ओंकार नाथ सिंह
कानपुर देहात में 8 पुलिस कर्मियों की हत्या हुए आज पांचवा दिन हो गया है, लेकिन अभी तक पुलिस के हाथ वह दुर्दांत अपराधी विकास दुबे और उसके साथी नहीं पकड़े जा सके। इस घटना को अंजाम देने वाले लगभग 100 अपराधी थे, पर अफसोस केवल एक या दो लोग ही पकड़े गए। एक को मुठभेड़ में भी मारा गया है । यह लापरवाहीपूर्ण स्थिति पुलिस की कार्य कुशलता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। इतना ही नहीं इस घटना के बाद अपराधियों पर से जैसे अंकुश ही हट गया हो और लगता है कानून नाम की कोई चीज़ प्रदेश में नहीं रह गई क्योंकि एक ही हफ्ते में लगभग 50 हत्याएं हो गई। उत्तर प्रदेश का पूरा प्रशासन जी-जान से विकास दुबे पकड़ने में लगा हुआ है, पर अब तक कोई सुराग पुलिस के हाथ नहीं लगा है। यहां मैं आज सरकार की आलोचना करने के लिए यह लेख नहीं लिख रहा हूँ, बल्कि सरकार को यह बताने का प्रयास कर रहा हूँ कि यदि अब भी सरकार गम्भीर नहीं हुई तो न सिर्फ उसके लिए, बल्कि आने वाली प्रत्येक सरकार के लिए कानून का शासन लाना एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। मैं एक एक-कर सभी बिंदुओं पर सरकार का ध्यान आकर्षित कराऊंगा।
बिंदु नम्बर एक : जब भी पुलिस ऐसे किसी अपराधी को पकड़ने जाती है तो उसकी रूपरेखा फूल प्रूफ क्यों नहीं रखती है? अर्थात जब भी पुलिस किसी भी अपराधी को रात में घर से उठाती है तो इतना तो निश्चित है कि वह कोई साधारण अपराधी नहीं होगा। आप सभी जानते हैं कि विकास दुबे के ऊपर लगभग 70 केस हैं और उसने एक राज्य मंत्री स्तर के नेता की कानपुर के पुलिस स्टेशन में घुसकर सबके सामने हत्या कर दी थी । इसलिए पुलिस को उसे पकड़ने के लिए सावधानी तो बरतनी चाहिए थी जो उसने नहीं की। उसने रवाना होने से पहले यह जानकारी एलआईयू के ज़रिए क्यों नहीं प्राप्त की कि अपराधी के साथ कितने लोग घटनास्थल पर हैं, उनके पास कौन-कौन से हथियार हैं ताकि उनका जवाब देने के लिए पुलिस पूरी तौर से तैयार रहे। पुलिस को यह भी मालूम होना चाहिए कि इस अपराधी को पुलिस विभाग और राजनीतिक क्षेत्र के कौन-कौन से लोग उसकी मदद करते हैं ताकि दबिश देने के पूर्व उनके ऊपर कड़ी निगरानी रखते और उसके हिसाब से अपनी रूपरेखा बनाते।
बिंदु नम्बर दो : जब कोई भी दल इस प्रकार की दबिश देने जाता है तो इतना तो आप सभी जानते हैं कि अपराधी अपनी जान बचाने के लिए या फरार होने के लिए फायरिंग कर सकता है इसलिए जब दल गांव में पहुंचा और रास्ते में जेसीबी लगी देखी और गांव में अंधेरा देखा तो उसे सचेत होना चाहिए था कि रास्ता रोकने का मतलब बड़ी साज़िश है, पर लगता है पुलिस ने इस बारे में ही सोचा ही नहीं। दूसरे इस प्रकार के ऑपरेशन पर थ्री टायर व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें पहली पंक्ति की फोर्स आगे मुठभेड़ लेने में रहे और दूसरी पंक्ति की फोर्स उसे कवर करने के लिए पीछे रहे ताकि पहली पंक्ति की फोर्स के घिर जाने पर दूसरी पंक्ति की फोर्स पीछे से अपराधियों पर हमला कर दे। और तीसरी पंक्ति की फोर्स उसके पीछे खड़ी रहे ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह और मदद के रूप में तुरन्त पहुंचे, पर इसका सर्वथा अभाव है।

