाई शिवपाल के बीच तलवारें खिंच चुकी थीं। मुलायम मंच से अखिलेश को डांटते रहे, शिवपाल को दुलारते रहे, लेकिन इस झगड़े में सियासत और विरासत पर अखिलेश काबिज हो गए। मुलायम के ‘कथित’ विरोध के बीच उनके सभी करीबियों का अखिलेश के साथ खड़ा होना महज संयोग नहीं था।
समर्थन और विपक्ष की सियासत के बीच मुलायम सिंह यादव की सबसे बड़ी खासियत सबको अपना बना लेना था। इसलिए उनके राजनीतिक विरोधी भी कभी उनके व्यक्तिगत विरोधी नहीं रहे। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी-शाह नेताजी को 56 इंच का सीना दिखाते हुए चल रहे थे। लेकिन, जब मोदी पीएम बने तो शपथ ग्रहण में पीछे बैठे मुलायम का हाथ थामे अमित शाह उन्हें आगे की कुर्सी पर ले जाकर बिठाते नजर आए। मुलायम के सीएम रहते हुए गोरखपुर के सांसद के रूप में असहज स्थिति का सामना करने वाले योगी आदित्यनाथ सीएम बनने के बाद मुलायम का हालचाल जानने उनके घर कई बार गए। मुलायम के घर के शुभ कार्यक्रमों में सब जुटे और 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने मोदी को फिर से पीएम बनने के लिए संसद में ‘गुड लक’ भी दिया।