बिंदु नम्बर : तीन पुलिस को अपनी कार्य प्रणाली में सुधार लाने की आवश्यकता है। आप देखते होंगे कि अधिकतर पुलिस के सिपाही व दरोगा शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त नहीं होते। सबकी तोंद निकली होती है जो उनके दौड़ने में बाधक होती है और मुकाबला करते समय जो चुस्ती की आवश्यकता होती है उसका अभाव उनमें रहता है। फायरिंग की भी उन्हें पुलिसकर्मियों को नियमित रूप से ट्रेनिंग नहीं दी जाती इस कारण अकस्मात फायरिंग के मौकों पर उनका धैर्य डगमगा जाता है। इसलियए सरकार को उनकी फिज़िकल फिटनेस पर विशेष ध्यान देना चाहिए और फायरिंग, लाठी चलाने की कला को नियमित रूप से प्रैक्टिस में शामिल करने की व्यवस्था भी करनी चाहिए।
बिंदु नम्बर : इस प्रकार की दबिश के पहले पुलिस इस पर क्यों नहीं ध्यान देती कि कहीं दबिश के वक्त अपराधी तो नहीं जाएगा? यदि उसके भागने की एक प्रतिशत भी सम्भावना बने तो उन सभी रास्तों की नाकेबंदी क्यों नहीं की जाती जिनके द्वारा वह भाग सकता है? पुलिस को इस पर भी ध्यान देना चाहिए।
बिंदु नम्बर : पहले पुलिस में जो दरोगा और कप्तान तैनात किये जाते थे उनका खौफ अपराधियो में होता था और वह लोग वहा की लोकल जनता से अपना तालमेल बिठाकर काम करते थे इसलिए उन्हें काम करने में सहूलियत होती थी। मुझे आज भी उन इंस्पेक्टरों के नाम याद हैं जिनकी कहानी लोग बताते हैं। टाइगर जोगेंद्र सिंह, सर्वदेव कुंवर, रणजीत सिंह, गौतेंद्र पाल सिंह, परमेश्वर राय, कोमल मिश्र, सतीशचन्द्र पांडे, दयाराम वर्मा, जंगबहादुर सिंह, राजा रामपाल वर्मा, रणधीर मिश्रा, रमाशंकर सिंह, अशोक सिंह, आरके सिंह, राम वृक्षपाल सिंह आदि ऐसे बहादुर और कुशल इंस्पेक्टरों में थे जिनसे अपराधी थर-थर कांपता था और वे अपने ऊपर किसी भी प्रकार का राजनीतिक प्रभाव भी नहीं पड़ने देते थे। इनके थाने का चार्ज लेने भर से वहां का काम ठीक हो जाता था। इसी प्रकार पुलिस कप्तान भी बड़े जाबिर होते थे जिनके नाम से शहर और जिले का पुलिस प्रशासन स्वयं चुस्त-दुरुस्त हो जाता था। अपराधी शांत हो जाते थे। बीपीसिंह, प्रकाश सिंह, वीपी कपूर, विक्रम सिंह, शैलजा कांत मिश्रा, रजनी कांत मिश्रा, वीके सिंह, ब्रिज लाल, एसएन सिंह, जगमोहन यादव, एसके शुक्ल, बेदी, नसीम अहमद, बुआ सिंह आदि अनेक पुलिस अधिकारी ऐसे थे जिन्होंने पुलिस कप्तान के रूप में बड़ी ख्याति अर्जित की। अपने कार्यकाल में इन्होंने कप्तान की हैसियत से किसी राजनीतक दबाव के कारण अनुचित फैसले नहीं लिए जिसका आजकल सर्वदा अभाव है।
अगर सरकार ने इन गम्भीर मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में राजनेता, पुलिस और अपराधियों की ऐसी सांठ-गांठ होगी कि किसी भी मुख्यमंत्री के लिए कानून समस्या एक भयावह समस्या होगी और जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ेगा। प्रदेश में सदैव एक समानांतर सरकार चलती रहेगी चाहे कोई जितना भी योग्य मुख्यमंत्री क्यों न हो। मुख्यमंत्री जी को इस पर गम्भीर रूप से मनन करना चाहिए क्योंकि अभी तक प्रदेश क्या पूरे देश में अपराधी या पहले जो डकैत होते थे वह पुलिस से टकराते नहीं थे। गिरफ्तारी या दबिश के समय वह अपनी जान बचाते हुए गोली चलाकर भागते थे उसमें अचानक गोली लगने से किसी पुलिस वाले की मौत होती थी पर यह पहली घटना है जिसमें अपराधियों ने षड्यंत्र करके पुलिस दल को घेर कर हत्या की। ऐसे लगा जैसे कि नक्सली आ गए हों। इस पर सरकार को कड़े से कड़ा रुख अपनाना चाहिए और अपराधियों को शीघ से शीघ्र पकड़े अन्यथा पुलिस का इकबाल ही नहीं सरकार का ही इकबाल समाप्त हो जाएगा।
(लेखक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं।)
मोबाइल 09871380606